________________
तत्वज्ञान तरंगिनी
स्वसंवेदन प्रत्ययका विषय चैतन्यात्मक और जीव संज्ञा वाला है नह मै उपादेय हूँ तथा ये मुझसे भिन्न पौगलिक रागादिक भाव त्याज्य है ।
प्र. सं/लिका/२८/८२/५ हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञानप्रयोजनाथमासवादिपदार्था व्याख्येया भवन्ति । = कौन तत्व हेय है, और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषय के परिज्ञान के लिए आसवादि तत्त्वोका व्याख्यान करने योग्य है। मो.मा.प्र./०/३३१/१३ जी किया है, ताका पुहगत निमित्त है, यह गलकी किया है. ताका जीन निमित्त है याद भिन्न-भिन्न भाव भासे नाही.. तातें जीव अजीब जाननेका प्रयोजन तो यही था । भा पा./टी./ ११४ पं. जयचन्द = प्रथम जीव तत्त्वकी भावना करनी, पीछे 'ऐसा मैं हूँ' ऐसे आत्मतत्वको भावना करनी। दूसरे अजीव तत्त्वकी भावना करनी जो यह मै.. नाहीं हूँ। तीसरा आल तत्त्व संसार होय है ताते तिनिका कर्ता न होना। चौथा बन्धतत्त्व है मेरे विज्ञान तथा प्रगल कर्म सर्व श्रेय है ( अतः ) राग द्वेष मोहन करना । पाँच तत्त्व संवर है सो अपना भाव है याही करि भ्रमण मिटे है ऐसे इन पाँच तत्त्वनि की भावना करनमें आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है। ( इस प्रकार ) आत्म भाव शुद्ध अनुक्रम तै होना तो निर्जरा तत्त्व भया । और (तिन छहका फलरूप) सर्व कर्मका अभाव होना मोक्ष भया ।
५. अन्य सम्बन्धित विषय
१. सप्त तत्त्व नव पदार्थके व्याख्यानका प्रयोजन कर्ता कर्म रूप भेद विज्ञान -३० ज्ञान /11/१ दे०
२. सप्त तत्त्व श्रद्धानका सम्यग्दर्शनमें स्थान
- दे० सम्यग्दर्शन /11/ २. सम्यग्दृष्टि व मिध्यादृष्टि तत्वका कर्तृत्व
-दे०४
४. मिध्यादृष्टिका तत्व विचार मिया है ३० मिध्यादृष्टि | ३ | ५. तलका धार्थ छान करनेका उपाय
- दे० न्याय ।
"
तत्त्वज्ञान तरंगिनी - आचार्य ज्ञान (६०१४४७-१४६३) द्वारा रचित शुद्ध सम्प प्रतिपादक ग्रन्थ है इसमे १० अधिकार है तथा कुल ५३६ श्लोक है (ती./३/३५२) । तत्त्वत्रय प्रकाशिका - आचार्य शुभचन्द्र (ई० १००३ - ११८) कृत ज्ञानायके पद भागपर को गयी भट्टारक तसागर ई० १४८०-१४११) कृत संस्कृत टीका जिसमें शिवतत्त्व, गरुड़ तत्त्व और काम तत्व, इन का वर्णन है (ती./३/३३८) | तत्त्व दीपिका- आ० मनदेव (मिश १२ पूर्व) द्वारा संस्कृत ब्रह्मदेव भाषा में रचित एक आध्यात्मिक ग्रन्थ । तत्त्व निर्णय-आ० शुभचन्द्र (ई० १५१६-१५५६) द्वारा रचित न्याय विषयक ग्रन्थ
तस्य प्रकाशिका -आ० योगेन्द्रदेव ( ई० श० ६) द्वारा रचित तत्वार्थ सूत्रको प्राकृत भाषा व टीका है।
A
तत्त्व प्रदीपिका--प्रवचनसार व पंचास्तिकाय दोनों ग्रन्थोकी आ० अमृतचन्द्र (०६२-१०३३) द्वारा रचित संस्कृत टीकाओका यही नाम है । दे, अमृत चन्द्र
तत्त्ववतीधारणा
--
Jain Education International
शा./१०/२०/३०५ सप्तधातुविनिर्मुकं पूर्णचन्द्रामविषम् सर्व मात्मानं ततः स्मरति संयमी ॥ २८॥ तत्पश्चात् ( वारुणी धारणाके
३५६
तत्त्वार्थ सूत्र
पश्चाद) संयमी मुनि धातुरहित पूर्णचन्द्रमा के समान है निर्मल प्रभा जिसकी ऐमे सर्वज्ञ समान अपने आत्माका ध्यान करें |२| विशेष- दे० पिडस्थ ध्यान का लक्षण ।
