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परिशिष्ट
२. आचार्य विचार
प्रन्थों का इस ग्रन्थ में पूरी तरह अनुसरण किया है, जैसे द्रव्य के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले सद्रव्य लक्षणम्, उत्पाद व्ययधोव्ययुक्तं सन, गुण पर्ययवद्रव्यम् ये तीन सूत्र पञ्चास्तिकाय की दशमी गाथा का पूरा अन सरण करते है। (ती०/२/१५१. १५६१६०) (जे०/२ १५)। इसलिए श्वेताम्बर मान्य तरवार्थाधिगम से यह भिन्न है। यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर रचित भाष्य है (तो०/२/१५०)। दूसरी बात यह भी कि दिगम्बर आम्नायमें इसका जितना प्रचार है उतना श्वेताम्बर आम्नायमें नहीं है। वहाँ इमे आगम साहित्य से कुछ छोटा समझा जाता है । (ज०/ २/२४७) दिगम्बर आम्नाय में इसकी महत्ता इस बात से भी सिख है कि जितने भाष्य या टीकायें इस ग्रन्थ पर लिखे गए उतने अन्य किसी अन्य पर नहीं हैं। १. आ० समन्त भद्र (वि०श०२-३) कृत गन्धहस्त महाभाष्य: २. आ० पूज्यपाद (ई० श०५) कृत सर्वार्थसिद्धिः ३ योगीन्द्रदेव (ई० श०६) विरचित तत्त्व प्रकाशिका: ४. अकलंक भट्ट (ई०६२०-६८०) विरचित तत्वार्थ राजवातिकालंकार, ५. विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) रचित श्लोकवार्तिक ६. अभयनन्दि (ई. श०१०-११) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति: ७ आ. शिवकोटि (ई००११) कृत रत्नमाला; आ० प्रभाचन्द्र (वि० श०११) कृत तत्वार्थ वृत्ति पदः ६.आ० भास्करानन्दि (वि० श० १२-१३) कृत सुखबोधिनी; १० मुनि बाल चन्द्र (वि० श०१३ का अन्त) कृत तत्वाथ सूत्रवृत्ति (कन्नड);११ योगदेव भट्टारक (वि०१६३६) रचित मुखबोध-वृत्ति; १२. विबुध सेनाचार्य (1) बिरचित तत्त्वार्थ टीका; १३. प्रभाचन्द्र न० ८ (वि. १४८६) कृत तत्वार्थ रत्न प्रभाकर; १४. भट्टारक श्रुतसागर (वि० श० १६) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति। जबकि श्वेताम्बर आम्नाय में केवल ३ टीकायें प्रचलित हैं। १.वाचक उमास्वाति कृत तत्वार्थाधिगम भाष्यः २. सिद्धसेन गणी (वि००। कृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्तिः ३, हरिभद्र सुनुकृत तत्वार्थ भाष्य वृत्ति (वि० श०/--6)।
३ कथा-मर्थ सिद्धि के प्रारम्भ में इस ग्रन्थ को रचना के विषय में एक सक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओ में दोहराया है। तदनुसार इस प्रन्थ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक
आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेताम्बर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने 'दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग' यह स्त्र मनावर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे 'सम्यक' पद जोड़ दिया। यह देख कर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आरम हित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रन्थ रचने को प्रार्थना की, जिस से प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रन्थ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परन्तु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनीअपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम 'सिद्धमय' कहा गया है, जबकि चतुर्दशम में उसे 'द्वैपायन' बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह अन्य किसी आसन्म भव्य के लिये लिखा गया था। (ती०/२/१५३) (जै०/२/२४१)।
४. समय-ग्रन्ध में निबद्ध 'सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालान्तरभावाम्पबहूस्वश्च ।१.८।' सूत्र १० ख०/१/१७ का रूपान्तरण मात्र है। दूसरी ओर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आ० पूज्यपाद देवनन्दि ने इस पर सर्वार्थ सिद्धि नामक टोका लिखी है । इसलिये इस ग्रन्थ का रचनाकाल षटखण्डा
