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काल
४. उत्सर्पिणी आदि काल निर्देश
सु और दुर् उपसर्ग क्रमसे अच्छे और बुरे अर्थ में आते हैं। सु और दुर्, उपसर्गोको पृथक् पृथक समाके साथ जोड देने तथा व्याकरणके नियमानुसार स को ष कर देनेसे सुषमा और दुःषमा शब्दोंकी सिद्धि होती है। जिनके अर्थ क्रमसे अच्छा काल और बुरा काल होता है, इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके छहों भेद सार्थक नामवाले हैं ॥१॥
५. अवसर्पिणी कालके षट् भेदोंका स्वरूप ति.प./४/३२०-३१४ "नोट-मूल न देकर केवल शब्दार्थ दिया जाता है। १. सुषमासुषमा-(भूमि) सुषमासुषमा कालमें भूमि रज, धूम, अग्नि और हिमसे रहित, तथा कण्टक, अभ्रशिला (बर्फ) आदि एवं बिच्छू आदिक कोडोंके उपसर्गोंसे रहित होती है।३२०। इस कालमें निर्मल दर्पणके सदृश और निन्दित द्रव्योंसे रहित दिव्य बालू, तन, मन और नयनोको सुग्वदायक होती है ।३२१। कोमल घास व फलोसे लदे वृक्ष ।३२२-३२३। कमलोंसे परिपूर्ण वापिकाएँ ।३२४। सुन्दर भवन ।३२५॥ कल्पवृक्षोसे परिपूर्ण पर्वत ।३२८। रत्नोसे भरी पृथ्वी ।३२६। तथा सुन्दर नदियाँ होती हैं ।३३०। स्वामी भृत्य भाव व युद्धादिकका अभाव होता है। तथा विकलेन्द्रिय जीवोंका अभाव होता है।३३१३३२। दिन रातका भेद, शोत व गर्मीको वेदनाका अभाव होता है। परस्त्री व परधन हरण नही होता।३३३। यहाँ मनुष्य युगल-युगल उत्पन्न होते हैं ।३३४। मनुष्य-प्रकृति-अनुपम लावण्यने परिपूर्ण. सुख सागरमें मग्न, मार्दव एवं आर्जवसे सहित मन्दकषायी, सुशीलता पूर्ण भोग-भूमिमें मनुष्य होते हैं। नर व नारीसे अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता ।।३३७-३४०।-वहाँ गाँव व नगरादिक सब नहीं होते केवल वे सब कल्पवृक्ष होते हैं ।३४१। मांसाहारके त्यागी, उदम्बर फलोके त्यागी, सत्यवादी, वेश्या व परस्त्रीत्यागी, गुणियोंके गुणोंमें अनुरक्त, जिनपूजन करते है। उपवासादि संयमके धारक, परिग्रह रहित यतियोंको आहारदान देने में तत्पर रहते हैं ।३६५-३६८। मनुष्य-भोगभूमिजोंके युगल कदलीघात मरणसे रहित, विक्रियासे बहुतसे शरीरोंको बनाकर अनेक प्रकारके भोगोंको भोगते हैं ।३५८। मकुट आदि आभूषण उनके स्वभावसे ही होते हैं।३६०-३६४ा जन्ममृत्यु-भोगभूमिमें मनुष्य और तिर्यचोंको नौ मास आयु शेष रहने पर गर्भ रहता है और मृत्यु समय आनेपर युगल बालक बालिका जन्म लेते हैं ।३७५ नवमास पूर्ण होने पर गर्भसे युगल निकलते हैं, तत्काल ही तब माता पिता मरणको प्राप्त होते हैं ।३७६। पुरुष छींकसे और स्त्री जंभाई आनेसे मृत्युको प्राप्त होते हैं। उन दोनोंके शरीर शरत्कालीन मेघके समान आमूल विनष्ट हो जाते हैं ।३७७ पालन-- उत्पन्न हुए बालकों के शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसनेमें ३ दिन व्यतीत होते हैं ।३७४। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिरगमन. स्थिरगमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शनके ग्रहणकी योग्यता, इनमें क्रमशः प्रत्येक अवस्थामें उन बालकोकेतीमतीनदिन व्यतीत होते हैं ।३८०। इनका शरीरमें मूत्र व विष्ठाका आस्रव नहीं होता ।३८१॥ विद्याएँ-वे अक्षर, चित्र, गणित. गन्धर्व और शिल्प आदि ६४ कलाओं में स्वभाव से ही अतिशय निपुण होते हैं ॥३८॥ जातिभोग भूमिमें गाय, सिंह, हाथी, मगर, शूकर, सार ग, रोझ. भैंस, वृक, बन्दर, गवय, तेंदुआ, व्याघ, शृगाल, रीछ, भालू, मुर्गा, कोयल. तोता, कबूतर. राजहंस, कोरंड, काक, क्रौंच, और कंजक तथा और भी तिर्यच होते है ।३८६-३६०। योग व आहार-ये'युगल पारस्परिक प्रेममें आसक्त रहते हैं ।३८६। मनुष्योंवत् तिर्यच भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार मांसाहारके बिना कल्पवृक्षोंका भोग करते हैं ।३६१-३६३। चौथे दिन बेरके बराबर आहार करते है ।३३४। कालस्थिति-चार कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सुषमासुषमा कालमें पहिलेसे शरीरकी ऊँचाई. आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीनहीन होते जाते हैं ।३६४ा (ह. पु./७/६४-१०५) (म. पु./६/६३-६१)