★ ध्यान सम्बन्धी ६ तत्व दे० ध्येय । ★ प्राणायाम सम्बन्धी तरच
दे० ध्येय
तत्त्व शक्तिस.सा./आ./ परि० शक्ति नं० २६ तद्रूपभवनरूपा तत्त्वशक्ति' | = तत्स्वरूप होना जिसका स्वरूप है ऐसी उनतीसवीं तत्वशक्ति है, जो वस्तुका स्वभाव है उसे तत्त्व कहते हैं वही तत्त्वशक्ति है। (२)
तत्त्वसार आ० देवसन ( ई० १३३-६५५) द्वारा रचित प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है ।
----
तस्वानुशासन - १. बा० समन्तभद्र ( ई०श०२) द्वारा रचित यह ग्रन्थ न्याय पूर्वक तत्त्वोका अनुशासन करता है । आज उपलब्ध नहीं है। (ती./२/१८) । २. आ० रामसेन ( ई०रा० १२ उत्तरार्ध) द्वारा रचित संस्कृत छन्द बद्ध ध्यान विषयक ग्रन्थ । इसमें २५६ श्लोक हैं। (ती./३/२३८) ।
तत्त्वार्थ- दे० तत्त्व / १ |
तत्त्वार्थ बोध - बुधजन ( ई० १८१४ ) द्वारा रचित भाषा छन्द तार्थविषयक कृति
तत्त्वार्थ राजवार्तिक — दे० राजबार्तिक ।
तत्त्वार्थसार
राजवार्तिकालंकार के आधारपर लिखा गया यह ग्रन्थ तत्त्वार्थका प्ररूपक है। आ० अमृतचन्द्र (ई० १०५- २५५) द्वारा संस्कृत श्लोकोंने रचा गया है। इसने अधिकार और कुल ७२० श्लोक हैं। ६ तत्त्वार्थसार दीपक -- आ० सकलकीर्ति ( ई० १४०६ - १४४२) कृत सप्त तत्व विवेचना। संस्कृत ग्रन्थ (ती./३/३३५) | तत्त्वार्थ सूत्र -आ० उमास्वामी ( ई. स. ३) कृत मोक्षमार्ग, तत्त्वार्य दर्शनविषयक १० अध्यायोंमें सूत्रमद्ध ग्रन्थ है। कुल सूत्र २३७ है। इसीको मोक्षशास्त्र भी कहते है। दिगम्बर श्वेताम्बर दोनोंको समान रूपसे मान्य है । जैन आम्नायमे यह सर्व प्रधान सिद्धान्त ग्रन्थ माना जाता है। जैन दर्शन प्ररूपक होनेके कारण यह जैन बाइबल के रूपमे समझा जाता है। इसके मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोकपर ही आ० समन्तभद्र (ई०शठ २) ने आप्तमीमांसा ( देवागम स्तोत्र ) की रचना की थी, जिसकी पीछे अकलंकदेव (ई० ६२०-६८०) ने ८०० श्लोक प्रमाण अष्टशती नामकी टीका की। आगे आ० विद्यानन्द नं० १ ( ई० ७७५-८४०) ने इस अष्टशतीपर भी ८००० श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नामकी व्याख्या की। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थपर अनेकों भाष्य व टीकाऍ उपलब्ध है- १. श्वेताम्बराचार्य बाचक उमास्वामीकृततत्त्वार्थाभिगम भाष्य (संस्कृत); २. आ० समन्तभद्र ( ई० २) विरचित १६०० श्लोक प्रमाण गन्धहस्ति महाभाष्य; ३. श्री पूज्यपाद ( ई० श० ५०) विरचित सर्वार्थसिद्धि; ४ योगीन्द्र देव विरचित तत्त्व प्रकाशिका ( ई० श० ६ ) ५. श्री अकलंक भट्ट ( ई० ६२०-६००) विरचितार्थ राजार्तिक ६ श्री अभयनन्दि (३० श०१०-११) विरचित रचार्थ वृति: ७ श्री विद्यानन्द (३०००३-०४०) विरचित श्लोकवाकि आ० शिवकोटि (०० ११) द्वारा रचित रत्नमाला नामकी टीका । ६. आ० भास्करनन्दि ( ई० श० १२) कृत सुखबोध नामक टीका । १०० आ० बालचन्द्र ( ई० ०१३) कृत कन्नड टीका । ११. विबुधसेनाचार्य ( 1 ) विरचित सार्थ टीका १९. योग (ई. १५०६) विरचित स्वार्थ वृत्ति। १३. प्रभाचन्द्र नं० ८ (ई. १४३२) कृत तत्वार्थ रत्म प्रभाकर भट्टारक
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org