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कर्ता
५. निमित्त भी द्रव्यरूपसे तो कर्ता है ही नहीं पर्याय रूपसे हो तो हो
स सा./आ./१०० यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गाद् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यो योगयागावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारो । वास्तवमे जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्य स्वरूप कर्म है उन्हे आत्मा (द्रव्य ) व्याप्यव्यापकभावसे नही करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयताका प्रसंग आ जावे, तथा वह निमित्त नैमित्तिक भावसे भी (उनको) नही करता, क्योंकि, यदि ऐसा करे तो सर्व अवस्थाओं में कतु त्व होनेका) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य ( जो सर्व अवस्थाओमे व्याप्त नही होते ऐसे ) योग और उपयोग हो निमित्त रूप से उसके (परद्रव्यस्वरूप कर्म के) कर्ता है। (पं. ध /उ. / २०७३)
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प्र. सा /त प्र / १६२ न चापि तस्य कारणद्वारेण कतृ ' द्वारेण कर्तृ प्रयोजकद्वारेण कर्त्रतुमन्तृवारेण या शरीरस्य कर्ताहमस्मि मम अनेक परमाणु पिण्डपरिणामात्मकशरीरकतु स्वस्य सर्वधा विरोधात उस शरीर के कारण द्वारा या कर्ता द्वारा या कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता अनुमोदक द्वारा शरीरका कर्ता मै नहीं हूँ क्योंकि मेरे अनेक परमाणु द्रव्योके एक पिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीरका कर्ता होने में सर्वथा विरोध है ।
६. निमित्त किसीके परिणामों के उत्पादक नहीं हैं रा.वा./१/२/११/२०१५ स्पावेत-स्वपरनिमित्त उत्पादो दृष्टो
किं कारणम् । उपकरणमात्रत्वात् । उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम् । = प्रश्न- उत्पत्तिस्त्र व पर निमित्तोसे होती देखी जाती है, जैसे कि मिट्टी व दण्डादिसे पडेकी उत्पत्ति उत्तर-नहीं, क्योंकि निमित्त तो उपकरण मात्र होते हैं अर्थात् केवल बाह्य साधन होते है । ( अत. सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिने आत्मपरिगमन ही मुख्य है निमित्त नहीं ) स.सा./अ./३०२ एवं च सति सर्वथा न निमितान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव । ऐसा होनेपर, सब द्रव्योंके, निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने ( अर्थात उन सर्वद्रव्योके) परिणामोके उत्पादक हैं। ही नहीं।
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प्र.सा./त प्र. / १८५ यो हि यस्य परिणमयिता दृष्ट स न तदुत्पादहानशून्यो दृष्ट, यथाग्निरय पिण्डस्य । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् । जो जिसका परिणमन करानेवाला देखा जाता है वह उसके प्रत्यागसे रहित नहीं देखा जाता; जैसे अग्नि लोके गोले ग्रहण त्याग रहित है इसलिए वह (आत्मा) लोका कर्मभावसे परिमित करनेवाला नहीं है। पं.प./२५४-२५५ अर्धा स्पर्शादिय स्वरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चैव घटादी ज्ञानशून्ये च तत्कि नोत्पादयन्ति ते । ३५४ | अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्योत्पादका' कचित् । चेतनत्वात्स्वयं तस्य कि तत्रोत्पादयन्ति वा ३५५१ = यदि रपर्शादिक विषय स्वतन्त्र बिना आत्माके ज्ञान उत्पन्न करते हते तो वे ज्ञानशून्य घटादिको में भी वह ज्ञान क्यों उत्पन्न नही करते है | ३५४ | और यदि यह कहा जाय कि चेतन द्रव्य में कहीं पर ये ज्ञानको उत्पन्न करते है, तो उस आत्माके, स्वयं चेतन होनेके कारण, वहाँ वे नवीन क्या उसन्न करेगे ।
७. स्वयं परिणमनेवाले इभ्यको निमित्त बेचारा क्या परिणमावे
स.सा./११६] विपरिणममानं परिणममा पागलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत् । न तावनत्यमपरिणममानं परेण परिणमवित पार्मे न हि शक्तिपाते।
