________________
नित्यालोक
जावेगा। इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना अनित्यसमा जाति है । अनित्य भी स्वयं नित्य है इस प्रकार अनित्यमें भी नित्यत्वका प्रसंग उठाना नित्यसमा जाति है । जैसे- 'शब्द अनित्य है' इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करनेवाले वादीपर प्रतिवादी प्रश्न उठाता है, कि वह शब्द के आधारपर ठहरनेवाला अनित्यधर्म क्या नित्य है अथवा अनित्य । प्रथमपक्षके अनुसार धर्म को तीनोंकालों तक नित्य ठहरनेवाला धर्मी नित्य हो होना चाहिए । द्वितीय विकल्पके अनुसार अनित्यपन धर्मका नाश हो जानेपर शब्दके नित्यपनका सद्भाव हो जानेसे शब्द नित्य सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नित्यत्वका प्रत्यवस्थान उठाना नित्यसमा जाति है।
(श्तो. वा. ४/२/३३ / या/रतो. ४२८-४२८/५१: स्लो. ४३०-४४०/२३६ मैं इसपर चर्चा की गयी है ) । नित्यालोक
रुचक पर्वतस्थ एक कूट - ३० लोक /५/१३ |
नित्योद्योत- १. रुपक पर्वतस्य एक ट० सोक //११,२. विज
यार्थी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० 'विद्याधर निदर्शन
दृष्टान्त ।
निदाघ — तीसरे नरकका पाँचन - ० नरक /५ निदान - १. निदान सामान्यका लक्षण --
स.सि./७/३७/३७२/७ भोगाकाङ्क्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानम् । =भोगाकांक्षासे जिसमें या जिसके कारण चित्त नियमसे दिया जाता है वह निदान है (रा. मा./०/२०/६/२५१/१ ); (द्र.सं./टी./४२/१८४/१) ।
स.सि./७/१८/३६/२ निदान विषयभोगाकाङ्क्षा।
भोगोंकी सालसा निदान शक्य है (रा. मा. १७/१८/२/२४६/२४) (१२/४.२. १/२०४६)।
२. निदानके भेद
भ.आ./मू./१२१५/१२१५ तत्थ विदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्यभोग | १२९४ निरान राज्यके तीन भेद है-प्रशस्त अस्तभोगकृत (अ. ग. श्रा/७/२०)।
६०८
२. प्रशस्तादि निदानोंके लक्षण
भ.आ./मू./१२१६- ९२११ / १२९५ संजमहेदु पुरिसतसतत विरयसंघदणबुद्धी साब अबंधुकुलादीणि जिदाणं होदि हु पसत्थं । १२१६ | माणेण जाइकुलरूवमादि आइरियगणधर जिणन्तं । सोभग्गाणादेयं पत्तो अप्पत्वं तु २१ कुद्धो विअप्पसरथं मरने पफ परमधादीयं जह उग्णसेवा नि मसि । १२१८| देविग मणिभोगो पारिस्सर सिथिनाहतं केसमचार होदि भोगकरं । १२१६ - पौरुष शारीरिकस, मीरामकर्म का क्षयोपशम होनेसे उत्पन्न होनेवाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभनाराचादिकसंहनन, ये सब संयमसाधक सामग्री मेरेको प्राप्त हो ऐसी मनकी एकाग्रता होती है, उसको प्रशस्त निदान कहते हैं । धनिककुलमें, मंधुओं में उत्पन्न होनेका निदान करना प्रशस्त निदान है । १२१६ | अभिमानके वश होकर उत्तम मातृवंश. उत्तम पितृवंशकी अभिलाषा करना, आचार्य पदवी, गणधरपद, तीर्थंकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरपना इनकी प्रार्थना करना सब अप्रशस्त निदान है क्योंकि मानकषायसे दूषित होकर उपर्युक्त अवस्थाको अभि
षा की जाती है। १२१० क्रुद्ध होकर मरणसमय में शत्रुपधादिककी इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है | १२१८ | देव मनुष्यों में प्राप्त होनेवाले भोगोंको अभिलाषा करना भोगकृत निदान है। स्त्रीपना, पनिरूपना श्रेष्ठपद सार्थमाहरना, केशवपद वर्ती
Jain Education International
निद्रा
