________________
करण
करुणा
७. अनिवृत्तिकरणके चार आवश्यक ध. ६/१,६-८,५/२२६/८ ताधे चेब अण्णो ठिदिखंडओ अण्णो अणुभाग
खंडओ, अण्णो ट्ठिदिबंधी च आढत्तो। पुबोकडि डदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसमोकड्डिदूण अप्रत्रकरणो व्य गलिदसेसं गुणसे दि करेदि। ...एवं ट्ठिदिबंध-ठिदिखंडय-अणुभागवंडयसहस्सेसु गदेसु अणियट्टीअधाए चरिमसमयं पावदि। उसी ( अनिवृत्तिकरणको प्रारम्भ करनेके ) समयमें ही१, अन्य स्थितिखण्ड, २. अन्य अनुभाग खण्ड और ३. अन्य स्थिति बन्ध (अपसरण) को आरम्भ करता है। पूर्वमें अपकर्षित प्रदेशाग्रसे असंख्यात गुणित प्रदेशका अपकर्षण कर अपूर्वकरणके समान गलितावशेष गुणश्रेणीको करता है। ...इस प्रकार सहस्रों स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डकघात, और अनुभागकाण्डकघातोंके व्यतीत होनेपर अनिवृत्ति करणके कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है। (ल. सा./ /८३-८४/११८), (क्ष. सा./म् /४११-४३१४६५)।
८. अनिवृत्तिकरण व अपूर्वकरणमें अन्तर ५ १/१.१.१७११८४/१ अपूर्वकरणाश्च तादृक्षा' केचित्सन्तीति तेषामध्ययं व्यपदेश' प्राप्नोतीति चेन्न, तेषां नियमाभावाचा प्रश्न-अपूर्वकरण गुणस्थानमे भी कितने ही परिणाम इस प्रकारके होते हैं (अर्थात् समान समयवर्ती जोबोके समान होते हैं और असमान समयवर्तीक भी परस्पर समान नहीं होते) अतएव उन परिणामोको भी अनिवृत्ति संज्ञा प्राप्त होनी चाहिए। उत्तर-नहीं, क्योंकि, उनके निवृत्ति रहित ( अर्थात समान ) होनेका कोई नियम नहीं है। ल. सा./जो. प्र./३६/७१/१६ अनिवृत्तिकरणोऽपि तथैव पूर्वोत्तरसमयेषु
संख्याविशुद्धिसादृश्याभावाद भिन्नपरिणाम एव । अयं तु विशेष'प्रतिसमयमेकपरिणामः जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिणामभेदाभावात् । यथाध प्रवृत्तापूर्वकरणपरिणामाः प्रतिसमयं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादसंख्यातलोकमात्र विकल्पाः षट्स्थानवृद्ध्या वर्द्धमामा' सन्ति न नथानिवृत्तिकरणपरिणामाः तेषामेकस्मिन् समये कालत्रयेऽपि विशुद्धिसादृश्यादै क्यमुपचर्यते । यद्यपि अपूर्वकरणकी भॉति अनिवृत्तिकरणमें भी पूर्वोत्तर समयोमे होनेवाले परिणामोंकी संख्या व विशुद्धि सदृश न होने के कारण भिन्न परिणाम होते हैं, परन्तु यहाँ यह विशेष है कि प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है, क्योंकि यहाँ जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट परिणामरूप भेदका अभाव है। अर्थात जिस प्रकार अध.प्रवृत्त करण और अपूर्वकरणके परिणाम प्रतिसमय जवन्य मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे असख्यात लोकमात्र विकल्पसहित षट्स्थान वृद्धिसे बद्धं मान होते है, उस प्रकार अनिवृतिकरणके परिणाम नहीं होते; क्योंकि, तीनों कालोमें एक समयवर्ती उन परिणामोमें विशुद्धिकी सदृशता होनेके कारण एकता कही गयी है।
१०. गुणश्रेणी आदि अनेक कार्योका कारण होते हुए
भी इसके परिणामों में अनेकता क्यों नहीं कहते। ध. १/१,१,२७/२११/२ कज्ज-णाणत्तादो कारणणाणत्तमणुमाणिज्जदि इदि एदमविण घडदे, एयादो मोग्गरादो बहकोडिकवालोवलं भा। तत्थ वि होदु णाम मोग्गरो एओ, ण तस्स सत्तीणमेयत्तं, तदो एयक्वप्परुप्पत्ति-प्पसंगादो इदि चे तो क्वहि एत्थ वि भवदु णाम द्विदिकंडयघाद-अणुभागकंडयधाद - ट्ठिदिबंधोसरण - गुणसंकम-गुणसेढी-द्विदिअणुभागमंध-परिणामाणं णाणत्तं तो वि एग-समयसंठियणाणाजीवाणं सरिसा चेव, अण्णहा अणियट्टिविसेसणाणुववत्तीदो। जइ एवं, तो सम्वेसिमणियट्टी-णमेय-समयम्हि वट्टमाणाणां छिदि-अणुभागधादाण सरिसत्तं पावेदि तिचे ण दोसो, इट्टत्तादो। पढम-ट्ठिदिअणुभाग-खंडदाण-सरिसत्त णियमो णत्थि, तदो णेदं घडदि त्ति चे ण दोसो, हद सेस-द्विदि अणुभागाणं एय-पमाण-णियमदंसणादो ।