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चेतना
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३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार
५. अज्ञानचेतना संसारका बीज है स. सा./आ./३८७-३८६ सा तु समस्तापि संसारबीजं. संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात्। -वह समस्त अज्ञान चेतना ससारका बीज है, क्योंकि संसारके बीजभूत अष्टविध कर्मोंकी वह बोज है। इ.स स्थावर आदिकी अपेक्षा तीनों चेतनाओंका
स्वामित्व पं.का./मू-/३६ सब्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं ।
पाणित्तमदिक्कता णाणं विदति ते जीवा। -सर्व स्थावर जीव वास्तवमें कर्मफलको वेदते हैं, उस कर्म व कर्मफल इन दो चेतनाओंको वेदते है और प्राणित्वका अतिक्रम कर गये हैं ऐसे केवलज्ञानी ज्ञानचेतनाको वेदते हैं।
स.सा/आ./६७ .येनायमज्ञानात्परात्मनोरेकत्वविकरुपमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयत' कर्ता प्रतिभाति · आसंसारप्रसिद्धेन मिलितस्वादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात: ततः परात्मनावेकत्वेन जानाति, तत' क्रोधोऽहमित्यादि विकल्पमात्मन' करोति; ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो बार वारमनेक विकल्पै. परिणमनकर्ता प्रतिभाति। क्योंकि यह आत्मा अज्ञानके कारण परके और अपने एकत्वका आत्मविकल्प करता है, इसलिए वह निश्चयसे कर्ता प्रतिभासित होता है। अनादि संसारसे लेकर मिश्रित स्वादका स्वादन या अनुभवन होनेसे जिसकी भेद संवेदनको शक्ति संकुचित हो गयी है ऐसा अनादिसे ही है। इसलिए वह स्वपरका एकरूप जानता है; इसलिए मैं क्रोध हूँ इत्यादि आत्मविकल्प करता है; इसलिए निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक विज्ञानधन (स्वभाव) से भ्रष्ट होता हुआ, बारम्बार अनेक विकल्परूप परिणमित होता हुआ कर्ता प्रतिभासित होता है । (स.सा /आ./१२,७०,२८३-२८५)। . पं.का./ता.वृ/१४७/२१३/१५ यदायमात्मा निश्चयनयेन शुद्धबुद्ध कस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिबन्धनोपाधिवशाद्रक्त' सन् निर्मलज्ञाननन्दादिगुणास्पदशुद्धात्मस्वरूपपरिणतेः पृथग्भूतामुदयागतं शुभाशुभं वा स्वसंवित्तिश्च्युतो भूत्वा भावं परिणाम करोति तदा स आत्मा तेन रागपरिणामेन कतृ भूतेन बन्धो भवति । यद्यपि निश्चयनयसे यह आत्मा शुद्धबुद्ध एकस्वभाव है, तो भी व्यवहारसे अनादि बन्धकी उपाधिके वशसे अनुरक्त हुआ, निर्मल ज्ञानानन्द आदि गुणरूप शुद्धात्मस्वरूप परिणतिसे पृथग्भूत उदयागत शुभाशुभ कर्मको अथवा स्वसंवित्तिसे च्युत होकर भावों या परिणामोंको करता है, तब वह आत्मा उस कर्ताभूत रागपरिणामसे बन्धरूप होता है।
७. अन्य सम्बन्धित विषय १. शान चेतनाकी निर्विकल्पता-दे० विकल्प। २. सम्यग्दृष्टिकी कर्म व कर्मफल चेतना भी ज्ञान चेतना ही है
-दे० सम्यग्दृष्टि/२ । ३. लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको शान चेतना रहती है
-दे० सम्यग्दृष्टि/२ । ४. सम्यग्दृष्टिको शान चेतना अवश्य होती है-दे० अनुभव/५ । ५. शुद्ध व अशुद्ध चेतना निर्देश-दे० उपयोग/II | ६. शप्ति व करोति क्रिया निर्देश-दे० चेतना/३/५ ।
दहिको शानदेश-
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३. ज्ञातृत्व कर्तृत्व विचार १ज्ञान क्रिया व अज्ञान क्रिया निर्देश
स.सा./आ./७० आत्मज्ञानयोरविशेषाभेदमपश्यन्ननिश्शङ्कमात्मतया ज्ञाने
