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________________ निधत्त ६१० निमित्त कारण को फेकते समय, बैठते-खडे होते व सोते समय, हाथ-पाँव पसारते निबन्धन-स. सि./१/२६/१३३/७-निबन्धनं निबन्ध' । - निबया सिकोड़ते समय, उत्तानशयन करते समय या करवट बदलते न्धन शब्दका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है जोड़ना. सम्बन्ध करना । (रा. समय, साधुजन अपना शरीर पिच्छिकासे साफ करते हैं । वा./१/२६.../८७/८)। ३. योग निद्रा विधि घ. १११/१० निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम्, जं दवं जाम्ह णिबद्ध तं णिबंधणं ति भणिदं होदि। -निबध्यते तदस्मिन्निति मू. आ./७६४ सज्झायज्झाणजुत्ता रत्ति ण सुबंति ते पयामं तु । सुत्तत्थं चिंतता णिदाय वसंण गच्छति ७६४। -स्वाध्याय व ध्यानसे युक्त निबन्धनम्' इस निरुक्तिके अनुसार जो द्रव्य जिसमे सम्बद्ध है उसे साधु सूत्रार्थ का चिन्तवन करते हुए रात्रिको निद्राके वश नही होते निबन्धन कहा जाता है। हैं। यदि सोवें तो पहला व पिछला पहर छोडकर कुछ निद्रा ले २. द्रव्य क्षेत्रादि निबन्धन लेते हैं ।७६४ ध.१५/२/१० जं दव्वं जाणि दवाणि अस्सिदण परिणमदि जस्स वा अन, ध./8/9/८५१ क्लमं नियम्य क्षणयोगनिद्रया लातं निशीथे दब्वस्स सहावो दव्वंतरपडिबद्धो तं दव्वणिबंधणं । खेत्तणिबंधणं घटिकाद्वयाधिके । स्वाध्यायमत्यस्य निशाद्विनाडिकाशेषे प्रतिक्रम्य णाम गामणयरादीणि, पडिणियदखेत्ते तेसि पडिबद्धत्तुवलं भादो। जो च योगमुत्सृजेत् ।। =मनको शुद्ध चिद्रूपमें रोकना योग कहलाता जम्हि काले पडिबद्धो अत्थो तक्काल णिबंधण। तं जहा-चुअफुहै। 'रात्रिको मैं इस वस्तिकामें ही रहूँगा' ऐसी प्रतिज्ञाको योग ल्लाणि चेत्तमासणिबद्धाणि.. तत्थेव तेसिमुबलंभादो ।...चरत्तियाओ निद्रा कहते हैं । अर्धरात्रिसे दो घड़ी पहले और दो घड़ी पीछेका, णिबंधो त्ति वा । जं दब्वं भावस्स आलंबणमाहारो होदि तं ये चार घडी काल स्वाध्यायके अयोग्य माना गया है । इस अल्पकाल भावणिवंधणं । जहा लोहस्स हिरण्णसुवण्णादीणि णिबंधणं, ताणि में साधुजन शरीरश्रमको दूर करनेके लिए जो निद्रा लेते हैं उसे क्षण अस्सिऊण तदुप्पत्तिदसणादो, उप्पण्णस्स वि लोहस्स तदावलंबणयोगनिद्रा समझना चाहिए। दसणादो। -जो द्रव्य जिन द्रव्योंका आश्रय करके परिणमन दे. कृतिकर्म/४/३/१-(योगनिद्रा प्रतिष्ठापन व निष्ठापनके समय साधुको करता है, अथवा जिस द्रव्यका स्वभाव द्रव्यान्तरसे प्रतिबद्ध है वह योगिभक्ति पढनी चाहिए। द्रव्य निबन्धन कहलाता है। ग्राम व नगर आदि क्षेत्रनिबन्धन हैं; ३. अन्य सम्बन्धित विषय क्योकि, प्रतिनियत क्षेत्रमें उनका सम्बन्ध पाया जाता है। जो अर्थ १. पाँच निद्राओंको दर्शनावरण कहनेका कारण । जिस कालमे प्रतिबद्ध है वह काल निबन्धन कहा जाता है । यथा-दे० दर्शनावरण आम्र वृक्षके फूल चैत्र माससे सम्बद्ध हैं क्योंकि वे इन्हीं मासोंमें पाये जाते हैं। अथवा पंचरात्रिक निबन्धन कालनिबन्धन है (१)। जो २. पाँचों