________________
कषाय
३६
२. कषाय निर्देश व शंका समाधान
५. नोकषाय या अकषायका लक्षण
चित्रमें अंकित ऐसा रुष्ट हुआ जीव आदेशकषायकी अपेक्षा क्रोध है । स. सि./८/६/३८६/११ ईषदर्थे नत्र' प्रयोगादीषत्कषायोऽकषाय इति ।
(इसी प्रकार चित्रलिखित अकडा हुआ पुरुष मान, ठगता हुआ मनुष्य =यहाँ ईषत् अर्थात् किचिद अर्थ में 'न' का प्रयोग होनेसे किचित
माया तथा लम्पटताके भाव युक्त पुरुष लोभ है)। इस प्रकार काष्ठ कषायको अकषाय (या नोकषाय ) कहते है । (रा वा /८/8/३/५७४/
कर्ममे या पोतकर्म में लिखे गये (या उकेरे गये ) क्रोध, मान, माया
और लोभ आदेश कषाय है । (१२६३-२६८ के चूर्ण सूत्र पृ. ३०१-३०३) १०) (ध. ६/१,६-१,२४/४६/१) (ध. १३/५,५,६४/३५९/६). (गो. क/जी.प्र./३३/२८/७)। ६. अकषाय मागणाका लक्षण
२. कषाय निर्देश व शंका समाधान पं. सं / प्रा./१/११६ अप्पपरोभयबाहणबंधासजमणिमित्तकोहाई । जेसि१. कषायोंका परस्पर सम्बन्ध णत्थि कसाया अमला अकसाइ णो जीवा ।११६। जिनके अपने
ध.१२/४,२,७,८६/५२/६ मायाए लोभपुरंगमत्तुवलंभादो। आपको, परको और उभयको बाधा देने, बन्ध करने और असंयमके
ध.१२/४,२,७,८८/५२/११ कोधपुरंगमत्तदसणादो। आचरणमें निमित्तभूत क्रोधादि कषाय नहीं है, तथा जो बाह्य और
ध.१२/४,२,७,१००/५७/२ अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए । माया, लोभअभ्यन्तर मलसे रहित है ऐसे जीवोको अकषाय जानना चाहिए।
पूर्वक उपलब्ध है। वह (मान) क्रोधपूर्वक देखा जाता है। अरतिके (ध. १/१,१,१११/ १७८/३५१ ) (गो.जी /मू./२८४/६१७ ।।
बिना शोक नहीं उत्पन्न होता। ७. तीव्र व मन्द कषायके लक्षण व उदाहरण
२. कषाय व नोकषायमें विशेषता पा. अ./मू/११-१२ सव्वत्थ वि पिय वयणं दुचयणे दुज्जणे वि खम
ध. ६/१,६-१,२४/४५/५ एत्थ गोसद्दो देसपडिसेहो घेत्तव्बो, अण्णहा करणं । सव्वेसिं गुणगहणं मंदकसायाण दिट्ठता।६१। अप्पपसंसण
एदेसिमकसायत्तप्पसंगादो। होदु चे ण, अकासायाणं चारित्ताबरणकरण पुज्जेसु वि दोसगहणसीलत्तं । वेरधरणं च सुइर तिव्व कसायाण
विरोहा। ईषतकषायो नोकषाय इति सिद्धम् । ...कसाएहितो णोकलिंगाणि ।१२। सभीसे प्रिय वचन बोलना, खाटे वचन बोलनेपर
सायाणं कधं थोवत्तं । द्विदीहितो अणुभागदो उदयदो य । उदयदुर्जनको भीक्षमा करना और सभीके गुणोको ग्रहण करना, ये मन्द
कालो णोकसायाणं कसाएहितो बहुओ उवल भदि त्ति णोकसाएहितो कषायी जीवोंके उदाहरण हैं ।६। अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषोमे
कसायाणं थोवत्तं किण्णेच्छदे। ण, उदयकालमहल्लत्तणेण चारित्तभी दोष निकालनेका स्वभाव होना और बहुत कालतक वैरका धारण
विणासिकसाए हितो तम्मलफलकम्माणं महल्लत्ताणुववत्तीदो। नोककरना, ये तीन कषायी जीवोंके चिन्ह हैं ।।
षाय शब्दमें प्रयुक्त नो शब्द, एकदेशका प्रतिषेध करनेवाला ग्रहण
करना चाहिए. अन्यथा इन स्त्रीवेदादि नवों कषायोंके अकषायताका ८. आदेश व प्रत्यय आदि कषायोंके लक्षण
प्रसंग प्राप्त होता है। प्रश्न होने दो, क्या हानि है ? उत्तर-महीं; क. पा. १/१,१३-१४/प्रकरण / पृष्ठ/पंक्ति "सर्जो नाम वृक्षविशेषः, तस्य क्योंकि, अकषायोंके चारित्रको आवरण करनेका विरोध है। कषायः सर्जकषाय, । शिरीषस्य कषाय शिरीषकषायः ।। २४२/२८५/
