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चारित्र
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स्थित अस्तित्वस्वरूप वह स्वचारित्र है और परभावमें अवस्थित अस्तित्वस्वरूप यह परचारित है। पं.का./१५६ १५१ यः कर्ता...शुद्धात्मद्रव्यात्परिभ्रष्ट भूला.... रागभावेन परिणम्य... शुद्धोपयोगाद्विपरीत. समस्त परद्रव्येषु शुभम - शुभं वा भावं करोति स ज्ञानानन्द कस्वभावात्मा स्वकीय चारिवाइ भ्रष्ट सह स्वसंवित्यनुष्ठानविलक्षणपरचारित्रचरो भक्तीति सूत्राभिप्राय. ११२६। निजशुद्धात्म स विश्यनुचरणरूपं परमागमभाषया मीतराग परमसामायिकसंज्ञं स्वचरितम् ॥१५८ ॥ पूर्वं सविकल्पावस्थायां शाखाएं शहमिति यकल्पये सर्विस माधिकालेऽनन्त ज्ञानादिगुणस्वभावादात्मनः सकाशादभिन्न चरतीति सूत्रार्थः ॥१५६॥ - जो व्यक्ति शुद्धात्म द्रव्यसे परिभ्रष्ट होकर, रागभाव रूपसे परिणमन करके, शुद्धोपयोगसे विपरीत समस्त परद्रव्योंमें शुभ व अशुभ भाव करता है, वह ज्ञाननन्दरूप एकस्वभावात्मक स्वकीय चारित्रसे भ्रष्ट हो, स्वसंवेदन से विलक्षण परचारित्रको आचरनेवाला होता है, ऐसा सूत्रका तात्पर्य है ।१३। निज शुद्धात्मा संवेदन में अनुचरण करने रूप अथवा आगमभाषामे वीतराग परमसामायिक नामवाला अर्थात् समता भावरूप स्वचारित्र होता है ।१३८ । पहले सविकल्पावस्था में 'मैं ज्ञाता हूँ, मैं द्रष्टा हूँ' ऐसे जो दो विकल्प रहते थे वे अब इ निर्विकल्प समाधिकाल में अनन्तज्ञानादि गुणस्वभाव होने के कारण आत्मासे अभिन्न ही आचरण करता है, ऐसा सूत्रका अर्थ है । १५६ | और भी देखो 'समय' के अन्तर्गत स्वसमय व परसमय । • सम्यक् व मिथ्या चारित्रके लक्षण
मो.पा. सू./१०० जदि काहि बहुविय चारिते। तं बात चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं । =बहुत प्रकारसे धारण किया गया भी चारित्र यदि आत्मस्वभावसे विपरीत है तो उसे बालचारित्र अर्थाव मिथ्याचारित्र जानना । नि.सा./ता.वृ./११ भगव रई स्परमेश्वर मार्ग प्रतिकूल मार्गाभास सन्मार्गा चरणं मिथ्याचारित्रं च । अथवा स्वात्म अनुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्या चारित्रं भगवान् अहं परमेश्वर के मार्ग प्रतिकूल मार्गा भासमे मार्गका आचरण करना वह मिथ्याचारित्र है । अथवा निज आत्मा के अनुष्ठान के रूपसे विमुखता वही मिथ्याचारित्र है । नोट: सम्यचारिके लक्षण के लिए देखो चारित्र सामान्यता अथवा निश्चय व्यवहार चारित्रका अथवा सराग वीतराग चारित्रका लक्षण | १०. निश्चय व्यवहार चारित्र निर्देश
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चारित्र यद्यपि एक प्रकारका है परन्तु उसमें जीवके अन्तरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें युगपत उपलब्ध होने के कारण, अथवा पूर्व भूमिका और ऊँची भूमिकाओमे विकल्प व निर्विकल्पताकी प्रधानता रहने के कारण, उसका निरूपण दो प्रकारसे किया जाता है- निश्चय चारित्र व व्यवहारचारित्र ।
तहाँ जीवकी अन्तरंग विरागता या साम्यता तो निश्चय चारित्र और उसका बाह्य वस्तुओंका ध्यानरूप व्रत, बाह्य क्रियाओं मे यत्नाचाररूप समिति और मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको नियन्त्रित करने रूप गुप्तिये व्यवहार चारित्र हैं। व्यवहार चारित्रका नाम सराग चारित्र भी है। और निश्चय चारित्रका नाम वीतराग चारित्र | निचती भूमिकाओमे व्यवहार चारित्रको प्रधानता रहती है और ऊपर ऊपरकी ध्यानस्थ भूमिकाओमे निश्चय चारित्रकी।
११. निश्चय चारित्रका लक्षण
१. बाह्याभ्यन्तरकियाओंसे निवृत्ति
मो.पा./ यू./३० तच्चारितं भवियं परिहारी पुग्णावानं पुण्यव पाप दोनोंका त्याग करना चारित्र है । (न.च.वृ/ ३७८ ) ।
१. चारित्र निर्देश
