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निमित्त
निमित्तकारण
२. निमित्तके एकार्थवाची शब्द १. निमित्त-(दे० निमित्तका लक्षण; स. सि./८/१९. रा. वा./८/११:
प्र.सा./त. प्र. ); २. कारण (दे०निमित्तका लक्षण; स.सि./८/ ११. रा. वा./८/११: प्र. सा./त.प्र./६९) ३. प्रत्यय (दे० निमित्तका लक्षण ); ४. हेतु (स. सा./मू./20 स. सि./८/१९, रा. वा. 1८/१९, प्र. सा./त. प्र./१५) । ५. साधन (रा./१/७/.../३८/२; स. सि./१/७/२६/१); ६.सहकारी (द्र. सं./मू./९७, न्या.दी./ १/१४/१३/१: का. अ./मू./२१८); ७. उपकारी (पं.ध./उ./४१, १०६);८.उपग्राहक (त.सू./१/१७);६. आश्रय (स, सि./२/१७/ २८२/६); १०. आलम्बन (स.सि./१/२३/१२६/६); ११. अनुग्राहक (स.सि./4/११/३२६/११); १२. उत्पादक (स.सा./मू./१००), १३. कर्ता (स.सा./मू./१०६६ स. सा./आ./१००); १४. हेतुकर्ता (स.सि./ १/२२/२६१/८; 4. का./त. प्र./८८) १५. प्रेरक (स.सि./१/१६/२८६/ ६); १६. हेतुमत (प.ध./उ./१०१); १७. अभिव्यंजक (प.ध./ उ./३६०)।
तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपात्रं कनकेन क्रियभाणं कनकमेव न स्वन्यत्। निश्चयनयसे कर्म और करणमें अभेद भाव है, इस न्यायसे जो जिससे किया जाये वह वही है। जैसे-सुवर्ण से किया हुआ सुवर्णका पात्र सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं। (और भी दे० कारक/ १/२); (प्र. सा./त. प्र./१६,३०,३५,६६,१८,११७,१२६) ।
५. करण व कारणके भेदोंका निर्देश स्या. म./८/७/५ में उद्धृत-न चैवं करणस्य द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहुलाक्षणिकाः-'करण द्विविधं ज्ञेयं बाह्याभ्यन्तरं बुधैः। = करण दो प्रकारका न होता हो ऐसा भी नहीं। वैयाकरणियोंने भी कहा है-१. बाह्य और २. अभ्यन्सरके भेदसे करण दो प्रकारका जानना चाहिए। (और भी दे० कारण/१/२)।३.स्व निमित्त, ४. पर निमित्त (उत्पादव्ययधोव्य/१/२)।५.बलाधान निमित्त (स.सि./२/७/२७३/११); (रा. वा./५/७/४/४४६/१८);६,प्रतिबन्ध कारण (स.सि./४२४/ २६६/८). (रा.वा./२/२४/१५/४८६/७) ७. कारक हेतु, ६.ज्ञायक हेतु, ६. व्यंजक हेतु ( दे० हेतु)।
३.करणका लक्षण जैनेन्द्र व्याकरण/१/२/११३ साधकतमं करणं । - साधकतम कारणको करण कहते हैं। (पाणिनि व्या./५/४/४२); (न्या. वि././१३/ ५८/२). स. सा./आ./परि-/शक्ति नं.४३ भवद्भावभवनसाधकतमत्वमयी करण
शक्तिः । -होते हुए भावके होने में अतिशयवाद साधकतमपनेमयी करण शक्ति है। .. करण व कारणके तुलनात्मक प्रयोग स. सि./९/१४/१०८/५ यथा इह धूमोऽग्नेः । एवमिदं स्पर्शनादिकरणं नासति कर्तर्यात्मनि भवितुमर्हसीति ज्ञातुरस्तित्वं गम्यते। -जैसे लोकमें धूम अग्निका ज्ञान कराने में करण होता है, उसी प्रकार ये स्पर्शनादिक करण (इन्द्रियाँ) कर्ता आत्माके अभावमें नहीं हो सकते,
अतः उनसे ज्ञाताका अस्तित्व जाना जाता है। श्लो, वा./२/१/६/श्लो.४०-४३१४ चक्षुरादिप्रमाणं चेदचेतनमपीष्यते। न साधकतमत्वस्याभावात्तस्याचितः सदा।४। चितस्तु भावनेत्रादेः प्रमाणत्वं न वार्यते । तत्साधकतमश्वस्य कचिदुपपत्तितः ।४॥ - -नैयायिक लोग चक्षु आदि इन्द्रियोंमें, ज्ञानका सहायक होनेसे, उपचारसे करणपना मानकर, 'चक्षुषा प्रमीयते' ऐसी तृतीमा विभक्ति अर्थात् करण कारकका प्रयोग कर देते हैं। परन्तु उनका ऐसा करना ठीक नहीं है, क्योंकि, उन अचेतन नेत्र आदिको प्रमितिका साधकतमपना सर्वदा नहीं है ।४० हाँ यदि भावइन्द्रिय (ज्ञानके क्षयोपशम) स्वरूप नेत्र कान आदिको करण कहते हो तो हमें इष्ट है; क्योंकि, चेतन होनेके कारण प्रमाण है। उनकी किसी अपेक्षासे ज्ञप्तिक्रियाका साधकतमपना या करणपना सिद्ध हो जाता है । (स्या, म./