पना, इनकी भोगोंके लिए अभिलाषा करना यह भोगनिदान है। १२११०.२६/३४-३६) (अ. ग. प्रा./७/२१-२५) । ४. प्रशस्ता प्रशस्त निदानकी इष्टता अनिष्टता भ.आ.// ९२२३-९२२६ कोडी संतो लह वह उच्च रसावर्ण एससी सामाने भोगहे पिदाषेण । १२२३४ पुरिसत्तादि निदा पि मोक्कामा मुणी ण इकाईति पुरितामो भागो भवमओ व संसारी । १२२४ दुस्समवयकम्म वस्त्रयसमाधिमरणं च बोहिलाहो य । एयं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं । १२२५ ॥ पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए । आराधयस्स णियमा तत्थमकदे जिंदा १२२६। जैसे कोई कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोगका नाशक रसायन पाकर उसको जलाता है, वैसे ही निदान करनेवाला मनुष्य सर्व दुरूपी रोग नाशक संयमका भोग निदानसे नाश करता है | १२२३। संयमके कारणभूत पुरुषत्व, संहनन आदिरूप (प्रवास) निदान भी मुनि नहीं करते क्योंकि पुरुषत्वादि पर्याय भी भव ही हैं और भव संसार है | १२२४ | मेरे दुःखोका नाश हो, मेरे कर्मोंका नाश हो, मेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधिकी प्राप्ति हो इन बातोंकी प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि मे मोसके कारण प्रशस्त निदान है) । ९२२३। जिसने रत्नत्रयकी आराधना की है उसको निदान न करनेपर भी अन्य जन्ममें निश्चय से पुरुष आदि व संयम आदि की प्राप्ति होती है। १२२६ (अ. ग.वा./ २३-२५) ।
निद्रा - १. निद्रा व निद्राप्रकृति निर्देश
१. पाँच प्रकारकी निद्राओंके लक्षण
स. सि. / ८ /७/३८१ / ५ मदखेदक्लमविनोदनार्थः स्वापो निद्रा । तस्या उपर्युपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा या क्रियात्मानं प्रचयति सा प्रयता शोकश्रममदादिप्रभवा आसीनस्यापि नेत्रगात्रविक्रियासूचिका । सेव पुनरावर्त माना प्रचलाप्रचला । स्वप्ने यथा वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धि । स्यामतेरनेकार्थत्वात्स्वप्नार्थ दह गृह्यते गृधेर दीष्टि । त्याने स्वप्ने पति दीप्यते यदुदयादात्मा रौद्रं महुकर्म करोति सा स्यानमिद खेद और परिभ्रमन्याको दूर करनेके लिए नीद लेना निद्रा है। उसकी उत्तरोत्तर अर्थात् पुनः पुनः प्रवृत्ति होना निदानिश है जो शोकश्रम और मद आदिके कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणीके भी नेत्र - गात्रकी विक्रियाको सूचक है, ऐसी जो क्रिया आत्माको 'चलायमान करती है, वह प्रचला है। तथा उसीकी पुनः पुनः प्रवृत्ति होना प्रचलाप्रचला है। जिसके निमित्तसे स्वप्न में वीर्यविशेषका आविर्भाव होता है वह
I
नगृद्धि है। यति धातुके अनेक अर्थ है उनमें यहाँ स्वप्न अर्थ लिया गया है और 'वृद्धि' दीध्यते जो स्वप्न में प्रदीप्त होती है। 'स्यानगृद्धि' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - स्त्याने स्वप्ने गृद्धघति धातुका दीप्ति अर्थ लिया गया है। अर्थात् जिसके उदयसे आत्मा रौद्र बहुकर्म करता है वह स्त्यानगृद्धि है । ( रा. वा. / ८ /७/२-६/५७२/ ६ ); ( गो . क./जी. प्र. / ३३ / २७/१० ) ।
२. पाँचों निद्राओंके चिह्न
१. निद्राके चिह्न
ध. ६/१.६-१.१६/३२/३.६ णिद्दाए तिब्बोदरण अप्पकालं सुवइ, उठातो हुद, अप्पसण वि चे ...मिरे पो सहु अप्पासाहारेदि मा मया कंपदि यणो सुखदिनिद्रा प्रकृतिके तोत्र उदयसे जीव अल्पकाल सोता है, उठाये जानेपर जल्दी
-
"
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org