________________
दिव्यध्वनि
४३३
दिशा
भाषाओमे कुशल समवसरणमे स्थित जन मात्ररूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषासे हम हमको ही कहते है' इस प्रकार सबको विश्वास करानेवाले, तथा समवशरणस्थ जनोके कर्ण इन्द्रियोगे अपने महसे निकली हुई अनेक भाषाओके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारक ऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता है। (वास्तवमे गणधर देव ही जनताको उपदेश
१३. देव उस सर्व भाषा रूप परिणमाते हैं द.पा/टो /३५/२८/१३ कथमेवं देवोपनीतत्वमिति चेत् । मागधदेवसं नि
धाने तथा परिणामतया भाषया संस्कृतभाषया प्रवर्तते। = प्रश्नयह देवोपनीत कैसे है . उत्तर-यह देवोपनीत इसलिए है कि मागध देवोके निमित्तसे सस्कृत रूप परिणत हो जाती है। (कि /टी./३-१६/२४८/३) १४. यदि अक्षरात्मक है तो ध्वनि रूप क्यों कहते हैं ध.१/१,१,५०/२८४/३ तथा च कथं तस्य ध्वनित्वमिति चेन्न, एतद्भाषा
रूपमेवेति निर्देष्टुमशक्यत्वत. तस्य ध्वनिस्व सिद्धे । प्रश्नजब कि वह अनेक भाषा रूप है तो उसे ध्वनि रूप कैसे माना जा सकता है। उत्तर--नहीं, केवलोके वचन इसो भाषा रूप ही है, ऐसा निर्देश नहीं किया जा सकता है, इसलिए उनके बचन ध्वनिरूप है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
* गणधर द्विमाषियेके रूपमें काम करते हैं
-दे० दिव्यध्वनि /२/१५ दिव्ययोजन-क्षेत्रदा प्रमाण विशेष-दे० गणित/११ । दिव्यलक्षण पंक्ति व्रत-पाक्तिकता। दिव्यायध-विजया की दविण श्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर । दिश संस्थित-एक ग्रह-दे० ग्रह ।
१५. अनक्षरात्मक है तो अर्थ प्ररूपक कैसे हो सकती है। दिशा--१. दिशाका लक्षण ध.६/४,१,४४/१२६/८ वयणेण विणा अत्यपदुप्पायणं ण संभवड़, सुहम
भ. आ./वि./५/१६६/३ दिमा परलोबादिगुपदर्शपर' सूरिणा स्थापितः अत्याणं सण्णाए परूषणाणुववत्तोदो ण चाणक्रवराए झुणीए अत्यण्दु
भवतां दिशं मोवर्तन्याचप्रमादिशति य सुरिः स दिशा इत्युच्यते। पायणं जुज्जदे, अगरवरभासतिरिक्खे मोत्तणण्णेसि तत्तो अत्याव
-दिशा अर्थात् आचार्य ने अपने स्थान पर स्थापित किया हुआ शिष्य गमाभावादो। ण च दिव्यज्झुगी अगरवर पिया चेत्र, अट्ठारस
जो परलोकका उपदेश करके मोक्षमार्गमे भव्योको स्थिर करता है। सत्तसयभास-कुभासप्पियत्तादो। तेसिमणेयाण बोजपदाण दुवाल- स घाधिपति आचार्यने यावज्जोव आचार्य पदवीका त्याग करके अपने संगप्पयाण महारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ अस्थकत्तार- पदपर स्थापा हुआ और आचार्यके समान जिसका गुणसमुदाय है णाम, बोजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवाल-संगाणं कारओ, गणहर
ऐसा जो उनका शिष्य उनको दिशा अर्थात् बालाचार्य कहते है। भडार ओ गंथकत्तारओ त्ति अभुगमादो। -प्रश्न-वचनके बिना
दिशा-१.दिशा व विदिशाका लक्षण अर्थका व्यापान सम्भव नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पदार्थोकी सज्ञा अर्थात संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाय कि अनक्षरा- स, सि11/2/२६६/१० आदित्योदयाद्यपे-या आकाशप्रदेशपक्तिषु त्मक ध्वनि द्वारा अर्थ की प्ररूपणा हो सकती है, सो भी योग्य नहीं इत इदमित व्यवहारोपपत्ते'।-सूर्य के उदयादिककी अपेक्षा आकाशहै। क्योंकि, अनार भाषायुक्त तियंचोको छ।डकर अन्य जीवोको प्रदेश पक्तियों में यहाँसे यह दिशा है इस प्रकारके व्यवहारकी उसगे अर्थ ज्ञान नही हो सकता है। और दिव्य-अनि अनक्षगत्मक उत्पत्ति होती है। ही हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि वह अठारह भाषा व सात सौ
ध. ४/५,४,४२/२६६/४ सगट्ठाण दो कडज्जुवा दिसा णाम ।। ताओ कुभाषा स्वरूप है। उत्तर --अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप छच्चेव, अपणे मिमसभवाद।।.. सगठाणादो कण्णायारेण दिखेतं द्वादशांगात्मक उन अनेक बीज पदोंका प्ररूपक अर्थकर्ता है । विदिसा ।= अपने स्थानसे बाणकी तरह सीधे क्षेत्रका दिशा व हते तथा योज पदोमें लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगोके क्र्ता गणधर
है। ये दिशाएँ यह हो होती है, क्योंकि अन्य दिशाओका होना भट्टारक ग्रन्थकर्ता है, ऐसा स्वीकार किया गया है। अभिप्राय यह
असम्भव है...अपने स्थानसे वर्ण रेखाके आकारसे स्थित क्षेत्रको है कि बोजपदोंका जो व्यारव्याता है वह ग्रन्यकर्ता कहलाता है।
विदिश कहते है(और भो दे० वक्ता/३) ध.६/४,१,७/५८/१०ण बोजबुद्धीये अभावो, ताए विणा अवगयतित्थयर
२. दिशा विदिशाओं के नाम व क्रम बयण विणिग्गयअक्रवराणक्खरप्पयबहूलिगयबीजपदाण गणहरदेवाण दुवालसंगा भावप्पसंगादो ।= बीजबुद्धिका अभाव नही हो सकता क्योंकि उसके बिना गणधर देवोका तीर्थकरके मुम्बसे निकले हुए अक्षर और अनक्षर स्वरूप बोजपदोका ज्ञान न होनेसे द्वादशागके अभावका प्रसंग आयेगा। १६. एक ही भापा सर्व श्रोताओंकी मापा कैसे बन सकती है
पश्चिम दिशा
पूर्व दिशा ध.१/४,१,४४/१२८/६ परोवदे सेण विणा अबवरणकावरसरुवासेसभासंतरकुसल) समवसरणजण मेत्तस्त्रधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सम्वेसि पच्चउपायओ समवसरणजणसोदिदिए सगमुहविणिग्गयाणेयभासाण संकरेण पवेसरस
दक्षिण विणियारओ गणहरदेवो गंथकतारो। -प्रश्न-एक ही बीजपद
दिशा रूप भाषा सर्व जोषो को उन उनकी भाषा रूपसे ग्रहण होनी कैसे सम्भव है। उत्तर-परोपदेशके बिना अर व अनदर रूप सब
वायव्य वि.
७.अन्तर्दिशा
दिशा
६अन्तर्दिशा
१८अन्तर्दिशा
ईशान.वि.
१अन्तर्दिश
+२अन्तर्दिशा आग्नेय विदिशा
५अन्तर्दिशा
४अन्तर्दिशा
नैऋत्य विदिशा
३ अन्तर्दिशा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org