वर्तते तत्र वर्तमानश्चज्ञानक्रियाया स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति । तदत्र योऽयमात्मा स्वयमज्ञानभवने. ज्ञानभवनव्याप्रियमाणत्वेभ्यो भिन्न क्रियमाणत्वेनान्तरुत्प्लवमान प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । -आत्मा और ज्ञानमें विशेष न होनेसे उनके भेदको न देखत हुआ नित्यपने ज्ञानमें आत्मपनेसे प्रवर्तता है, और वहाँ प्रवर्तता हुआ वह ज्ञानक्रियाका स्वभावभूत होनेसे निषेध नहीं किया गया है, इसलिए जानता है, जानने रूपमें परिणमित होता है ।...जो । यह आत्मा अपने अज्ञानभावसे ज्ञानभवनरूप प्रवृत्तिसे भिन्न जो क्रियमाणरूपसे अन्तरंग उत्पन्न होते हुए प्रतिभासित होते है ऐसे । क्रोधादि वे (उस आत्मारूप कर्ताके) कर्म है। २. परद्रयों में अध्यवसान करनेके कारण ही जीव कर्ता प्रतिमासित होता है न.च.व./३७६ भेदुवयारे जइया वट्टदि सो विय सुहासुहाधीणो। तइया । कत्ता भणिदो संसारी तेण सों आदा ।३७६। = शुभ और अशुभके आधीन भेद उपचार जबतक वर्तता है तबतक संसारी आत्मा कर्ता कहा जाता है। (ध.१/१,१,२/११६/३) । स,सा./आ./३१२-३१३ अयं हि आसंसारत एव प्रतिनियतस्वलक्षणानि
निन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणारकर्ता । - यह आत्मा अनादि संसारसे ही अपने और परके भिन्न-भिन्न) निश्चित स्वलक्षणोंका ज्ञान न होनेसे दूसरे का और अपना एकत्वका अध्यास करनेसे कर्ता होता है। (स.सा./आ./३१४-३९५) (अन ध/८/६/७३४) ।
३. स्वपर भेद ज्ञान होनेपर वही ज्ञाता मात्र रहता हुआ
अकर्ता प्रतिभासित होता है न.च.व./३७७ जइया तब्विवरीए आदसहावेहि संठियो होदि । तइया किच ण कुव्व दि सहावलाहो हवे तेण ।३७७१ म उस शुभाशुभ रूप भेदोपचार परिणतिसे विपरीत जब वह आत्मा स्वभाव में स्थित होकर कुछ नहीं करता तब उसे स्वभाव (ज्ञाताद्रष्टापने) का लाभ होता है। स.सा./आ/३१४-३१५ यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षण निर्ज्ञानात्... परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति । जब यही आत्मा ( अपने और परके भिन्न-भिन्न ) निश्चित स्वलक्षणों के ज्ञान के कारण
स्व परके एकत्वका अध्यास नहीं करता तब अक्र्ता होता है। स सा./आ./६७ ज्ञानी तु सन्.. निखिलरसान्तरविविक्तात्यन्तमधुरचैतन्यैकरसोऽयमामा भिन्नरसा' कषायास्तैः सह यदेकत्वविकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति, ततोऽकृतकमेक ज्ञानमेवाहं न पुन' कृतकोऽनेकः क्रोधादिरपीति ततो निर्विकल्पोडकृतक एको विज्ञानधनो भूतोऽत्यन्तमकर्ता प्रतिभाति । =जब आत्मा ज्ञानी होता है तब समस्त अन्य रसोंसे विलक्षण अत्यन्त मधुर चैतन्य रस हो एक जिसका रस है ऐसा आत्मा है और कषायें उससे भिन्न रसवाली हैं, उनके साथ जो एकत्वका विकल्प करना है वह अज्ञानसे है, इस प्रकार परको और अपनेको भिन्नरूप जानता है, इसलिए अकृत्रिम (नित्य) एक ज्ञान हो मैं हूँ, किन्तु कृत्रिम (अनित्य) अनेक जो क्रोधादिक है वह मैं नहीं हूँ ऐसा जानता हुआ; निर्विकल्प, अकृत्रिम, एक, विज्ञानघन होता हुआ अकर्ता प्रतिभासित होता है। (स.सा./भा /६३;७१,२८३-२८५)। स.सा./आ./१७/क.५६ ज्ञानाद्विवेचकया तु परात्मनोर्यो, जानाति हंस इव वा. पयसोविशेषम् । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो, जानीत एव हि करोति न किंचनापि । = जैसे हंस दूध और पानीके विशेषको जानता है, उसी प्रकार जो जीव ज्ञानके कारण विवेकवाला होनेसे परके और अपने विशेषको जानता है, वह अचल चैतन्य धातुमें
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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