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दर्शन
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२. ज्ञान व दर्शनमें अन्तर
आम आता है । उत्तर लक्षण चला जालोक भी देखने
दर्शनयोरविशेष स्यादिति चेन्न, अन्तर्ष हिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् । = प्रश्न-'जिसके द्वारा देखा जाय अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते है', दर्शनका इस प्रकार लक्षण करनेसे, चक्षु इन्द्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होनेसे, उनमें दर्शनका लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है। उत्तर नहीं आता, क्योकि इन्द्रिय और आलोक आरमाके धर्म नहीं हैं। यहाँ चक्षुसे द्रव्य चक्षुका ही ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-जिसके द्वारा देखा जाय, जाना जाय उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनका इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शनमें कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात दोनों एक हो जाते हैं ! उत्तर-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाशको दर्शन और बहिर्मुखचित्काशको ज्ञान मामा है, इसलिए इन दोनोंके एक होनेमें विरोध आता है। २. अन्तर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाशका तात्पर्य-अनाकार व साकार ग्रहण थ.१/१,१,४/१४५/६ स्वतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगतिः प्रकाश इत्यन्तबहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । -प्रश्न-अपनेसे 'भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञानको प्रकाश कहते है, इसलिए अन्तर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाशके होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूपको और पर पदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकारकी व्याख्याके सिद्ध हो जानेसे ज्ञान और दर्शनमें एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है' इत्यादि विशेष रूपसे प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनोंमें भेद है। क.पा १/१-१५/६३०६/३३७/२ अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुव
गमादो। तं कथं णव्वदे । अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो। -अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है। प्रश्न-दर्शन उपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता। दे० आकार/२/३('मैं इस पदार्थको जानता हूँ' इस प्रकारका पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जानेसे अन्तरंग व निराकार उपयोग विषया
कार नहीं होता) द्र.सं./टी/१४/१८६/७ यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते,
पश्चात पटपरिज्ञानार्थ चित्ते जाते सति घटविकल्पाद व्यावृत्त्य यत स्वरूपे प्रयत्नमवलोकन परिच्छेदनं करोति तदर्शनमिति। तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यदबहिविषयरूपेण पदार्थग्रहण विकल्पं करोति तद् ज्ञान भण्यते। जैसे कोई पुरुष पहिले घटके विषयका विकल्प (मैं इस घटको जानता हूँ अथवा यह घट लाल है, इत्यादि ) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुषका चित्त जब पटके जाननेके लिए होता है, तब वह पुरुष घटके विकल्पसे हटकर जो स्वरूपमें प्रयत्न अर्थाव अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनन्तर 'यह पट है' इस प्रकारसे निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूपसे पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्पको करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। ३. केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान-ऐसा नहीं है। ध.१/१,१,४/१४६/३ तस्त्व न्तर्बाह्यसामान्यग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलम्भात् ।
सोऽप्यस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, 'हंदि दुवे गत्थि उवजोगा' इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाण सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थ क्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात्। तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । -प्रश्न-यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थोंको नहीं जानता तो) अन्तरंग सामान्य और अहिरंग सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है, और अन्तर्बाह्य विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तुका क्रमके बिना ही ग्रहण होता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रमके बिना भी सामान्य व विशेषका ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है। उत्तर-१. ऐसा नहीं है, क्योंकि, 'छद्मस्थोंके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते है। इस कथनके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है। (इस सम्बन्धी विशेष देखो आगे 'दर्शन/३), (ध.१३/५,५,१६/२०८/३); (घ.६/१,६-१, १६/३३/८) २. दूसरी बात यह है कि सामान्यको छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पडता है। (क पा./१/8३२२/३५१/३) (ध.१/१,१,४/१४८/२), (ध.६/१,६-१,१६/३३/६), (दे० सामान्य) ३. उस ( अवस्तु ) का ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेषका ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेषमें कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूँ ऐसा भेद ) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेषको ग्रहण करनेवाले ज्ञानमें प्रमाणता सिद्ध नहीं होनेसे केवल सामान्यको ग्रहण करने वाले दर्शनको भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। (ध.६/१,६-१,१६/३३/१०), (द्र.सं./टी./४४/१६०/८) ४. और इस प्रकार दोनों उपयोगोंका ही अभाव प्राप्त होता है। (दे० आगे शीर्षक नं. ४)१. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयके बिना वस्तुका ग्रहण होनेमें विरोध आता है ) (ध.१३/५,५,१६/२०८/४) घ.६/१,६-१,१६/३३/६ बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते;
तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत श्रुतमन'पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् । -६. बाह्य पदार्थको सामान्य रूपसे ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते है। किन्तु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहणके अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होनेसे, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान, इन दोनोंको भी दर्शनके अस्तित्वका प्रसंग आता है। ( तथा इन दोनोके दर्शन माने नहीं गये हैं (दे० आगे दर्शन/४ )
४. ज्ञान व दर्शनको केवल सामान्य या विशेषग्राही माननेसे द्रव्यका जानना ही अशक्य है ध.२,१,५६/१७/१ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलस्थसामण्ण केवलदसणस्स विसओ होज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदं सणाणं दब्वागमाभावप्पसंगादो । कुदो। ण जाणं दव्बपरिच्छेदय, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स बावारादो। ण दसणं पि दबपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि बाबारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वरगहणाभावो, 'कितु ण केवलिम्हि वि दम्बग्गहणमत्थि, सामण्ण विसेसेसु एयंत दुरंतपंचसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्व म्मि, बाबारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अस्थि जेण तेसि विसओ होज । असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो। -अशेष विशेषमात्रको ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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