(ज. प./२/११२-१६४) (त्रि सा/७८४-७६१) २--ति प./४/३६५-४०२॥ २ सुषमा-इस प्रकार उत्सेधादिकके क्षीण होनेपर सुषमा नामका द्वितीय काल प्रविष्ट होता है ।३६५1 इसका प्रमाण तीन कोंडाकोडी सागरोपम है। उत्तम भोगभूमिवत् मनुष्य व तिर्यंच होते हैं। शरीर-शरीर समचतुरस्र संस्थान से युक्त होता है ॥३१८॥आहार '--- तीसरे दिन अक्ष (बहेडा) फलके बराबर अमृतमय आहारको ग्रहण करते हैं ।३६८। जन्म व वृद्धि-उस कालमें उत्पन्न हुए बालकोंके शय्यापर सोते हुए अपने अंगूठेके चूसनेमें पाँच दिन व्यतीत होते हैं ।३६६। पश्चात् उपवेशन. अस्थिरगमन, स्थिरगमन, कलागुणप्राप्ति. तारुण्य, और सम्यक्त्व ग्रहणकी योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्थामें उन बालकोंके पाँच-पाँच दिन जाते है।४०६। शेष वर्णन सुषमासुषमावद जानना। ३. ति. प./४/४०३-५१० सुषमादुषमा-उत्सेधादिके क्षीण होनेपर सुषमादुषमा काल प्रवेश करता है, उसका प्रमाण दो कोड़ाकोडी सागरोपम है।४०३. शरीर--इस काल में शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष प्रमाण तथा एक पल्यको आयु होती है।४०४। आहारएक दिनके अन्तरालसे ऑबलेके बराबर अमृतमय आहारको ग्रह्ण करते हैं ।४०६। जन्म व वृद्धि-उस काल में बालकोके शय्यापर सोते हुए सात दिन व्यतीत होते है। इसके पश्चात उपवेशनादि क्रियाओंमें क्रमशः सात सात दिन जाते हैं ।४०८। कुलकर आदि पुरुष-कुछ कम पल्यके आठवे भाग प्रमाण तृतीय कालके शेष रहने पर • प्रथम कुलकर उत्पन्न होता है ॥४२॥ फिर क्रमश चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं ।४२२-४६४। यहाँसे आगे सम्पूर्ण लोक प्रसिद्ध त्रेशठ शलाका पुरुष उत्पन्न होते है ।५१०। शेष वर्णन जो सुषमा ( बा सुषममुषमा) कालमें कह आये हैं, वही यहाँ भी कहना चाहिए ।४०६॥ ४. ति. प./४/१२७६-१२७७ दुषमा.सुषमा-ऋषभनाथ तीर्थक्रके निर्वाण होनेके पश्चात तीन वर्ष और साढे आठ मासके व्यतीत होनेपर दुषमसुषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट हुआ ।१२७६। इस कालमें शरीरकी ऊँचाई पॉच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी ।१२८७। इसमें ६३ शलाका पुरुष व कामदेव होते है। इनका विशेष वर्णन-दे० 'शलाका पुरुष' । १. ति प/४/१४७४-१५३५ दुषमा-वीर भगवानका निर्वाण होनेके पश्चात तीन वर्ष, आठ मास, और एक पक्षके व्यतीत हो जानेपर दुषमाकाल प्रवेश करता है ।१४७४। शरीर-इस काल में उत्कृष्ट आयु कुल १२० वर्ष और शरीरकी ऊँचाई सात हाथ होती है ।१४७५॥ श्रुत विच्छेद-इस कालमें श्रुततीर्थ जो धर्म प्रवर्तनका कारण है वह २०३१७ वर्षों मे काल दोषसे हीन होता होता व्युच्छेदको प्राप्त हो जायेगा ।१४६३। इतने मात्र समय तक ही चातुर्वर्ण्य संघ रहेगा। इसके पश्चात नही। ।१४६४। मुनिदीक्षा-मुकुटधरो में अन्तिम चन्द्र गुप्तने दीक्षा धारण की । इसके पश्चात मुकुटधारी प्रवज्याको धारण नहीं करते ।१४८१ राजवंश-इस काल में राजवंश क्रमश' न्यायसे गिरते-गिरते अन्यायी हो जाते है। अत आचारोगधरों के २७५ वर्ष पश्चात् एक कल की राजा हुआ ११४६६-१५१०। जो कि मुनियोके आहारपर भी शुल्क माँगता है। तब मुनि अन्तराय जान निराहार लौट जाते हैं ।१५१२। उस समय उनमे किसी एकको अवधिज्ञान हो जाता है। इसके पश्चात कोई असरदेव उपसर्गको जानकर धर्मद्रोही कल्कीको मार डालता है ११५१३। इसके १०० वर्ष पश्चाद एक उपककी होता है और प्रत्येक १००० वर्ष पश्चात एक काकी होता है ।१५१६। प्रत्येक कल्कीके समय मुनिको अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। और चातुर्वर्ण्य भी घटता जाता है ।१५१७। संघबिच्छेद-चाण्डालादि ऐसे बहुत मनुष्य दिखते है। ।१५१८१५१६। इस प्रकार से इक्कीसवॉ अन्तिम कल्की होता है ।१५२०॥ उसके समय में वीरांगज नामक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा अग्निदत्त और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होते है। ।१५२१। उस राजाके द्वारा शुल्क माँगने पर वह मुनि उन श्रावक श्राविकाओंको दुषमा कालका अन्त आनेका सन्देशा देता है। उस समय मुनिकी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-१२
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