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कषाय
४. कषायों के रागद्वेषादिमें अन्तर्भाव
५. कषायोंकी तीव्रता मन्दताका सम्बन्ध लेश्याओंसे है। अनन्तानुबन्धी आदि अवस्थाओंसे नहीं
ध./१/१, १, १३६/३८८।३ षड् विधः कषायोदयः। तद्यथा तीवतमः, तीवतरः, तीवः, मन्द', मन्दतरः, मन्दतम इति । एतेभ्यः षड्म्यः कषायोदयेभ्यः परिपाट्या षट् लेश्या भवन्ति । कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर और मन्दतम। इन छह प्रकारके कषायके उदयसे उत्पन्न हुई परिपाटीक्रमसे लेश्या भी छह हो जाती हैं। यो. मा. प्र./२/५७/२० अनादि संसार-अवस्थाविधै इनि च्यार ही कषायनिका निरन्तर उदय पाइये है । परमकृष्णलेश्यारूप तीव्र कषाय होय तहाँ भी अर परम शुक्ललेश्यारूप मन्दकषाय होय तहाँ भी निरन्तर च्यारचौं होका उदय रहै है। जातै तीव मन्दकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेद नहीं है, सम्यक्त्वादि घातनेकी अपेक्षा ये भेद हैं । इनिही (क्रोधादिक ) प्रकृतिनिका तीव्र अनुभाग उदय होते तीव क्रोधादिक हो है और मन्द अनुभाग उदय होत मन्द क्रोधादिक हो है।
दोष है, माया पैज्ज है और लोभ पेज है। (सूत्र) क्रोध दोष है; क्योंकि क्रोधके करने से शरीरमें सन्ताप होता है, शरीर काँपने लगता है..... आदि..... माता-पिता तकको मार डालता है और क्रोध सकल अनर्थोंका कारण है। मान दोष है; क्योंकि वह क्रोधके अनन्तर उत्पन्न होता है और क्रोधके विषयमें कहे गये समस्त दोषोंका कारण है। माया पेज्ज है; क्योंकि, उसका आलम्बन प्रिय वस्तु है, तथा अपनी निष्पत्तिके अनन्तर सन्तोष उत्पन्न करती है। लोभ पेज है; क्योंकि वह प्रसन्नताका कारण है। प्रश्न--क्रोध, मान, माया और लोभ .ये चारों दोष हैं, क्योंकि वे स्वयं आस्रव रूप हैं या आसबके कारण हैं। उत्तर-यह कहना ठीक है, किन्तु यहाँ पर, कौन कषाय आनन्दकी कारण है और कौन आनन्दकी कारण नहीं है इतने मात्रकी विवक्षा है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। अथवा प्रेममें दोषपना पाया ही जाता है अत' माया और लोभ प्रेम अर्थात् पेज है। अरति, शोक, भय और जुगुप्सा दोष रूप हैं; क्योंकि ये सब क्रोधके समान अशुभके कारण हैं। हास्य, रति, खौवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद पेजरूप हैं, क्योंकि ये सब लोभके समान रागके कारण हैं।
३. व्यवहारनयकी अपेक्षामें युक्ति
४. कषायोंका रागद्वेषादिमें अन्तर्भाव १. नयोंकी अपेक्षा अन्तर्भाव निर्देश क. पा./२/१, २१/चूर्ण सूत्र व टोका/8३३५-३४१ । ३६५-३६६--
शब्द
द्वेष
नय कषाय नैगम संग्रह व्यवहार
ऋजु सू क्रोध मान माया लोभ
राग
कथं चिराग हास्य-रति अरति-शोक भय-जुगुप्सा स्त्री-पु.वेद | राग नपुंसक वेद
(ध. १२/४, २,८,८/२८३/८) (स सा./ता. वृ. २८१/३६१) (पं.का./ता.वृ./१४८/२१४) (द्र.सं./टी./४८/२०/8)
