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कषाय
१. कषाय के भेद व लक्षण
२. कषायके भेद प्रभेद
कषाय
कषाय
नोकषाय
क्रोध मान माया लोभ
कषाय समुद्घात | कषाय समुद्घातका लक्षण । यह शरीरसे तिगुने विस्तारवाला होता है।
-दे० ऊपर लक्षण यह संख्यात समय स्थितिवाला है। -दे० समुद्घात इसका गमन व फैलाव सर्व दिशाओं में होता है।
-दे० समुद्धात यह बद्धायुष्क व अवद्धायुष्क दोनोंको होता है।
-दे० मरण//७ कषाय व मारणान्तिक समुद्घातमें अन्तर ।
-दे० मरण/५ कषाय समुद्घातका स्वामित्व । -दे० क्षेत्र/३
हास्य रति अरति शोक भय
अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन (क्रोधादि चारोंमें से प्रत्येककी ये अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार अवस्थाएँ हैं।
१. कषायके भेद व लक्षण
१. कषाय सामान्यका लक्षण प.सं./प्रा./१/१०१ मुहदुक्ख बहुसस्सं कम्मक्रिवत्तं कसेइ जीवस्स । संसारगदी मेरं तेण कसाओ त्ति णं विति ।१०६ =जो क्रोधादिक जीवके सुख-दुःखरूप बहुत प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूप खेतको कर्षण करते हैं अर्थात् जोतते हैं, और जिनके लिए संसारकी चारों गतियाँ मर्यादा या मेंढ रूप हैं, इस लिए उन्हें कषाय कहते हैं । (ध. १/१,१,४/१४१/५) (ध. ६/१,६-१,२३/४१/३) (ध, ७२,१.३/ ७/१) (चा. सा./८/१)।
प्रमाण:१. कषाय व नोकषाय-(क. पा. १/१,१३-१४/६२८७/३२२/१) २. कषायके क्रोधादि ४ भेद-(ष. खं. १/१,१/सु. ११९/३४८) (वा, अ./४६) (रा. वा./8/9/११/६०४/७) (ध. ६/१,६-२,२३/४१/३) (द्र. सं./टी/३०/८१/७)। ३. नोकषायके नौ भेद-(त सू./८/8) (स.सि./८/४/३८५/१२) (रा. वा./८/६/४/५७४/१६) (पं.ध/उ./१०७७)। ४. क्रोधादि के अनन्तानुबन्धी आदि १६ भेद-(स.सि./८/६/३८६/ ४ ) (स. सि./८/२/३७४/८) (रा. वा. ८/६/५/५७४/२७) (न.च. वृ./३०८) ५. कषायके कुल २५ भेद-(स. सि./८/९/३७५/११) (रा. वा.//९/ २६/५६४/२६) (ध.८/३,६/२१/४) (क. पा./१/१.१३-१४/६२८७/३२२/ १) (द्र. सं./टी/१३/३८/१) (द्र. सं./टी./३०/६/७)।
स. सि./६/४/३२०/8 कषाय इव कषायाः। क. उपमार्थः । यथा कषायो नयग्रोधादिः श्लेषहेतुस्तथा क्रोधादिरप्यात्मनः कर्मश्लेषहेतुत्वात कषाय इव कषाय इत्युच्यते । कषाय अर्थात् 'क्रोधादि' कषायके समान होनेसे कषाय कहलाते हैं। उपमारूप अर्थ क्या है। जिस प्रकार नै यग्रोध आदि कषाय श्लेषका कारण है उसी प्रकार आत्माका क्रोधादिरूप कषाय भी कर्मों के श्लेषका कारण है। इसलिए कषायके समान यह कषाय है ऐसा कहते हैं।
३. निक्षेपकी अपेक्षा कषायके भेद (क. पा.१/१,१३-१४/६२३५-२७६/२८३-२६३) ।
कषाय पृ.२८३
नाम स्थापन द्रव्य प्रत्यय समुत्पत्तिक आदेश रस भाव
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___|३०२-३०३
रा. वा./२/4/२/१०८/२८ कषायवेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्यं क्रोधादिरूपमुत्पद्यमानं 'कषत्यात्मानं हिनस्ति' इति कषाय इत्युच्यते। कषायजेदनीय ( कर्म ) के उदयसे होनेवाली क्रोधादिरूप कलुषता काय कहलाती है; क्योंकि यह आत्माके स्वाभाविक रूपको कष देती है अर्थात् उसकी हिंसा करती है। (यो. सा. अ./8/४०) (पं.ध./3/१९३५)। रा. वा./६/४/२/०८/८ क्रोधादिपरिणामः कषति हिनस्त्यात्मानं कुगति-
प्रापणादिति कषायः। -क्रोधादि परिणाम आरमाको गतिमें ले जानेके कारण करते है। आरमाके स्वरूपकी हिंसा करते हैं, अतः ये कषाय है। ऊपर भी रा. वा./२/६/२/१०८) (भ. आ./ वि./२७/ १०७/१६) (मो.क/जी. प्रा./३३/२६/१)।
बाह्य अभ्यन्तर चित्र काष्ठ
कर्म कर्म तद्वयतिरिक्त नोआगम द्रव्य __ २८५
। सर्ज सिरीष इत्यादि | । । । । । । । । एक अनेक एक अनेक एकजीव एक जीव अनेक अनेक जीव जीव जीव अजीव अजीव एक अजीव अनेक जीव एक अनेक
अजीव अजीव अजीव
क्रोधादि पति हिना
ये कारण केवते
४. कषाय मागणाके भेद
रा. बा./8/9/११/६०४/६ चारित्रपरिणामकषणात कषायः । - चारित्र परिणामको कषनेके कारण या घातनेके कारण कषाय है। (पा.सा./८८६)
प. बं. १/१,१/सू. १११/३४८ “कसायाणुवादेण अत्थि क्रोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई चेदि।"= कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और कषायरहित जीव होते है।
जैनेन्द्र सिदान्त कोश
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