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२.निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भावकी कथंचित्"""
स्वयं परिणममानं तु न पर परिणमयितारमपेक्षेत न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । तत पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेवास्तु | = क्या जीव स्वयं न परिणमते हुए पुद्गलद्रव्यको कर्मभावरूपसे परिणामाता है या स्वयं परिणमते हुए को स्वयं अपरिणमते हुएको दूसरे द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति ( वस्तुमे ) स्वयं न हो उसे अन्य कोई नही उत्पन्न कर सकता । और स्वयं परिणमते हुएको अन्य परिणमानेवालेकी अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तुकी शक्तियों परकी अपेक्षा नही रखती। अत पुद्गल द्रव्य परिणमनस्वभावाला स्वयं हो (पं.ध../६२) ( (स्या.म /५/३०/११)
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१/१.१.१.१६३/४०३/१)
प्र.सा./त.प्र./६७ एवमस्यात्मन' संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य मुखसाधनधिया अनुधैर्मुपाध्यास्यमाना अपि विषया कि हि नाम कुर्युः । यद्यपि अज्ञानी जन 'विषय सुख के साधन है' ऐसी बुद्धिके द्वारा व्यर्थ ही विषयोंका अध्यास आश्रय करते हैं, तथापि संसार में या मुक्तिमें स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्माका विषय क्या कर सकते है। (पं. ध. /उ / ३५३)
पका /त.प्र / ६२ स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकातरमपेक्षते । स्वयमेव षट्कारको रूप वर्तता हुआ या ( जोव ) अन्य कारककी अपेक्षा नहीं रखता।
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पं. ध. / पू. / ५७१ अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथः । न यतः स्वतो स्वयं वा परिणममानस्य कि निमित्ततया । यदि कदाचिद यह कहा जाये कि इन दोनों ( आत्मा व शरीरमे ) परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना अवश्य है तो इस प्रकारका कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अथवा स्वतः परिणममान वस्तुके निमित्तकारणसे क्या प्रयोजन है ।
८. एकको दूसरेका कर्ता कहना व्यवहार व उपचार परमार्थ नहीं
स.सा./मू./१०५-१०७ जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं । जीवेग क क] यदि उवयारमण | १०३ जु
राएण कर्दति जंपदे लोगो । ववहारेण तह कद णाणावरणादि जीवेण | १०६ । उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्य ॥१०७॥ = जीव निमित्तभूत होनेपर कर्मबन्धका परिणाम होता हुआ देखकर 'जीवने कर्म किया' इस प्रकार उपचारमात्रसे कहा जाता है । १०८ । योद्धाओके द्वारा युद्ध किये जानेपर राजाने युद्ध किया इस प्रकार लोक व्यवहारसे) कहते है। उसी प्रकार 'ज्ञानावरणादि कर्म जीवने किया ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है । १०६ । "आत्मा पुइगल द्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है - यह व्यवहार नयका कथन है ।
सा.आ./१०५ पौगलिकर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मनादेरज्ञानातनिमित्तभूतेनाहानभावेन परिणममीभूते सति संपद्यमनस्वात् पौगलिक कमरमा कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प । स तूपचार एव न तु परमार्थ । इस लोकमे वास्तव में आत्मा स्वभाव से पौगलिक कर्मका निमित्तभूत न होनेपर भी, अनादि अज्ञानके कारण पौगलिक कर्मको निमित्तरूप होते हुए अज्ञानमाचमे परिणमता होनेसे निमित होनेपर पोसिक धर्म उत्पन्न होता है. इसलिए 'पौसिक धर्म आरमाने किया ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन्ते भ्रष्ट विकल्पपरायण अज्ञानियोका विकल्प है: वह विकल्प उपचार ही है. परमार्थ नहीं ।
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