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निर्माणरज
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निर्वर्गण
दोण सजादि अणुरूवे अप्पप्पणो छाणे जं णियामयं त संठाणणिमिणमिदि। पर वह दो प्रकारका है--प्रमाण निर्माण और संस्थाननिर्माण । जिम कर्म के उदयसे जीवोके दोनो ही प्रकारके निर्माण होते है, उस कर्मको निर्माण' यह सज्ञा है। यह प्रमाणनिर्माण नामकर्म न हो, तो जंघा, बाहू, शिर और नासिका आदिका विस्तार और आयाम लोकके अन्ततक फैलनेवाले हो जावेगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योकि ऐसा पाया नही जाता है। इसलिए कालको और जातिको आश्रय करके जीवो के प्रमाणको निर्माण करनेवाला प्रमाण-निर्माण नामकर्म है। यदि संस्थान निर्माण नामकर्म न हो तो, अंग, उपंग और प्रत्यग संकर और व्यतिकर स्वरूप हो जावेगे अर्थात नाकके स्थानपर ही ऑख आदि भी बन जायेगी अथवा नाकके स्थान पर ऑख और मस्तकपर मुंह लग जायेगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्यो कि, ऐसा पाया नहीं जाता है। इसलिए कान, ऑख, नाक आदि अंगोका अपनी जातिके अनुरूप अपने स्थानपर रचनेवाला जो नियामक कर्म है, वह सस्थाननिर्माण नामकर्म कहलाता है। * निर्माण प्रकृतिकी बन्ध उदय सत्व प्ररूपणाएँ
दे० वह वह नाम निर्माणरज-एक लौकान्तिक देव-दे० लौकान्तिका
निर्माल्य-पूजाका अवशेष द्रव्य-दे० पूजा/४। निमंढ--नि. सा /ता. ७./१३ सहजनिश्चयनयनलेन सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमबीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनि . जपरमतत्त्वपरिच्छेदनसमर्थत्वा निर्मूढ , अथवा साद्यनिधनामूर्ता. तीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भुतव्यवहारनयबलेन त्रिकाल त्रिलोकवति - स्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायकसमयपरिच्छित्तिसमर्थ - सकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मूढश्च । -सहज निश्चयनयसे सहजज्ञान-दर्शन-चारित्र और परमवीतराग सुरव आदि अनेक धर्मों के आधारभूत निज परमतत्त्व को जानने में समर्थ होनेसे आत्मा निर्मू ढ है। अथवा सादि अनन्त अमूर्त अतोन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहारनयसे तीन काल और तीन लोकके स्थावर जंगमस्वरूप समस्त द्रव्यगुण-पर्यायको एक समयमें जानने में समर्थ सकल विमल केवलज्ञानरूपसे अवस्थित होनेसे आत्मा निर्मूढ है। निर्यापक--१. सल्लेखनाकी अपेक्षा निर्यापकका स्वरूप भ आ./मू./गा. संविगतज्जभी रुस्स पाक्ष्मूलम्मि तस्सविहरतो। जिण
वयणसम्बसारस्स होदि आराधओ तादी १४००। पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गहुँ । णिज्जावगण्णेस दि समाधिकामो अणुण्णादं ।४०१। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्यो णिज्जवओ होदि आयरिओ ।४२७१ जह पक्रनुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिद समुद्दम्मि। णिज्जवओ धारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो ।५०३। तह सजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मी हिं सुभिदमाइदं । णिज्जवओ धारेदि हु मुहरिहि हिदोवदेसेहि ५०४। इय णित्रओं खवयस्स होइ णिज्जाबओ सदाच रिओ ।५०६। इय अट्ठगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि ।५०७। एदारिसमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए। होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।६२६। जो जारिसओ कालो भरदेरवदेसु होइ बासेसु । ते तारिसया तदिया वोद्दालीसं पि णिज्जवया ।६७१। -साधु संघमे उत्कृष्ट निर्यापकाचार्यका स्वरूप जो संसारसे भय युक्त है, जो पापकर्मभीक है, और जिसको जिनागमका सर्वस्वरूप मालूम है, ऐसे आचार्य के चरणमूल में वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधनाकी सिद्धि करता है ।४००। जिसको समाधिमरणकी इच्छा है ऐसा मुनि