इस प्रकार ईषत् कषायको नोकषाय कहते हैं, यह ६/ पञ्चयकसायो णाम कोहवेयणीयस्स कम्मस्स उदएण जीवो कोहो सिद्ध हुआ । प्रश्न कषायोसे नोकषायोके अल्पपना कैसे है । होदि तम्हा तं कम्म पच्चयकसारण कोहो । (चूर्णसुत्र पृ. २८७)/ समु- उत्तर-स्थितियोकी, अनुभागकी और उदयकी अपेक्षा कषायोंसे त्पत्तियकसायो णाम, कोहो सिया जीवो सिया णोजोबो एवमट्ठभंगा/ नोकषायोके अल्पता पायी जाती है। प्रश्न-नोकषायोंका उदयकाल (चूर्ण सूत्र पृ. २६३ )/ मणुसस्सपडुच्च कोहो समुप्पण्णो सो मणुस्सो कषायोंका अपेक्षा बहुत पाया जाता है, इसलिए नोकषायोंकी अपेक्षा कोहो । (चूर्ण सूत्र पृ. २६५)/ कट्ठ वा लेड्डुवा पडच्च कोहो समुप्पण्णो कषायोके अल्पपना क्यों नहीं मान लेते हैं। उत्तर-नहीं, क्योंकि, तं कट्ठ' वा लेडु वा कोहो । ( चूर्णसूत्र पृ. २६८) एवं माणमाया- उदयकालकी अधिकता होनेसे, चारित्र विनाशक कषायोंकी अपेक्षा लोभाणं (पृ. ३००) । आदेसकसारण जहा चित्तकम्मे लिहिदो कोहो चारित्रमे मलको उत्पन्न करनेरूप फलवाले कर्मोकी महत्ता नहीं बन रुसिदो तिवलिदणिडालो भिउडि काऊण। (चूर्ण सूत्र/पृ ३०१)। सकती। (ध १३/५,५,६४/३५६/६) एवमेदे कट्टकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसायो णाम । (चूर्णसूत्र/पृ० ३०३) - सर्ज साल नामके वृक्षविशेषको कहते हैं। उसके ३. कषाय जीवका गुण नहीं है, विकार है कसैले रसको सर्जकषाय कहते हैं। सिरीष नामके वृक्षके कसैले
ध.५/१,७,४४/२२३/५ कसाओ णाम जीवगुणो, ण तस्स विणासो अस्थि रसको सिरीषकषाय कहते हैं ( ६ २४२ ) । अब प्रत्ययकषायका स्वरूप णाणदं सणाणमिव । विणासो वा जीवस्स विणासेण होदव्यं; णाणकहते हैं-क्रोध वेदनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोध रूप होता है, इस- दसणविणासेणेव । तदोण अकसायत्तं घडदे। इदि। होदु णाणलिए प्रत्ययकर्मकी अपेक्षा वह क्रोधकर्म क्रोध कहलाता है (२४३ का दंसणाणं विणासम्हि जीव विणासो, तेसि तल्लकखणत्तादो । ण कसाओ चूर्णसूत्र पृ. २८७) । ( इसी प्रकार मान माया व लोभका भी कथन जीवस्स लक्रवण, कम्मजणिदस्स लक्रवणत्त विरोहा। ण कसायाण करना चाहिए ) ( २४७ के चूर्ण सूत्र पृ. २८६) । समुत्पत्तिको अपेक्षा कम्मणिदत्तमसिद्ध', कसायबड्ढीए जीवलक्रवणणाणहाणिअण्णकहींपर जीव क्रोधरूप है कहींपर अजीव क्रोधरूप है इस प्रकार आठ हाणुववत्तीदो तस्स कम्मजणिदत्त सिद्धीदो। ण च गुणो गुणंतरविरोहे भंग करने चाहिए। जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है अण्णत्थ तहाणुवलंभा ।प्रश्न-कषाय नाम जीवके गुणका है, इसवह मनुष्य समुत्पत्तिक कषायकी अपेक्षा क्रोध है। जिस लकडी लिए उसका विनाश नहीं हो सकता, जिस प्रकार कि ज्ञान और अथवा ईट आदिके टुकड़ेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है समु- दर्शन, इन दोनो जीवके गुणोंका विनाश नहीं होता। यदि जीवके त्पत्तिक कषायको अपेक्षा व लकड़ी या इंट आदिका टुकडा क्रोध गुणोका विनाश माना जाये, तो ज्ञान और दर्शनके विनाशके समान है । ( इसी प्रकार मान, माया, लोभ का भी कथन करना जीवका भी विनाश हो जाना चाहिए। इसलिए सूत्रमें कही गयी चाहिए)। (६२५२-२६२ के चूर्ण सूत्र पृ. २६३-३००)। भौह अकषायता घटित नहीं होती। उत्तर-ज्ञान और दर्शनके विनाश चढ़ानेके कारण जिसके ललाटमें तीन बली पड गयी है होनेपर जीवका विनाश भले ही हो जावे; क्योंकि, वे जीवके लक्षण
पायोंके चाईबत कभाषामाके की अपेक्षा कुदयकाल
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org