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कषाय
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२. कषाय निर्देश व शंका समाधान
हैं। किन्तु कषाय तो जीवका लक्षण नहीं है, क्योकि कर्म जनित कषायको जीवका लक्षण माननेमे विरोध आता है। और न कषायोका कर्मसे उत्पन्न होना असिद्ध है, क्योकि, कषायोकी वृद्धि होनेपर जीवके लक्षणभूत ज्ञानकी हानि अन्यथा बन नहीं सकती है। इसलिए कषायका कर्मसे उत्पन्न होना सिद्ध है। तथा गुण गुणान्तरका विरोधी नहीं होता, क्योकि, अन्यत्र वैसा देखा नहीं जाता।
है जीवको या द्रव्यकर्म दोनोंको ही क्रोधादि संज्ञाएँ कैसे प्राप्त हो सकती हैं
- प्रश्न-ताडन मारण आदि व्यापारसे रहित अजीव (काष्ठ ढेला आदि । क्रोधको उत्पन्न नहीं करते हैं (फिर वे क्रोध कैसे कहला सकते हैं)। उत्तर-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है। क्योंकि, जो कॉटा पैरको बींध देता है उसके ऊपर भी क्रोध उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है। तथा बन्दरके शरीरमें जो पत्थर आदि लग जाता है, रोषके कारण वह उसे चबाता हुआ देखा जाता है। इससे प्रतीत होता है कि अजीव भी क्रोधको उत्पन्न करता है। क.पा.१/१,१३-१४/ २६२/३००/११ "कधं णोजीवे माणस्स समुष्पत्ती। ण; अप्पणो रूवजोव्यणगव्वेण वत्थालं कारादिसु समुव्वहमाण माणस्थी पुरिसाणमुबलं भादो।"प्रश्न-अजीवके निमित्तसे मानकी उत्पत्ति कैसे होती है। उत्तर-ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि अपने रूप अथवा यौवनके गर्व से वस्त्र और अलंकार आदिमें मानको धारण करनेवाले स्त्री और पुरुष पाये जाते है। इसलिए समुत्पत्तिक कषायकी अपेक्षा वे वस्त्र और अलंकार भी मान कहे जाते हैं।
क.पा.२/१,१,१३-११/६२४३-२४४/२८७-२८८/७६२४३ 'जीवो कोहो होदि' त्ति ण घडदे; दध्वस्त जीवस्स पज्जयसरूबकोहभाषावत्ति विरोहादो; ण; पज्जएहितो पुधभूदजीवदव्याणुवलं भादो । तेण 'जीवो कोहो होदि' त्ति घडदे । २४४. दव्बकम्मस्स कोहणिमित्तस्स कथं कोहभावो । ण; कारणे कज्जुवयारेण तस्स कोहभावसिद्धीदो । प्रश्न'जीव क्रोधरूप होता है' यह कहना संगत नहीं है, क्योंकि जीव द्रव्य है और क्रोध पर्याय है। अत. जीवद्रव्यको क्रोध पर्यायरूप माननेमे विरोध आता है। उत्तर-नहीं, क्योकि जीव द्रव्य अपनी क्रोधादि पर्यायोंसे सर्वथा भिन्न नहीं पाया जाता।--दे० द्रव्य/४ । अत. जीव क्रोधरूप होता है यह कथन भी बन जाता है। प्रश्नद्रव्यकर्म क्रोधका निमित्त है अत वह क्रोधरूप कैसे हो सकता है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, कारणरूप द्रव्यमें कार्यरूप क्रोध भावका उपचार कर लेनेसे द्रव्यकर्ममे भी क्रोधभावको सिद्धि हो जाती है, अर्थात् द्रव्यकर्मको भी क्रोध कह सकते हैं। क.पा.१/१.१३-१४/१२५०/२६२/६ ण च एत्थ दव्वकम्मस्स उवयारेण कसायत्तं; उजुसुदे उवयाराभावादो। कथं पुण तस्स कसायत्तं । उच्चदे दबभावकम्माणि जेण जीवादो अपुधभूदाणि तेण दव्य कसायत्तं जुज्जदे। = यदि कहा जाय कि उदय द्रव्यकर्मका ही होता है अत' ऋजुसूत्रनय उपचारसे द्रव्य कर्म को भी प्रत्ययकषाय मान लेगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योकि ऋजुसूत्रनयमे उपचार नहीं होता। प्रश्न-यदि ऐसा है तो द्रव्यकर्मको कषायपना कैसे प्राप्त हो सकता है ! उत्तर-चूंकि द्रव्यकर्म और भावकर्म दोनों जीवसे अभिन्न हैं इसलिए द्रव्यकर्म में द्रव्यकषायपना बन जाता है।
६. कषायले अजीव द्रव्योंको कषाय कैसे कहा जा
