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कर्ता
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कन्वय क्रिया
किया गया कहा जाता है, उसी प्रकार समयादि व्यवहार काल भी अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसलिए ....(पं.का./त.प्र./६८)
जहाँ वस्तुभेद है अर्थात भिन्न वस्तुएं हैं वहाँ कर्ताकर्म घटना नहीं ४ भिन्न कर्ता-कर्म भावके निषेधका कारण
होती। इस प्रकार मुनिजन और लौकिक जन तत्वको (वस्तुके यथार्थ
स्वरूपको ) अक देखो, (यह श्रद्धामे लाओ कि कोई किसीका कर्ता स.सा./मू.व.आ./ यदि सो परदवाणि य करिज णियमेण तम्मओ नहीं है, पर द्रव्य परका अकर्ता ही है ) ॥ २०१॥ जो इस वस्तुहोज । जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसि हबाद कत्ता।। स्वभावसे नियमको नहीं जानते वे बेचारे, जिनका तेज ( पुरुषार्थ या परिणामपरिणामिभावान्यथानुपपत्ते नियमेन तन्मय' स्यात् । = यदि पराक्रम) अज्ञानमे डूब गया है ऐसे, कर्म को करते हैं; इसलिए भाव, आत्मा पर द्रव्योंको करे तो वह नियमसे तन्मय अर्थात परद्रव्यमय कर्मका कर्ता चेतन हो स्वयं होता है, अन्य कोई नहीं । २०२ । हो जाये किन्तु तन्मय नहीं है इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है।
६. मिन्न कर्ताकर्म व्यपदेशका कारण (तन्मयता हेतु देनेका भी कारण यह है कि निश्च यसे विचार करते हुए परिणामी कर्ता है और उसका परिणाम उसका कर्म ) यह
स सा/मू/३१२-३१३ चेया हु उ पयडीअट्ठ उप्पज्जइ विणस्सइ । पयडी वि परिणामपरिणामीभाव क्योकि अन्य प्रकार बन नहीं सकता इसलिए
चेययट्ठ उपजइ विणस्सइ । ३१२ । एवं बंधो उ दुह बि अण्णोण्णउसे नियमसे तन्मय हो जाना पड़ेगा।
प्पञ्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए। ३१३ । - स.सा/आ/७५ व्याप्यव्यापकभावाभावाव कर्तृकर्मत्वासिद्धौ। -( भिन्न
तत एव च तयो कतृकर्मव्यबहार' । आ. ख्याति. टीका चेतक द्रव्योमें) व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ता कर्म भावकी
अर्थात् आश्मा प्रकृति के निमित्तसे उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। असिद्धि है।
तथा प्रकृति भी चेतनके निमित्तसे उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। सा.सा/आ/८५६ह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतयान नाम
इस प्रकार परस्पर निमित्तसे दोनों ही आत्मा का और प्रकृतिका बन्ध परिणामताऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्न
होता है। और इससे संसार उत्पन्न हो जाता है। ३१२-३१३ । इस वस्तुत्वाव परिणामिनोन भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि
लिए उन दोनों के कर्ताकर्म का व्यवहार है। सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकोरव्यतिरिक्तताया वस्तुस्थित्या
७. भिन्न कर्ताकम व्यपदेशका प्रयोजन प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जोवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गल
द्र.सं /टी /८/२२/४ यतो हि नित्यनिरज्जननिष्क्रियनिजात्मभावनाकर्मापि यदि कुर्यात् भावप्रभावकभावेन तदेवानुभवेच्च तताऽयं
रहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयोः परस्पर
भावना कर्तगा। क्योंकि नित्य निरञ्जन निष्क्रिय ऐसे अपने विभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितया सर्व
आत्मस्वरूपकी भावनासे रहित जीवके कर्मादिका कतृत्व कहा गया
है, इसलिए उस निज शुद्धात्मामें ही भावना करनी चाहिए । ज्ञावमत' स्यात् । -( इस रहस्यको समझनेके लिए पहले ही यह बुद्धिगोचर करना चाहिए कि यहाँ निश्चय दृष्टिसे मोमांसा की जा ८. कर्ताकर्म भाव निर्देशका मतार्थ व नयार्थ रहो है व्यवहार दृष्टिसे नहीं। और निश्चयमे अभेद तत्वका विचार