५००,६००,७०० योजन अथवा उससे भी अधिक योजन तक बिहार कर शास्त्रोक्त निर्यापकका शोध करे।४०१। आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य सर्व दोषोका त्याग करते है। इसलिए गुणोमे प्रवृत्त होनेवाले दोषोसे राहत ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानने चाहिए ।४२७। (विशेष दे० आचार्य१/२ मे अाचार्य के ३६ गुण) जिस प्रकार नौका चलानेमे अभ्यस्त बुद्धिमान नाविक, तर गो द्वारा अत्यन्त नुभित समुद्रमे रलो से भरी हुई नौकाको डूबनेसे रक्षा करता है।५०३। उसो प्रकार संयम गुणोंसे पूर्ण यह क्षपकनौका प्यास आदिरूप तर गोसे क्षुब्ध होकर तिरछी हो रही है। ऐसे समय में निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेशके द्वारा उसको धारण करते है, अर्थात उसका संरक्षण करते है 1५०४। इस प्रकारसे क्षेपकका मन
आहादित करनेवाले आचार्य निर्यापक हो सकते है। अर्थात निर्यापक त्व गुणधारक आचार्य क्षपकका समाधिमरण साध सकते है १५०६। इस प्रकार आचारवत्त्व आदि आठ गुणोसे पूर्ण आचार्यका (दे० आचार्य१२)आश्रय करनेसे क्षपकको चार प्रकारकी बाराधना प्राप्त होती है ।।०७। अक्प गुणधारी भी निर्यापक सम्भव है-उपरोक्त सर्व आचारवत्त्व आदि गुणोंके धारक यदि आचार्य या उपाध्याय प्राप्त न हो तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि वा बालाचार्य यलसे व्रतोमे प्रवृत्ति करते हुए क्षपक का समाधिमरण साधनेके लिए निर्यापकाचार्य हो सकते है।६२६। जैसे गुण ऊपर वर्णन कर आये। ऐसे ही मुनि निर्यापक होते है, ऐसा नही समझना चाहिए। परन्तु भरत ओर ऐरावत क्षेत्रमे विचित्र काल का परावर्तन हुआ करता है इसलिए कालानुसार प्राणियोके गुणोमें भी जधन्य मध्यमता । उत्कृष्टता आती है। जिस समय जैसे शोभन गुणोका सम्भव रहता है, उस समय वैसे गुणधारक मुनि निर्यापक व परिचारक समझकर ग्रहण करना चाहिए ।६७१। * सल्लेखनाम निर्यापकका स्थान -(दे० सल्लेखना/५) ।
२. छेदोपस्थापनाको अपेक्षा निर्यापक निर्देश प्र. सा.त. प्र./२१० यता लिड्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य किलाचार्य प्रवज्यादायक. स गुरु., यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापक' स निर्यापक', योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधान विधानप्रतिपादकरवेन छेदे सत्युपस्थापक सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति । - जो आचार्य लिगग्रहणके समय निर्विकल्प सामायिकसंयमके प्रतिपादक होनेसे प्रवज्यादायक हैं वे गुरु है, और तत्पश्चात् तत्काल हो जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापना संयमके प्रतिपादक होनेसे छेदके प्रति उपस्थापक (भेदमें स्थापन करनेवाले) है वे निर्यापक हैं। उसी प्रकार जो छिन्न संयमके प्रतिसन्धानकी विधिके प्रतिपादक होनेसे छेद होनेपर उपस्थापक ( पुन स्थापित करनेवाले ) है, वे भी निर्यापक है । इसलिए छेदोपस्थापकपर भी होते है। (यो, सा./अ./
1) निलांछन कर्म- दे० सावद्या५ । निलपन-ध १४/५.६.६५२/५०७/१ आहारसरी रिदियआणपाण
अपज्जत्तोणं णिवत्ती पिल्लेवणं णाम। -आहार, शरीर, इन्द्रिय
और श्वासोच्छवास अपर्याप्तियोकी निवृत्तिको निर्लेपन कहते हैं। निवंगे-- गो. क /जी प्र/६६०/११८७/११ निर्वगं सर्वथा असदृशं ।
=जो सर्वथा असदृश हो उसे निर्वर्ग कहते है। निर्वगण-ल. सा./जी प्र./४३/७७/५) अनुकृष्टय, प्रतिसमय
परिणामरवण्डानि तासामवा आयाम तत्संख्येत्यर्थ । तदेव तत्परिणाममेव निर्वर्गणकाण्डकमित्युच्यते। बर्गणा समयसाहश्यं ततो निष्क्रान्ता उपर्युपरि समयबतिपरिणामखण्डा तेषां काण्डक पर्व
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-७९
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