सकता है क.पा.१/१.१३-१४/६२७०/३०६/२दव्यस्स कथं कसायववएसो;ण: कसायवदि रित्तदव्याणुलं भादो। अकसायं पि दव्वमत्थि त्ति चे; होदु णाम; कितु “अप्पियदव्वं ण कसायादो पुधभूदमस्थि' त्ति भणामो। तेण 'कसायरसं दव्वं दव्वाणि वा सिया कसाओ' त्ति सिद्ध । -प्रश्न-द्रव्यको (सिरीष आदिको) कषाय कैसे कहा जा सकता है। उत्तर- क्योंकि कषाय रससे भिन्न द्रव्य नहीं पाया जाता है, इसलिए द्रव्यको कषाय कहने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न-कषाय रससे रहित भी द्रव्य पाया जाता है ऐसी अवस्थामें द्रव्यको कषाय कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-कषायरससे रहित द्रव्य पाया जाओ, इसमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु यहाँ जिस द्रव्यके विचारकी मुख्यता है वह कषायरससे भिन्न नहीं है, ऐसा हमारा कहना है। इसलिए जिसका या जिनका रस कसैला है उस द्रव्यको या उन द्रव्योंको कथंचित् कषाय कहते हैं यह सिद्ध हुआ ।
५. निमित्तभूत भिन्न द्रव्योंको समुत्पत्तिक कषाय कैसे कह सकते हो
क पा.१/१,१३-१४/२५७/२६७/१ जे मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो
नत्तो पुधभूदो संतो कर्थ कोहो । होत एसो दोसो जदि संगहादिणया अवलं बिदा, कितु णइगमणओ जयिवसहाइरिएण जेणावलं विदो तेण एस दोसो। तत्थ कथं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो । प्रश्न-जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोधसे अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है। उत्तर-यदि यहाँपर संग्रह आदि नयोंका अवलंबन लिया होता, तो ऐसा होता, किन्तु यतिवृषभाचार्य ने यहाँपर नैगमनयका अत्रलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न-गमनयका अवलम्बन लेनेपर दोष कैसे नहीं है। उत्तर-क्योंकि नै गमनयकी अपेक्षा कारणमें कार्यका सद्भाव स्वीकार किया गया है (अर्थात् कारणमें कार्य निलीन रहते है ऐसा माना गया है)। क. पा.१/१,१३-१५/६२५६/२६८/६ वावारविरहिओ गोजीवो कोहं ण
उपादेदि त्ति णास कणिज्जं विद्धपायकंटए वि समुप्पज्जमाणकोहुबलंभादो, संगगलग्गले डुअखंडं रोसेण दसतमकडवलंभादो च ।
७. प्रत्यय व समुत्पत्तिक कषायमें अन्तर क.पा.१/१,१३-१४/१२४६/२८६/६ एसो पच्चयकसाओ समुप्पत्तियकसायादो
अभिण्णो त्ति पुध ण वत्तव्यो। ण; जीवादो अभिण्णो होगुण जो कसाए समुप्पादेदि सो पञ्चओ णाम भिण्णो होदूण जो समुप्पादेदि सो समुप्पत्तिओ त्ति दोण्हं भेद्वलंभादो। प्रश्न-यह प्रत्ययकषाय समुत्पत्तिककषायसे अभिन्न है अर्थात ये दोनो कषाय एक हैं (क्योंकि दोनों ही कषायके निमित्तभूत अन्य पदार्थोको उपचारसे कषाय कहते है) इसलिए इसका (प्रत्यय कषायका) पृथक् कथन नहीं करना चाहिए । उत्तर--नहीं, क्योंकि, जो जीवसे अभिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह प्रत्यय कषाय है और जो जीवसे भिन्न होकर कषायको उत्पन्न करता है वह समुत्पत्तिक कषाय है। अर्थात क्रोधादि कर्म प्रत्यय कषाय है और उनके (बाह्य) सहकारी कारण ( मनुष्य ढेला आदि ) समुत्पत्तिककषाय हैं इस प्रकार इन दोनों में भेद पाया जाता है, इसलिए समुत्पत्तिक कषायका प्रत्ययकषायसे भिन्न कथन किया है।
८. आदेशकषाय व स्थापनाकषायमें अन्तर क.पा.१/१,१३-१४/६२६४/३०१/६ आदेसकसाय-ढवणकसायाणं को भेओ।
अत्थि भेओ, सम्भावट्ठवणा कषायपरूवणा कसायबुद्धी च आदेसकसाओ, कसायविसयसम्भावासभाषट्ठवणा ठवणकसाओ, तम्हाण पुणरुत्तदोसो त्ति । प्रश्न--(यदि चित्र में लिखित या काष्ठव दिमें
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