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________________ चारित्र २८१ सूचीपत्र ५ । चारित्र धारना ही सम्यग्ज्ञानका फल है। चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान सम्यक्चारित्रमें सम्यक्पदका महत्त्व । चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है। चारित्र सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है। | सम्यक् हो जानेपर पहला ही चारित्र सम्यक् हो जाता है। ५ । सम्यक् हो जानेके पश्चात् चारित्र क्रमशः स्वतः हो जाता है। सम्यग्दर्शन सहित ही चारित्र होता है। सम्यक्त्व रहितका 'चारित्र' चारित्र नहीं। सम्यक्त्वके बिना चारित्र सम्भव नहीं। सम्यक्त्व शन्य चारित्र मोक्ष व आत्मप्राप्तिका कारण नहीं। १० | सम्यक्त्व रहित चारित्र मिथ्या है अपराध है। व्यवहार चारित्रकी कथंचित् प्रधानता व्यवहार चारित्र निश्चयका साधन है। व्यबहार चारित्र निश्चयका या मोक्षका परम्परा कारण है। ३ दीक्षा धारण करते समय पंचाचार अवश्य धारण किये । जाते हैं। व्यवहारपूर्वक ही निश्चय चारित्रकी उत्पत्ति का | क्रम है। ५ / तीर्थंकरों व भरत चक्रीको भी चारित्र धारण करना पड़ा था। व्यवहार चारित्रका फल गुणश्रेणी निर्जरा। व्यवहार चारित्रकी इष्टता। मिथ्यादृष्टियोंका चारित्र भी कथंचित् चारित्र है। बाह्य वस्तुके त्यागके बिना प्रतिक्रमणादि सम्भव नहीं। -दे० परिग्रह/१२। बाह्य चारित्रके बिना अन्तरंग चारित्र सम्भव नहीं। -दे० वेद/७/४। ७ निश्चय व्यवहार चारित्र समन्वय निश्चय चारित्रकी प्रधानता शुभ अशुभसे अतीत तीसरी भूमिका ही वास्तविक चारित्र है। | चारित्र वास्तवमें एक ही प्रकारका होता है। निश्चय चारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है -दे० चारित्र/२/२। निश्चय-चारित्रके अपरनाम-दे० मोक्षमार्ग/२/11 निश्चय चारित्रसे ही व्यवहार चारित्र सार्थक है, अन्यथा वह अचारित्र है। निश्चय चारित्र ही वास्तवमें उपादेय है। पंचम काल व अल्प भूमिकाओंमें भी निश्चय चारित्र कथंचित् सम्भव है -दे० अनुभव/१। निश्चय चारित्रकी प्रधानताका कारण । व्यवहार चारित्रकी गौणता व निषेधका कारण व प्रयोजन। व्यवहारको निश्चय चारित्रका साधन कहनेका कारण । व्यवहार चारित्रको चारित्र कहनेका कारण । व्यवहार चारित्रको उपादेयताका कारण व प्रयोजन । बाह्य और अभ्यन्तर चारित्र परस्पर अविनाभावी हैं। एक ही चारित्रमें युगपत् दो अंश होते हैं। सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि के चारित्रमें अन्तर -दे० मिथ्यादृष्टि/४॥ उत्सर्ग व अपवादमार्गका समन्वय व परस्पर सापेक्षता -दे० अपवाद/४। निश्चय व्यवहार चारित्रको एकार्थताका नयार्थ । सामायिकादि पॉचों चारित्रोंमें कथंचित् भेदाभेद -दे० छेदोपस्थापना। सविकल्प अवस्थासे निर्विकल्पावंस्थापर आरोहणका क्रम -दे० धर्म/६/४। शप्ति व करोति क्रियाका समन्वय-दे० चेतना/३/८ । | वास्तवमे व्रतादि बन्धके कारण नही बल्कि उनमें अध्यवसान बन्धका कारण है। व्रतोंको छोड़नेका उपाय व क्रम । कारण सदृश कार्यका तात्पर्थ-दे० समयसार। कालके अनुसार चारित्रमें होनाधिकता अवश्य आती है -दे०निर्यापक/१ में भ. आ./६७१। चारित्र व संयममें अन्तर--दे० संयम/२ । व्यवहार चारित्रकी गौणता व्यवहार चारित्र वास्तवमें चारित्र नहीं। व्यवहार चारित्र वृथा व अपराध है। मिथ्यादृष्टि सांगोपांग चारित्र पालता भी संसारमें भटकता है -दे० मिथ्याष्टिा२। व्यवहार चारित्र बन्धका कारण है। प्रवृत्ति रूप व्यवहार संयम शुभास्रव है संवर नही -दे० संवर/२। ४ । व्यवहार चारित्र निर्जरा व मोक्षका कारण नहीं। व्यवहार चारित्र विरुद्ध व अनिष्ट फलप्रदायी है। व्यवहार चारित्र कथंचित् हेय है। * जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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