स.सि./१/१/५/- संसारकारण निवृत्ति प्रत्या पूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादानकिषोरम' सम्यग्वारिजम् ।जो ज्ञानी पुरुष संसारके कारणोंकी दूर करनेके लिए उद्यत है उसके कमोंके ग्रहण करनेमें निमित्तभूत किया यागको चारित्र कहते हैं (रा.वा./१/१/३/४/११/०१ १४/४१/५); (भ. आ / वि /६/३२/१२ ) ( पं. ध /उ. / ७६४ ) (ला. सं/ ४/२६३/१६९) ।
प्र.सं./२६ व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयतिमहिरभतर किरियारोहो भवकारणप्पणास शाणिस्स जंजिषुतं तं परमं सम्मचारितं |४६ | = व्यवहार चारित्रसे साध्य निश्चय चारित्रका निरूपण करते हैं-ज्ञानी जीवके जो संसारके कारणोंको नष्ट करनेके लिए बाह्य और अन्तरंग क्रियाओंका निरोध होता है वह उत्कृष्ट सम्यक् चारित्र है । प.वि/१/०२ चारि विरति प्रमादवितसत्कम वियोगिनां - योगियों का प्रमादसे होनेवाले कर्मापसे रहित होनेका नाम चारित्र है।
२. ज्ञान व दर्शनकी एकता ही चारित्र है चापा./मू./३ जं जाणइ तं गाणं पिच्छह तं च पिच्छयस्य समवण्णा होइ चारितं । ३। बहुरि जो देखे सो दर्शन है, ऐसा कहता है के समायोग से चारित्र होय है।
३. साम्यता या ज्ञाता द्रष्टाभावका नाम चारित्र है
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प्र. सा./मू./० चारितं खलु धम्मम्म जो सो समो तिििो । मोहक्खहविहीणी परिणामी अप्पणी हु समो | ७| चारित्र वास्तवमें धर्म है जो धर्म है वह साम्य है. ऐसा कहा है। साम्य मोह शोभ रहित आत्माका परिणाम है 1७1 ( मो. पा./मू./५० ); ( पं. का. / भू / १०७)
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म.पु / २४/१९६ माध्यस्यलक्षणं प्राश्चारित्रं वितृषो मुने । मोक्षकामस्य निर्मुकश्चेतसाहस्य त ।९१६४ अनिष्ट पदार्थोंने समता भाव धारण करनेको सम्पचारित्र कहते हैं। वह सम्यग्वारि यथार्थ रूपसे तृषा रहित, मोक्षकी इच्छा करनेवाले वस्त्ररहित और हिसाका सर्वथा त्याग करनेवाले मुनिराज के ही होता है।
न. च. वृ./ ३५६ समदा तह मज्झत्थं सुद्धो भावो य वीयरायतं । तह चारित धम्मो सहाव आराहणा भणिया | ३५६ =समता, माध्यस्थ्य, शुद्धोपयोग वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभावकी आराधना मे सब एकार्थवाची हैं। (४) (/४/२६३ / ९६१) प्र. सा./त.प्र./२४२ ज्ञेयज्ञातृ क्रियान्तरनिवृत्तिसूत्रयमाणद्रष्टृ ज्ञातृत्व वृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण शेय और शासकी क्रियान्तरले अर्थात् अन्य पदार्थों के जानने रूप क्रियासे निवृत्तिके द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्त्वमे (ज्ञाता द्रष्टा भाव में ) परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है ।
दंसणं भणियं । णाणस्स जो जाने सो ज्ञान है, बहुरि ज्ञान और दर्शन
४. स्वरूपमें चरण करना चारित्र है
स. सा/आ./३६ स्वस्मिन्नेव ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाचारित्र भवति। अपने अर्थात ज्ञानस्वभावमें ही निरन्तर चरनेसे चारित्र है।
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प्र.सा./त.प्र० स्वरूपे चरणं चारित्रं स्यसमप्रवृत्तिरित्यर्थः । देव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः स्वरूपमे चरण करना चारित्र है, स्वसमय में प्रवृत्ति करना इसका अर्थ है । यहीं बस्तुका ( आत्माका ) स्वभाव होनेसे धर्म है।
का./वा/१६४ / २२४/१४ जानस्वभावनियतचारित्र भवति रादपि कस्मात् । स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वचनात् । जोव स्वभावमें अवस्थित रहना ही चारित्र है, क्योकि, स्वरूपमें चरण करनेको चारित्र कहा है ब्र. सं./टी./३३/१४०/३)
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