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कर्ता
३. निश्चय व्यवहार की कर्म भावकी कथंचित्""
मानता है वही
मारते है,
स सा /आ/३५५ ततो निमित्तने मित्तिकभावमात्रेणेव तेत्र कतृ कर्म
भोक्तृभोग्यव्यवहार । • मला इसलिए निमित्तने मित्तिक भावमात्रसे ही बहाँ कतृ कम और भोक्तृभोग्यका व्यवहार है। प्र.सा./त.प्र./१२१ तयारमा चात्मपरिणाम कतृत्वाद् दव्यकर्मकर्ताप्युप
चाराव। आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होनेसे द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचारसे है। प्र.सा./११८/प, जयचन्द "कर्म जीवके स्वभावका पराभव करता है ऐसा कहना सो तो उपचार कथन है ।
५. एकको दूसरेका का कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है स.सि //२२/२६१/७ यद्य व कालस्य क्रियावत्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति । नैष दोषः, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकतृ व्यपदेशो दृष्ट । यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति । एवं कालस्य हेतुकतृ'ता। प्रश्न-यदि ऐसा है (अर्थाद द्रव्योकी पर्याय बदलनेवाला है) तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है। जैसे शिष्य पढता है और उपाध्याय पढाता है. यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है । उत्तर-यह कोई दाष नहीं है, क्योकि निमित्तमात्रमे भी हेतुकारूप व्यपदेश देखा जाता है जैसे कण्डेको अग्नि पढाती है। यहाँ कण्डेकी अग्नि निमित्तमात्र है। उसी प्रकार काल भो हेतुकर्ता है। रा. वा./१/६/११/४६/३२ लोके हि करणत्वेन प्रसिद्धरयासे, तत्पशसापरायामभिधानप्रवृतौ समीक्षिताय तेक्ष्यगौरबकाठिन्याहितविशेषोऽयमेव छिनत्ति' इति कतृ धर्माध्यारोप. क्रियते। -करणरूपसे प्रसिद्ध तलवार आदिको तोश्णता आदि गुगोको प्रशसामे 'तलबारने छेद दिया' इस प्रकारका कतृ स्वधर्म का अध्यारोपण करके कतृ साधन प्रयोग होता है। स.सा /आ./८४ कुलाल. कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादि
रूढाऽस्ति त बयवहारः" कुम्हार धडे का कर्ता है और भाक्ता है ऐसा लोगोंका अनादिसे रूढ़ व्यवहार है।
१०. वास्तनमें एकको दूसरेका कर्ता कहना असत्य है स.सा./मू./११६ वह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गल दव्यं ।
जोवा परिणामभदे कम्म कामत्तमिदि मिच्छा ।११। - अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाबसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो 'जोव कर्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है। प्र.सा./१६/प, जयचन्द क्यो कि वास्तवमे कोई द्रव्य किसो द्रव्यका कर्ता
व हर्ता नहीं है, इसलिए व्यवहारकारक असत्य है, अग्नेको आप ही कर्ता है इसलिए निश्चयकारक सत्य है।
११. एकको दूसरेका कर्ता माननेमे अनेक दोष आते हैं यो.सा./अ./२/३० एवं सपद्यते दोष सर्वथापि दुरुनर' । चेतनाचेतनद्रव्यविशेषाभावलवण. (३० = यदि कर्मको चेतनका और चेतनको कर्मका कर्ता माना जाये तो दोनो एक दूसरे के उपादान बन जानेके कारण (२७-२६), कौन चेतन और कौन अचेतन यह बात हो सिद्ध
न हो सकेगी।३० स.सा./आ/३२ यो हि नाम फनदानसमर्थतया प्रादुर्भुय भावकत्वेन
भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तरात्मनो भाव्यस्य व्यावत नेन हठान्माह न्यकृत्योपरत समस्तभाव्यभावकसकरदोपत्वेन टोत्कीर्ण आत्मान संचेतयते स खलु जितमोहो । महकर्म फल देनेकी सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपनेसे प्रगा हाता है, तथापि तदनुसार जिपको प्रवृत्ति है ऐसा जा आता आरमा-भाव्य, उसको भेदज्ञानके
बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे इस प्रकार बलपूर्वक मोहका तिररकार करके, समस्त भाव्यभावक स करदोष दूर हो जानेसे एकत्व मे टंकोत्कीर्ण अपने आत्माको जो अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितमोह है। पं.का./ता.वृ/२४/५१/५ अन्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कतु नायाति
संकर व्यतिकरदोषप्राप्ते । -अन्य द्रव्यके गुण अन्य द्रव्यके कर्ता नही हो सकते, क्योकि ऐसा माननेसे संकर व्यतिकर दोषोकी प्राप्ति होती है। पं.ध/पू /५७३ ५७४ नाभासत्वमसिद्ध स्यादपसिद्धान्तो नयस्यास्य । सदनेकरबे सति किल गुणसंक्रान्ति कुत प्रमाणाद्वा १२७३ गुणसंक्रान्तिमृते यदि कर्ता स्पा कर्मणश्च भोक्तात्मा। सर्वस्य सर्वस करदाष स्यात् सर्वशून्यदोषश्च १२७४१ =अपसिद्धान्त होनेसे इस नयको (कर्म , नोकर्मका व्यबहारसे जीव कर्ता व भोक्ता है) नयाभासपना असिद्ध नहीं है क्योकि सत्को अनेकत्व होनेपर और जीव ओर कर्मकि भिन्न-भिन्न होनेपर निश्चयसे किस प्रमाणसे गुण संक्रमण होगा ।५७३। और यदि गुणसक्रमणके बिना ही जीव कर्माका कर्ता तथा भाक्ता होगा तो सम पदार्थोमें सर्वसकरदोष और सर्वशून्यदोष हो जायेगा ।५७४। १२. एकको दूसरेका कर्ता माने सो अज्ञानी हैस.सा./मू./२४७,२५३ जो मण्णदि हिसामि य हिसिज्जामि य परेहि सत्तेहि । सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।२४७। जो अप्पणा दु मण्णदि दुश्विदमुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो ।२५३। =जो यह मानता है में पर जीवोको मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते है, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत ज्ञानी है ।२४७१ जो यह मानता है कि अपने द्वारा मै जीवोंको दुखी सुखो करता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरोत है वह ज्ञानी है ।२५३। । स सा /आ/७१/क ५० अज्ञानारकत कर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् । विज्ञानाचिश्च कति क्रकचत्रदयं भेदमुत्पाद्य सद्य. १५० 'जीव पुदगलके कर्ताकर्म भाव है' ऐसी भ्रमबुद्धि अज्ञानके कारण यहाँ तक भासित होतो है कि जहाँ तक विज्ञानज्योति करवतकी भॉति निर्दयतासे जीव पुद्गलका तत्काल भेद उत्पन्न करके प्रकाशित नही होती। स.सा./आ/१७/क ६२ आरमा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम् ।
परभाषस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम १६२ - आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञानके अतिरिक्त अन्य क्या करे ।
आत्मा कर्ता, ऐसा मानना सो व्यवहारी जीवोंका मोह है। स.सा./आ./३२०/क १६६से तु करिमारमान पश्यन्ति तमसा तताः । सामान्यजनबत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् । १६६। म जो अज्ञानांधकारमे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते है वे भले ही मोक्षके इच्छुक हो तभापि सामान्य जनोकी भाँति उनकी भी मुक्ति नहीं है तो १६ स सा /आ/१११ अथा तक ----पुद्गलमप्रमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीव स्वयमेव मिथ्याष्टिभूया पुद्गलकर्म करोति । स किलाविवेका यतो न खल्वारमा भापभात्र कभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादिवेदकोsपि कयं पुन पुद्गलकमंग कर्ता नाम । प्रश्न-पुद्गलमय मिथ्यात्वादि कर्मोको भागता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कम को करता है 1 -- उत्तर-यह तर्क वास्तवमे अविवेक है, क्योकि भावभावकभावका अभाव होनेसे आ मा निश्चयसे पुद्गलद्रव्यमय मिथ्वात्यादिका भोक्ता भी नहीं है, तब फिर पुद्गल कर्मका कर्ता कैसे हो सकता है ?
रात ज्ञानी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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