-प्रश्न-अनेक प्रकारका कार्य होनेसे उनके साधनभूत अनेक प्रकारके कारणोंका अनुमान किया जाता है। अर्थात अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें प्रतिसमय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघात आदि अनेक कार्य देखे जाते हैं, इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेक प्रकारके होने चाहिए ! उत्तरयह कहना भी नही बनता है, क्योंकि, एक मुद्गरसे अनेक प्रकारके कपालरूप कार्यकी उपलब्धि होती है। प्रश्न-वहॉपर मुद्गर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियों में एकपना नहीं बन सकता है। यदि मुद्गरकी शक्तियों में भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालरूप कार्यकी ही उत्पत्ति होगी। उत्तर यदि ऐसा है तो यहॉपर भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरण, गुणसंक्रमण, गुणश्रेणीनिर्जरा, शुभ प्रकृतियोके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके कारणभूत परिणामोमें नानापना रहा आवे, तो भी एक समयमें स्थित नाना जीवोके परिणाम सदृश ही होते है, अन्यथा उन परिणामोके 'अनिवृत्ति' यह विशेषण नहीं बन सकता है। प्रश्न-यदि ऐसा है तो एक समयमे स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालोके स्थितिकाण्डकधात और अनुभागकाण्डकयातकी समानता प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह बात तो हमें इष्ट ही है-दे० करण/4/६ । प्रश्न-प्रथम स्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डककी समानताका नियम तो नहीं पाया जाता है, इसलिए उक्त कथन घटित नहीं होता है। उत्तर--यह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रथम स्थितिके अवशिष्ट रहे हुए खण्डका और उसके अनुभाग खण्डका अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले प्रथम समयमे ही घात कर देते हैं, अतएव उनके द्वितीयादि समयोमे स्थितिकाण्डकोंका और अनुभागकाण्डकोका एक प्रमाण नियम देखा जाता है। करण लब्धि-दे०लब्धि/४ । करणानुयोग-दे० अनुयोग। करभवेदिनी-भरत आर्य खण्डको एक नदी-दे० मनुष्य/४ । करीरी-भरत आर्यखण्डकी एक नदो-दे० मनुष्य/४ । करुणास, सि./११/३४६/८ दीनानुग्रहभाव' कारुण्यम् । =दीनों
पर दयाभाव रखना कारुण्य है। (रा वा./७/११/३/५३८/१६) (ज्ञा /२७/८-१०) भ. आ /वि /१६६६/१५६६/१३ शारीरं, मानसं, स्वाभाविकं च दुखमसह्याप्नुबतो दृष्ट्वा हा बराका मिथ्यादर्शनेनाविरच्या कषायेणाशुभेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मपर्यायपुद्गलस्कन्धतदुपोद्भवा विपदो विवशा' प्राप्नुवन्ति इति करुणा अनुकम्पा । = शारीरिक, मानसिक,
९. यहाँ जीवोंके परिणामोंकी समानताका नियम समान समयबालोंके लिए ही है, यह कैसे कहते हो ? ध. १/१.१.१७/१८१/२ समानसमयस्थितजोवपरिणामानामिति कथमधिगम्यत इति चेन्न, 'अपूर्वकरण' इत्यनुवर्तनादेव द्वितीयादिसमयवर्तिजीव सह परिणामापेक्षया भेदसिद्ध । - प्रश्न-इस गुणस्थानमे जो जीवौके परिणामोंकी भेदरहित वृत्ति बतलायी है, वह समान समयवर्ती जीवों के परिणामोंकी ही विवक्षित है यह कैसे जाना" उत्तर--'अपूर्वकरण' पद की अनवृत्तिसे ही यह सिद्ध होता है कि इस गुणस्थानमें प्रथमादि समयवर्ती जीवोका द्वितीयादि समयवर्ती जोवोके साथ परिणामोकी अपेक्षा भेद है।
जनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org