१०१०६/१४ ); (न्या. दी./१/१४/१२)। भ, आ./वि./२०/७१/४ क्रियते रूपादिगोचरा विज्ञप्तय एभिरिति करणानि इन्द्रियाण्युच्यन्ते क्वचित्करणशब्देन । अन्यत्र क्रियानिष्पत्तौ यदतिशयितं साधकं तरकरणमिति साधकतममात्रमुच्यते । क्वचित्तु क्रियासामान्यवचनः यथा 'कृ' करणे इति । करण शब्दके अनेक अर्थ है-रूपादि विषयको ग्रहण करनेवाले ज्ञान जिनसे किये जाते हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं वे इन्द्रियाँ करण हैं। कार्य उत्पन्न करनेमें जो कर्ताको अतिशय सहायक होता है उसको भी करण या साधकतम मात्र कहते हैं। जैसे-देवदत्त कुल्हाड़ीसे लकड़ी काटता है। कहीं-कहीं करण शब्दका अर्थ सामान्य क्रिया भी माना गया है। जैसे-'डुकृञ् करणे' प्रस्तुत प्रकरणमें करण शब्दका क्रिया ऐसा अर्थ है। स, सा./आ./६५-६६ निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वाद यद्यन क्रियते
६.निमित्तके भेदोके लक्षण व उदाहरण रा, वा./१/सू./वार्तिक/पृष्ठ/प. इन्द्रियानिन्द्रियजलाधानात पूर्व नुपलब्धेऽर्थ नोइन्द्रियप्राधान्यात् यदुत्पद्यते ज्ञान तत् श्रुतम् । (रा. वा./ १/६/२७/४७/२६)। यतः सत्यपि सम्यग्दृष्टेः श्रोत्रंद्रियबलाधाने बाह्याचार्यपदार्थोपदेशसंनिधाने च तज्ञानावरणोदयशीवृतस्य। स्वयमन्तःश्रुतभवन निरुत्सुकत्वादात्मनो न श्रुतं भवति, अतः माह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव आभ्यन्तर- भूतभवनपरिणामाभिमुख्याव श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति, तस्य निमित्तमात्रत्वाव (रा.वा./१/२०/४/७४/७)। चक्षरादीनां रूपा दिविषयोपयोगपरिणामाद प्राक् मनसो व्यापारः।...ततस्तबलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियन्ते । (रा. वा /२/१५/४/१२६/२०)। श्रोत्रबलाधानादुपदेश श्रुत्वा हिताहितप्राप्तिपरिहारार्थमाद्रियन्ते। अतः श्रोत्रं महूपकारीति । (रा. वा/२/११/७/१३१/३०)। युज्यते धर्मास्तिकायस्य जीवपुद्गलगति प्रत्यप्रेरकत्वम, निष्क्रियस्यापि बलाधानमात्रत्व दर्शनाच, आत्मगुणस्तु अपरत्र क्रियारम्भे प्रेरको हेतुरिष्यते तद्वादिभिः । न च निष्क्रियो द्रव्यगुण प्रेरको भवितुमर्हति... किच, धर्मास्तिकायाख्यद्रव्यमाश्रयकारणं भवतु न तु निष्क्रियात्मद्रव्यगुणस्य ततो व्यतिरेकेणाऽनुपलभ्यमानस्य क्रियाया आश्रयकारणत्वं युक्तम् । (रा. वा./५/७/१३/४४७/३३)। उपकारो मलाधानम् अवलम्बनम् इत्यनन्तरम् । तेन धर्माधर्मयोः गतिस्थितिनिवर्तने प्रधानकतृत्वमपोदितं भवति । यथा अन्धस्येतरस्य वा स्वजवाबलाइगच्छतः यष्ट्याद्य पकारकं भवति न तु प्रेरकं तथा जीवपुद्गलाना स्वशक्त्यैव गच्छता तिष्ठतां च धर्माधमौं उपकारको न प्रेरको इत्युक्तं भवति । (रा. वा//१७/१६/७)। -इन्द्रिय व मनके बलाधान निमित्तसे पूर्व उपलब्ध पदार्थ में, मनकी प्रधानतासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह श्रुत है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवकोश्रोत्रेन्द्रियका बलाधाननिमित्त होते हुए भी तथा बाह्य में आचार्य, पदार्थ व उपदेशका सानिध्य होनेपर भी, भूतज्ञानावरणसे वशीकृत आत्माका स्वयं श्रुतभवनके प्रति निरुत्सुक होनेके कारण, श्रुतज्ञान नहीं होता है, इसलिए बाह्य जो मतिज्ञान आदि उनको निमित्त करके आत्मा ही अभ्यन्तरमें श्रुतरूप होनेके परिणामकी अभिमुख्यताके कारण श्रुतरूप होता है। मतिज्ञान श्रुत रूप नहीं होता, क्योंकि वह तो श्रुतज्ञानका निमित्तमात्र है। चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा ज्ञान होनेसे पहले ही मनका व्यापार होता है। उसको वलाधान करके चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में व्यापार करती है। श्रोत्र इन्द्रियके बलाधानसे उपदेशको सुनकर हितकी प्राप्ति और अहितके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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