क. पा./१/चूर्णसूत्र व टो/१-२१/३३७-३३८/३६७ ववहारणयस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो पेज्ज (सू.) क्रोध-मानौ दोष इति न्याय्य तत्र लोके दोषव्यवहारदर्शनाव, न माया तत्र तद्वयवहारानुपलम्भादिति; न; मायायामपि अप्रत्ययहेतुत्व-लोकगहितत्वयोरुपलम्भाव। न च लोकनिन्दितं प्रियं भवति; सर्वदा निन्दातो दुखोत्पत्ते. (३३८)। लोहो पेज लोभेन रक्षितद्रव्यस्य सुखेन जीवनोपलम्भात् । इत्थिपुरिसवेया पेज्ज सेसणोकसाया दोसो; तहा लोए संववहारदसणादो। -व्यवहारनयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ पैज है । (सूत्र)। प्रश्न-क्रोध और मान द्वेष हैं यह कहना तो युक्त है, क्योंकि लोकमें क्रोध और मानमें दोषका व्यवहार देखा जाता है। परन्तु मायाको दोष कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मायामें दोषका व्यवहार नहीं देखा जाता ! उत्तर-नहीं, क्योंकि, मायामें भी अविश्वासका कारणपना और लोकनिन्दितपना देखा जाता है और जो वस्तु लोकनिन्दित होती है वह प्रिय नहीं हो सकती है; क्योंकि, निन्दासे हमेशा दुख उत्पन्न होता है। लोभ पेज है, क्योंकि लोभके द्वारा बचाये हुए द्रव्यसे जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता हुआ पाया जाता है। स्त्रीवेद और पुरुषवेद पेज्ज हैं और शेष नोकषाय दोष हैं क्योंकि लोकमें इनके बारेमें इसी प्रकारका व्यवहार देखा जाता है ।
राग
१. नैगम व संग्रह नोंकी अपेक्षामें युक्ति क. पा./१/चूर्णसूत्र व टी /१-२६/६३३५-३३६/३६५ णेगमसंगहाणं कोहो दोसो, माणो दोसो, माया पेज्जं, लोहो पेज्जं । (चूर्णसूत्र ) । ...... कोहो दोसो; अगसन्तापकम्प......पितृमात्रादिप्राणिमारणहेतुत्वात्, सकलानर्थ निबन्धनत्वात्। माणो दोसो क्रोधपृष्ठभावित्वात्, क्रोधोताशेषदोषनिबन्धनत्वात् । माया पेज्ज प्रेयोवस्त्वालम्बनत्वाद, स्व. निष्पत्त्युत्तरकाले मनस' सन्तोषोत्पादकत्वात् । लोहो पेज्जं आजादनहेतुत्वात् ( $३३५)। क्रोध-मान-माया-लोभा' दोषः आस्रवत्वादिति चेद: सत्यमेतत; किन्त्वत्र आह्लादनानाहादनहेतुमात्रं विवक्षित तेन नायं दोषः । प्रेयसि प्रविष्टदोषत्वाद्वा भाया-लोभौ प्रेयान्सौ। अरइ-सोय-भय-दुगुछाओ. दोसो; कोहोव्व असुहकारणत्तादो। हस्स-रह-इस्थि-पुरिस-णवु'सयसेया पेज्जं लोहो ब्व रायकारणत्तादो (१३३६)। -नैगम और संग्रहनयको अपेक्षा क्रोध दोष है, मान
४. ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षामें युक्ति क. पा. १/१-२१/चूर्ण सूत्र व टी./8 ३३६-२४०/३६८ उजुसुदस्स कोहो दोसो, माणो णोदोसो णोपेज्ज, माया णोदोसो णोपेज्ज, लोहो पेज्ज (चूर्ण सूत्र )। कोहो दोसो त्ति णडबदे; सयलाणत्थहेउत्तादो। लोहो पेज्जं त्ति एवं पि सुगम, तत्तो......किंतु माण-मायाओ णोदोसो णोपेज्ज त्ति एवं ण णव्वदे पेज-दोसवज्जियस्स कसायस्स अणुवलंभादो त्ति (३३१) । एत्थ परिहारो उच्चदे, माणमाया णोदोसो; अंगसंताबाईणमकारण दो। तत्तो समुप्पज्जमाणअंगसंतावादओ दीसंति ति ण पच्चवट्ठादु' जुत्त; माणणिबंधणकोहादो मायाणिबंधणलोहादो च समुप्पज्जमाणाणं तेसिमुवलंभादो।......ण च बे वि पेज्जं; तत्तो समुप्पज्जमाणआह्वादाणुवलंभादो। तम्हा माण-माया बे वि णोदोसो णोपेज्जति जुज्जदे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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