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धर्म
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४. व्यवहार धर्मकी कथंचित् गौणता
३. एक शुद्धोपयोगमें धर्मके सब लक्षण गर्मित हैं
प.प्र./टी./२/६/१०/८ धर्मशब्देनात्र निश्चयेन जीवस्य शुद्धपरिणाम
एव ग्राह्य । तस्य तु मध्ये वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन सर्वे धर्मा अन्तर्भूता लभ्यन्ते। यथा अहिसालक्षणो धर्मः सोऽपि जीवशुद्धभाव विना न संभवति। सागारानगारलक्षणो धर्मः सोऽपि तथैव । उत्तमक्षमादिदश विधो धर्म, सोऽपि जीवशुद्धभावमपेक्षते। 'सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः' इत्युक्तं यद्धर्मलक्षणं तदपि तथैव। रागद्वेषमोहरहित परिणामो धर्म सोऽपि जीवशुद्धस्वभाव एव । वस्तुस्वभावो धर्म सोऽपि तथैव । .. अत्राह शिष्य। पूर्वसूत्रे भणित शुद्धोपयोगमध्ये संयमादय सर्वे गुणाः लभ्यन्ते। अतएव तु भणितमात्मन, शुद्धपरिणाम एव धर्मः, तत्र सर्वे धर्माश्च लभ्यन्ते । को विशेष । परिहारमाह । तत्र शुद्धोपयोगसंज्ञा मुख्या, अत्र तु धर्मसंज्ञा मुख्या एतावान् विशेषः । तात्पर्य तदेव। -यहाँ धर्म शब्दसे निश्चयसे जीवके शुद्धपरिणाम ग्रहण करने चाहिए। उसमें ही नयविभागरूपसे वीतरागसर्वज्ञप्रणीत सर्व धर्म अन्तर्भूत हो जाते है। वह ऐसे कि-१. अहिंसा लक्षण धर्म है सो जोवके शुद्धभावके बिना सम्भव नही। (दे० अहिसा/२/१)। २. सागार अनगार लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। ३. उत्तमक्षमादि दशप्रकारके लक्षणवाला धर्म भी जीवके शुद्धभावकी अपेक्षा करता है। ४. रत्नत्रय लक्षणवाला धर्म भी वैसा ही है। ५. रागद्वेषमोहके अभावरूप लक्षणवाला धर्म भी जीवका शुद्ध स्वभाव ही बताता है। और ६. वस्तुस्वभाव लक्षणवाला धर्म भी बैसा ही है। प्रश्न-पहले सूत्र में तो शुद्धोपयोगमें सर्व गुण प्राप्त होते हैं, ऐसा बताया गया है, (दे० धर्म/३/७)। और यहाँ आत्माके शुद्ध परिणामको धर्म बताकर उसमें सर्व धर्मोकी प्राप्ति कही गयी। इन दोनों में क्या विशेष है। उत्तर-वहाँ शुद्धोपयोग संज्ञा मुख्य थी और यहाँ धर्म संज्ञा मुख्य है। इतना ही इन दोनों में विशेष है। तात्पर्य एक ही है। (प्र.सा./ता.व./११/१६) (और भी दे० आगे धर्म/३/७)
बाह्यपरिग्रहका त्याग, गिरि-नदी-गुफामे बसना, ध्यान, आसन, अध्ययन आदि सन निरर्थक है। (अन.ध./४/२६/८७१) ६. निश्चय रहित व्यवहार धमसे शुद्धास्माकी प्राप्ति नहीं होती स. सा./म./१५६ मोत्तण णिच्छय बबहारेण विदुसा पवति ।
परमठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोडकर विद्वान व्यवहार [ शुभ कर्मों (त.प्र. टीका)] द्वारा प्रवर्तते है किन्तु परमार्थ के आश्रित योगीश्वरोके ही कर्मों का नाश
आगममें कहा है। स.सा./आ./२०४/क १४२ क्लिश्यन्ता स्वयमेव दुष्करतर र्मोक्षोन्मुखैः कर्मभि', किश्यन्तां च परे महावततपोभारेण भग्नाश्चिरम् । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं, ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्त क्षमं ते न हि। -कोई मोक्षसे पराड्मुख हुए दुष्करतर कर्मोके द्वारा स्वयमेव क्लेश पाते हैं तो पाओ और अन्य कोई जीव महावत और तपके भारसे बहुत समय तक भग्न होते हुए क्लेश प्राप्त करें तो करो; जो साक्षात मोक्षस्वरूप है, निरामय पद है और स्वयं संवेद्यमान है. ऐसे इस ज्ञानको ज्ञानगुणके बिना किसी भी प्रकारसे वे प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञा./२२/१४ मनः शुद्धचैव शुद्धि स्यादेहिनां नात्र संशयः । वृथा तद्वश्वतिरेकेण कायस्यैव कदर्थनम् ॥१४॥ =निःसन्देह मनकी शुद्धिसे ही जीवोंकी शुद्धि होती है, मनकी शुद्धिके बिना केवल कायको क्षीण करना वृथा है। ७. निश्चयधर्मका माहात्म्य प.प्र./मू./१/१०४ जइ णिविसद्धु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ ।