निद्राओं व चक्षु आदि दर्शनावरणमें अन्तर । द्रव्य भावका अवलंबन अर्थात आधार होता है, वह भाव निबन्धन -दे० दर्शनावरण /८ । ३. निद्रा प्रकृतियोंका सर्वघातीपना। --दे० अनुभाग/४ । होता है। जैसे-लोभके चाँदी, सोना आदिक है; क्योंकि, उनका आश्रय करके लोभकी उत्पत्ति देखी जाती है. तथा उत्पन्न हुआ लोभ ४. निद्रा प्रकृतियोंकी बन्ध, उदय सत्त्वादि प्ररूपणाएँ। भो उनका आलम्बन देखा जाता है । -दे० वह वह नाम। निबद्ध मंगल-दे० मंगल । ५. अति संक्लेश व विशुद्ध परिणाम सुप्तावस्थामें नहीं होते। निमंत्रण दे० समाचार। -दे० विशुद्धि/१०॥ ६. निद्राओंके नामों में द्वित्वका कारण। -दे० दर्शनावरण ।। निमग्ना७. जो निजपदमें जागता है वह परपदमें सोता है। ति.प./४/२३६ णियजलभरउवरिगदं दव्वं लहुगं पि णेदि हेहम्मि । --दे० सम्यग्दृष्टि/४। जेणं तेण भण्णइ एसा सरिया णिमग्गा त्ति ।२३१) -(विजयार्घकी पश्चिमी गुफाकी एक नदी है-दे० लोक/३/५)क्योंकि यह नदी अपने निधत्त-दे०निकाचित । जलप्रवाहके ऊपर आयी हुई हलकीसे हलकी वस्तुको भी नीचे ले निधि-चक्रवर्तीकी ह निधि-दे० शलाका पुरुष/२ । जाती है, इसीलिए यह नदी निमग्ना कही जाती है ।२३। (त्रि. सा. ५६१) निधुरा-भरत क्षेत्र पूर्वी आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४।। निमित्त-आहारका एक दोष । दे० आहार/II/४ | निह्नवमू. आ./२८४ कुलवयसीलविहूणे सुत्तत्य सम्मगागमित्ताणं । कुलवयसील महल्ले णिण्हवदोसो दु जपतो।२८४ा कुल. व्रत, शील विहीन निमित्त कारणमठ आदिका सेवन करनेके कारण, कुल, ब्रत व शीलसे महान गुरुके १. निमित्त कारणका लक्षण पास अच्छी तरह पढ़कर भी मैने ऐसे बती गुरुसे कुछ भी नहीं पढ़ा' ऐसा कहकर गुरु व शास्त्रका नाम छिपाना निहव है। स. सि/१/२१/१२५/७ प्रत्ययः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम।स.सि./६/१०/३२७/११ कुतश्चित्कारणान्नास्ति न वेद्मीत्यादि ज्ञानस्य प्रत्यय, कारण व निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। (ध. १२/४,२,८, व्यपलपनं निह्नव'। किसी कारणसे, ऐसा नहीं है, मैं नहीं जानता' २/२७६/२): ( और भी दे० प्रत्यय)। ऐसा कहकर ज्ञानका अपलाप करना निह्नव है। (रा. बा./६/१०/२/ स. सि./१/२०/१२०/७ पूरयतीति पूर्व निमित्त कारणमित्यमर्थान्तरम् । ५१७/१३); (गो. क /जी. प्र. ८००/७१/१०)। - 'जो पूरता है अर्थात् उत्पन्न करता है इस व्युत्पत्तिके अनुसार पूर्व ५. आ./वि /११३/२६१/४ निषोऽपलापः । कस्यचित्सकाशे श्रुतमधो- निमित्त कारण ये एकार्थवाची नाम हैं । (रा. वा./१/२०/२/७०/२६)। त्यन्यो गुरु रित्यभिधानमपलाप'। -अपलाप करना निहव है। एक श्लो. बा. २/१/२/११/२८/१३-भाषाकार-कार्यकालमें एक क्षण पहलेसे 'आचार्य के पास अध्ययन करके 'मेरा गुरु तो अन्य है' ऐसा कहना रहते हुए कार्योत्पत्तिमें सहायता करनेवाले अर्थको निमित्तकारण अपलाप है। कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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