गम (वि० श०५) और कुन्दकुन्द (वि० श०२-३) के पश्चात् तथा पूज्यपाद (वि० श०२) से पूर्व कहीं होना चाहिये। ५० कैलाश पन्द
जी वि० श०३ का अन्त स्वीकार करते हैं । (जै०२/२६६-२७०)। धवला जयघवला-कषाय पाहड़ तथा षटखण्डागमके आद्य पांच
खण्डों पर ई. शताब्दी ३ में आ. बप्पदेव ने जो व्याख्या लिखी थी (दे०बप्पदेव); वारग्राम (बड़ौदा) के जिनालय में प्राप्त उस व्यारण्यासे प्रेरित होकर आ. बीरसेन स्वामीने इन नामों वाली अति विस्तीर्ण टीकायें लिखी (वे. वीरसेन) । इनमें से ७२००० श्लोक प्रमाण धवसा टीका षटु खण्डागमके आद्य पाँच खण्डोंपर है, और १०००० श्लोक प्रमाण जयधवला टीका कषाय पाहूड पर है। इसमें से २०,००० श्लोक प्रमाण आद्य एक तिहाई भाग आ० वीरसेन स्वामीका है और ४०,००० श्लोक प्रमाण अपर दो तिहाई भाग उनके शिष्य जिनसेन द्वि.का है, जो कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात ग्रन्ध को पूरा करने के लिये उन्होंने रचा था (इन्द्र नन्दिश्रुतावतार) ॥९७७-१८४। ये दोनों प्रन्थ प्राकृत तथा संस्कृत दोनों से मिश्रित भाषामें लिखे गए है। दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग, संयम, क्षयोपशम आदि के जो स्वानभवगम्य विशद् लक्षण इस ग्रन्थमें प्राप्त होते हैं, और कषायपाहड तथा षट् खण्डागमकी सैद्धान्तिक मान्यताओं में प्राप्स पारस्परिक विरोधका जो सुयुक्ति युक्त तथा समतापूर्ण समन्वय इन ग्रन्थोंमें प्रस्तुत किया गया है वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक विषयमें स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देना तथा दुर्गम विषयको भी सुगम बना देना, इत्यादि कुछ ऐसी विशिष्टतायें है जिन के कारण टीका रूप होते हुए भी ये आज स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें प्रसिद्धहो गए हैं। अपनी अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार जयधवला की पूर्ति आ. जिनसेन द्वारा राजा अमोघवर्ष के शासन काल (शक. ७५६, ई०८३७) में हुई। प्रशस्ति के अर्थ में कुछ भ्रान्ति रह जाने के कारण धवला की पूर्ति के कालके विषयमें कुछ मतभेद है । कुछ विद्वान इसे राजा जगतुंग के शासन काल(शक ७३८, ई.८१६)में पूर्ण हुई मानते हैं। और कोई वि. ८३८(ई. ७८१) में मानते है । जयधवला की पूर्ति क्योंकि उनकी मृत्यु के पश्चात हुई है इसलिये धवला की पूर्तिका यह काल (ई. ७८१) हो उचित प्रतीत होता है। दूसरी वात यह भी है कि पुन्नाट संघीय आ. जिनमेन ने क्योंकि अपने हरिवंश पुराणकी प्रशस्ति (शक. ७०३, ई. ७८१) में वीरसेन के शिष्य पंचस्तूपीय जिनसेन का नाम स्मरण किया है इसलिए इस विषयमें दिये गए दोनों ही मत समन्वित हो जाते हैं (ब./१/२५५) (तो./२/३२४) ।
परिशिष्ट २-(आचार्य विचार) गंधहस्तीवेताम्बर आम्नायमें यह नाम आ. सिद्धमेन की उपाधि के रूप में प्रसिद्ध है। परन्तु क्योंकि सिद्धमेन नाम के दो आचार्य हुए है, एक सिद्धसेन दिवाकर और दूसरे सिबसेन गणी, इसलिए यह कहना कठिन है कि यह इनमें से किसको उपाधि है। उपाध्याय यशोविजय जी (वि. श. १७) ने इसे सिद्धसेन दिवाकर की उपाधि माना है।३१७ परन्तु प०सुखलाल जी इसे सिद्धसेन गणी की उपाधि मानते है।३१८ा आ शालांक (वि. श६-१०) ने आचारसंग सत्र की अपनी वृत्ति में गन्धहस्तीकृत जिस विवरण का उल्लेख किया है. वह इन्हीं की कृति थी ऐसा अनुमान होता है ।३१६६ (जै./१पृष्ठ) गगीष-सिद्धर्षि (वि.६६२) के ज्येष्ठ गुरु भ्राता तथा शिक्षा गुरु (दे. सिद्ध ऋषि) कृति-कर्म विपाक । इसकी परमानन्द कृति टीका राजा कुमारपाल (वि. १९६४-१२३०) के शासनकाल में रची गई ॥४३॥ अतः इनका काल वि. श. का अन्त अथवा १० का प्रारम्भ माना जा सकता है ।४३२॥ (जै./९/पृष्ठ)।
उपाधिसलिए
ने इसे
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