अग्गिकणी जिम कट्ठगिरी डहइ असेसु वि पाउ।११४। प.प्र././२/६७ सद्ध: संजमु सील तउ सुद्धहँ दसणु णाणू । सद्ध कम्मरखउ हवइ सुद्धउ तेण पहाणु ।६७१ = जो आधे निमेषमात्र भी कोई परमात्मामें प्रीतिको करे, तो जैसे अग्निकी कणी काठके पहाडको भस्म करती है, उसी तरह सब ही पापोंको भस्म कर डाले ।११४। शुद्धोपयोगियोंके ही संयम. शील और तप होते हैं, शुद्धोंके ही सम्यग्दर्शन और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है, शुद्धोपयोगियोंके ही कर्मोंका नाश होता है, इसलिए शुद्धोपयोग ही जगदमें मुख्य है। यो.सा./यो./६५ सागारु वि णागारु कु वि जो अप्पाणि वसेइ । सो लहू पावइ सिद्धि-सुहु जिणवरु एम भणेइ। -गृहस्थ हो या मुनि हो, जो कोई भी निज आत्मामें बास करता है, वह शीघ्र ही सिद्धिसुखको पाता है, ऐसा जिनभगवान्ने कहा है। न. च. वृ./४१२-४१४ एदेण सयलदोसा जीवाणासं तिरायमादीया । मोत्तण विविहभाव एत्थे विय संठिया सिद्धा । -इस (परम चैतन्य तत्त्वको जानने) से जीव रागादिक सकल दोषों का नाश कर देता है। और विविध विकल्पोंसे मुक्त होकर, यहाँ ही, इस संसारमें ही सिद्धवत रहता है। ज्ञा./२२/२६ अनन्तजन्यजानेककर्मबन्धस्थिति ढा। भावशुद्धि प्रपन्नस्य मुनेः प्रक्षीयते क्षणात । =जो अनन्त जन्मसे उत्पन्न हई दृढ कर्मबन्धकी स्थिति है सो भावशुद्धिको प्राप्त होनेवाले मुनिके क्षणभरमें नष्ट हो जाती है, क्योंकि कर्मक्षय करने में भावोंको शुद्धता ही प्रधान कारण है। ४. व्यवहार धर्मको कथंचित् गौणता
१. व्यवहार धर्म ज्ञानी व अज्ञानी दोनोंको सम्भव है पं.का./त.प्र./१३६ अह रिसद्धादिषु भक्तिः, धर्मे व्यवहारचारित्रानुष्ठाने बासनाप्रधाना चेष्टा,...अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्या
४. निश्चय धर्मकी व्याप्ति व्यवहार धमके साथ है पर व्यवहारकी निश्चयके साथ नहीं भ.आ./मू./१३४६/१३०६ अभंतरसोधीए सुद्ध णियमेण बहिर करणं ।
अभंनरदोसेण हु कुणदि णरो बहिरंगदोस। अभ्यन्तर शुद्धिपर नियमसे बाह्यशुद्धि अवलम्बित है। क्योंकि अभ्यन्तर । मनके) परिणाम निर्मल होनेपर वचन व कायकी प्रवृत्ति भी निर्दोष होती है। ओर अभ्यन्तर (मनके) परिणाम मलिन होने पर वचन व काय
की प्रवृत्ति भी नियमसे सदोष होती है। लि.पा./मू./२ धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि
भावधम्मं किं ते लिगेण कायव्यो ।२। धर्मसे लिंग होता है, पर लिंगमात्रसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती। हे भव्य ! तू भावरूप धर्म
को जान । केवल लिंगसे तुझे क्या प्रयोजन है। (दे० लिंग/२) (भाबलिंग होनेपर द्रव्यलिंग अवश्य होता है पर द्रव्य
लिंग होने पर भावलिग भजितव्य है ) प्र.सा./मू./२४५ समणा सुधुवजुता सहोवजुत्ता य होंति समयम्मि । प्र.सा./त.प्र./२४५ अस्ति तावच्छभोपयोगस्य धर्मेण सहैकार्थसमवायः ।
शास्त्रो मे ऐसा कहा है कि जो शुद्धोपयोगी श्रमण होते हैं वे शुभोपयोगी भी होते हैं। इसलिए शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थ समवाय है।
५ निश्चय रहित व्यवहार धर्म वृथा है भा.पा./मू./ बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो । सयलो णाणज्मपणो णिरत्यओ भावरहियाण 1८६) =भावरहित व्यक्तिके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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