स,सा/ता.व./२२ की प्रक्षेपक गाथा-अनुपचारितासभूतव्यहारनयाद करना इष्ट होता है भेद तत्त्व या निमित्त नै मित्तिक सम्बन्ध का नही।)
पुद्गलद्रव्यकर्मादीना कति =अनुपरित असद्भूत व्यवहारसे ही जगत में जा क्रिया है सो सब हो परिणाम स्वरूप होनेसे वास्तवमे
आत्मा पुद्गलद्रव्यका या कर्म आदि कोका कर्ता है। परिणामसे भिन्न नहीं है ( परिणाम हो है), परिणाम भा परिणामी प. का/ता बृ./२७/६९/१० शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वब्याख्यानं तु (द्रव्य ) से भिन्न नही है क्योकि परिणाम और परिणामी अभिन्न
नित्याक वे कान्तसारख्यमतानुयायिशिष्यसबोधनार्थ, भोक्तृत्ववस्तु हैं । इसलिए ( यह सिद्ध हुआ) कि जो कुछ क्रिया है वह सब व्याख्यान कर्ता कर्म फलं न भुक्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यहो क्रियावात्से भिन्न नहीं है। इस प्रकार वस्तुस्थितिसे हो क्रिया प्रतिबोधनार्थम् । = शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापनेका और कर्ताको अभिन्नता सदा हो प्रगटित होनसे, जैसे जीव व्याप्य
व्याख्यान, आत्माको एकान्तसे नित्य अकर्ता माननेवाले सारख्यव्यापकभ वसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे
मतानुसारी शिष्यके सम्बोधनार्थ किया गया है, और भोक्तापनेका उसीका अनुभव करता है-उसो प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे
व्याख्यान, 'कर्ता स्वयं कर्म के फल को नहीं भोगता' ऐसा माननेवाले पुदगलकर्मको भो करे और भाव्यभावकभावसे उसाका भागेता वह
बौद्ध मतानुसारी शिष्यके प्रतिबोधनार्थ है। जोव अपनी व परको एकत्रित हुई दो क्रियाओसे अभिन्नताका प्रसग
कर्तावाद-ईश्वर कर्तावाद-दे० परमात्मा/३। आनेपर स्व-परका परस्पर विभाग अस्त हो जानेसे, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माका अनुभव करता हुआ मिथ्याष्टिताके कारण सर्वज्ञके
कतत्वमतसे बाहर है।
रा.वा २/७/१३/११२/३. कतृत्वमपि साधारण क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां
स्वातन्यात् । = कर्तृत्व भी साधारण धर्म है क्योंकि अपनी-अपनी ५. भिन्न कर्ताकर्ममावके निषेधका प्रयोजन
क्रियाकी निष्पत्तिमे सब द्रव्योकी स्वतंत्रता है। स सा/आ/३२१/क २००-२०२ नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध' परद्रव्यात्म- स.सा /आ/परि./शक्ति नं०४२ भवत्तारूपसिहरूपभावभावकत्वमयी
तत्त्वयोः । कतृ कमत्वसंबन्धाभावे तत्कत ता कुत'। २००। एकस्य कर्तृ शक्ति। ४२ । प्राप्त होने रूपता जो सिद्धरूप भाव है, उसके वस्तुनो ह्यन्यतरेण साधं, संबन्ध एव सवलोऽपि यतो निषिद्ध । भावकत्वमयी कतृत्वशक्ति है। तत्कर्तृ कर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे, पश्यन्त्वकत मुनयश्च जनाश्च पं.का./त.प्र./२८ समस्तवस्त्वसाधारणं स्वरूपनिर्वर्तनमात्रं कर्तृत्व । - तत्त्वम् । २०१। ये तु स्वभावनियम कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो समस्त वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप बत ते बराकाः । कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म, कर्ता स्वयं भवति कतृत्व होता है। चेतन एव नान्य' ।२०२१ = परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध कत नय-दे० नघ/I/५ 1 नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बन्ध कैसे हो सकता है। इस
इस कत समवायिनी क्रिया-दे० क्रिया/१ । प्रकार जहाँ कर्ताकर्म सम्बन्ध नहीं है, वहाँ आत्माके परद्रव्यका । कतृ त्व कैसे हो सकता है १२०० ॥ क्योकि इस लोकमें एक वस्तुका
कन्वय क्रिया---दे. संस्कार/२।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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