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कर्ता
४. निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भावका समन्वय
कभावसे उसीको भोगे, तो वह जीव अपनी व परकी एकत्रित हुई दो क्रियाओसे अभिन्नताका प्रसंग आनेपर मिथ्याष्टिताके कारण सर्वज्ञके मतसे बाहर है।
१३. एकको दूसरेका कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि हैयो.सा /अ/४/१३ कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयोः। उप
कुर्वेऽपकुर्वेऽई मिथ्येति क्रियते मतिः ।१३। - इस ससारमें कोई जीव किसी अन्य जीवका उपकार या अपकार नहीं कर सकता। इसलिए 'मै दूसरे का उपकार या अपकार करता हूँ' यह बुद्धि मिथ्या है। स/सा /आ./३२१,३२७ ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु. सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा करोतोत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् ।३२११ योऽयं परद्रव्ये कर्तृ व्यवसाय' स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् ।३२७ =जो आत्माको कर्ता ही देखते हैं वे लोकोत्तर हो तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते, क्योकि, लौकिक जनोंके मतमें परमात्मा, विष्णु, देव, नारकादि कार्य करता है और उनके मतमे अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार ( दोनोंमें ) अपसिद्धान्त की समानता है ।३२१॥ लोक और श्रमण दोनो मे जो यह परद्रव्यभे कतृत्वका व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शन रहितताके कारण ही है । (स.सा /मूल भो) पंध/पू./५८०-५८१ अपरे बहिरात्मनो मिथ्यावाद वदन्ति दुर्मतय. ।
यदबद्ध ऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोऽपि भवति यथा।५८०। सद्वेद्योदयभावात् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च । स्वमिह करोति जोवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च ।५८१३ - कोई खोटी बुद्धि वाले मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार मिथ्याकथनका प्रतिपादन करते हैं, जो बन्धको प्राप्त नहीं होनेवाले पर पदार्थ के विषय में भी अन्य पदार्थ कर्ता और भोक्ता होता है ।५८०। जैसे कि साता वेदनीयके उदयसे प्राप्त होनेवाले घर, धन, धान्य और स्त्री-पुत्र वगैरहको जीव स्वयं करता है तथा वही जीव ही उनका भोग करता है ।५८१।
१४. एकको दूसरेका कर्ता कहनेवाला अन्यमती है स सा./म् /८५,११६-११७ जदि पुग्गलकम्ममिणं कुम्वदि तं चेव वेदयदि
आदा। दो किरियाविदिरित्तो पसजदि सो जिणावमदं ।८। जीवे ण सयं बद्र ण सयं परिणमदि कम्मभावेण । जइ पुग्गल दवमिण अप्परिणामी तदा होदि ।११६। कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीस कम्मभावेण । ससारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा १११७॥ = यदि आत्मा इस पुद्गलकर्मको करे और उसोको भोगे तो वह आत्मा दो क्रियाओसे अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आता है. जो कि जिनदेवको सम्मत नहीं हैं।८। यह पुदगल द्रव्य जीवमें स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभावसे भी स्वयं नहीं परिणमता', यदि ऐसा माना जाये तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है; और इस प्रकार कार्मणवर्गणाएँ कर्मभावसे नहीं परिणमती होनेसे संसारका अभाव ( सदा शिवबाद ) सिद्ध होता है अथवा सारख्यमतका प्रसंग आता है १११६-११७) १५. एकको दूसरेका कर्ता कहनेवाले सर्वज्ञके मतसे
बाहर हैं स.सा /आ./८५ वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथाव्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायो प्रसजन्त्यां मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमत' स्यात् । = इस प्रकार वस्तु स्थितिसे ही, (क्रिया और कर्ताको अभिन्नता) सदा प्रगट होनेसे, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसीका अनुभव करता है। उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मको भी करे और भाव्यभाव
४. निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भावका समन्वय १. व्यवहारसे ही निमित्तको कर्ता कहा जाता है निश्चयसे नहीं स.सा/आ./३५५ क २१४ यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः, किंचनापि परिणामिन. स्वयम् । व्यावहारिकदशैव तन्मतं, नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।२१४। - एक वस्तु स्वयं परिणमित होतो हुई अन्य वस्तुका कुछ भी कर सकती है ऐसा जो माना जाता है, सो व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है। निश्चयसे इस लोकमे अन्यवस्तुको अन्यवस्तु कुछ भी नहीं है। २. व्यवहारसे ही कर्ता कर्म भिन्न दिखते हैं निश्चयसे दोनों अभिन्न हैं स.सा /आ./३४८ क २१० व्यावहारिकदृशैव केवलं, कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते; कर्तृ कर्म च सदै कमिष्यते १२१०। केवल व्यावहारिक दृष्टिसे ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते है, यदि निश्चयसे वस्तुका विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है। ३. निश्चयसे अपने परिणामोंका कर्ता है पर निमित्तको अपेक्षा परपदार्थों का भी कहा जाता है स सा./मू./३५६-३६५ जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ। तह जाणओ दुण परस्स जाणओ जाणओ सो दु ।३६६। एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं णाणदंसणचरित्ते । सुणु वबहारणयस्स य बत्तब्ब से समासेण ।३६०। जह परदव सेडयदि ह से डिया अप्पणो सहावेण । तह परदव्वं जाणइ गाया वि सयेण भावेण ।३६११ एवं बबहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते । भणिओ अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णायव्वा ।३६५१-जैसे खडिया पर (दीवाल आदि ) को नही है, खडिया तो खडिया है, उसी प्रकार ज्ञायक (आत्मा) परका नही है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है ।३५६। क्योंकि जो जिस का होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान आत्मा ही है ( आ ख्याति टीका)। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें निश्चयका कथन है । अब उस सम्बन्धमें संक्षेपसे व्यवहार नयका कथन सुनो ।३६०। जैसे खडिया अपने स्वभावसे (दीवाल आदि ) परद्रव्यको सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभावसे परद्रव्यको जानता है ।३६१। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें व्यवहारनयका निर्णय कहा है। अन्य पर्यायों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।३६॥ (यहाँ तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टिमें वस्तुस्वभावपर ही लक्ष्य होनेके कारण तहाँ गुणगुणी अभेदकी भॉति कर्ता कर्म भावमे भी परिणाम परिणामी रूपसे अभेद देखा जाता है। और व्यवहार दृष्टि में भेद व निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धपर लक्ष्य होनेके कारण तहाँ गुण-गुणी भेद की भॉति कर्ता-कर्म भाबमें भी
भेद देखा जाता है। ) (स.सा./२२ को प्रक्षेपक गाथा) पं.का./ता.वृ./२६/५४/१८ यथा निश्चयेन पुद्गलपिण्डोपादानकारणेन समुत्पन्नोऽपि घटः व्यवहारेण कुम्भकारनिमित्तेनोत्पन्नत्वाकुम्भकारेण कृत इति भण्यते तथा समयादिव्यवहारकालो...। जिस प्रकार निश्चयसे पुदगलपिण्डरूप उपादानकारणसे उत्पन्न हुआ भी घट व्यवहारसे कुम्हारके निमित्तसे उत्पन्न होनेके कारण कुम्हारके द्वारा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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