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द्रव्य
४. सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद
१. सत् या द्रव्यकी अपेक्षा द्वैत-अद्वैत का निरास
२. एकान्त
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जगत् में एक ब्रह्मके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं, ऐसा 'महादेव' मानने से प्रत्यक्ष गोचर कर्ता, कर्म आदिके भेद तथा शुभ-अशुभ कर्म. उनके सुख-दुःखरूप फल, सुख-दुख के आश्रयभूत यह लोक व परलोक, विद्या व अविद्या तथा बन्ध व मोक्ष इन सब प्रकार के द्वैतोंका सर्वथा अभाव ठहरे ( मी./२४-२५) बौद्धदर्शनका प्रतिभासात तो किसी प्रकार सिद्ध ही नहीं किया जा सकता। यदि ज्ञेयभूत वस्तुको प्रतिभासमें गर्भित करनेके लिए हेतु देते हो तो हेतु और साध्यरूप द्वैत की स्वीकृति करनी पड़ती है और आगम प्रमाणसे मानते हो तो वचनमात्र से ही द्वैतता आ जाती है। (आप्त. मी./ २६ ) दूसरी बात यह भी तो है कि जेसे 'हेतु' के बिना 'अहेतु' शब्दको उत्पत्ति नहीं होती वैसे ही द्वैतके बिना अद्वैतकी प्रतिपत्ति कैसे होगी । ( आप्त. मी./२७) ।
२. एकान्त इतपक्षका निराम
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गद्रव्य, गुण, कर्म आदि पदार्थोंको सर्वथा भिन्न मानते हैं। परन्तु उनको यह मान्यता युक्त नहीं है, क्योंकि जिस पृथक्त्व नामा गुणके द्वारा वे ये भेद करते हैं, वह स्वयं हो बेचारा द्रव्यादिसे पृथक होकर, निराश्रय हो जानेके कारण अपनी सत्ता खो बैठेगा, तब दूसरों को पृथक् कैसे करेगा । और यदि उस पृथक्त्वको द्रव्यसे अभिन्न मानकर अपने प्रयोजनकी सिद्धि करना चाहते हो तो उन गुण, कर्म आदिको द्रव्यसे अभिन्न क्यों नहीं मान लेते। (आ. मी / २८) इसी प्रकार भेदवादी बौद्वोंके यहाँ भी सन्तान, समुदाय, व प्रेत्यभाव (परलोक) आदि पदार्थ नहीं बन सकेंगे। परन्तु ये सब बातें प्रमाण सिद्ध हैं। दूसरी बात यह है कि भेद पक्षके कारण वे ज्ञेयको ज्ञानसे सर्वथा भिन्न मानते हैं। तुम ज्ञान ही किसे कहोगे ज्ञानके अभाव से ज्ञेयका भी अभाव हो जायेगा । ( आ. .मी. / २१-३०) २. कचिद देत व अतका समन्वय
अत दोनोको सर्वथा निरपेक्ष न मानकर परस्पर सापेक्ष मानना चाहिए, क्योंकि, एकत्वके बिना पृथक्त्व और पृथक्त्वके बिना एक प्रमाणताको प्राप्त नहीं होते। जिस प्रकार हेतु अन्वय व व्यतिरेक दोनों रूपों को प्राप्त होकर ही साध्यकी सिद्धि करता है, इसी प्रकार एकत्व व पृथक्त्व दोनोंसे पदार्थ की सिद्धि होती है। (आप्त मी./३३) सत् सामान्यकी अपेक्षा सर्वद्रव्य एक है और स्व स्व लक्षण व गुणों आदिको धारण करनेके कारण सब पृथक-पृथक हैं । (प्र. सा. / मूव त/६७-६८ ); (आप्त. मी / ३४ ) ( का. अ / २३६ ) प्रमाणगोचर होनेसे उपरोक्त द्वैत व अद्वैत दोनों सत्स्वरूप है उपचार नहीं. इसलिए गौण मुख्य विवक्षासे उन दोनोंमें अविरोध है । (आप्त. मी./३६) ( और भी देखो क्षेत्र, काल व भावको अपेक्षा भेदाभेद )
२. क्षेत्र या प्रदेशों की अपेक्षा द्रव्यमें भेद कथंचित् भेदाभेद
१. द्रव्यमें प्रदेशकल्पनाका निर्देश
जिस पदार्थ में न एक प्रदेश है और न बहुत वह शून्य मात्र है। (सा./मू./९४४-१४५) आगम में प्रत्येक द्रव्यके प्रदेशोंका निर्देश किया है (दे० वह वह नाम ) - आत्मा असंख्यात प्रदेशी है, उसके एक-एक प्रदेशपर अनन्तानन्त कर्मप्रदेश, एक-एक कर्मप्रदेश में अनन्तानन्त औदारिक शरीर प्रदेश, एक-एक शरीरप्रदेश में अनन्ता
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४. सत् व द्रव्यमे कथंचित् भेदाभेद
नन्तं विसोपचय परमाणु हैं। इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यो में भी प्रदेश भेद जाम लेना चाहिए। रा. वा./२/८/१६६४५११७) ।
२. आकाशके प्रदेशवत्त्वमें हेतु
१. घटका क्षेत्र पटका नहीं हो जाता। तथा यदि प्रदेशभिन्नता न होती तो आकाश सर्वव्यापी न होता । ( रा. वा./५/८/५/४५०/३); ( पं, का /त.प्र./५ ) । २. यदि आकाश अप्रदेशी होता तो पटना मथुरा आदि प्रतिनियत स्थानोंमें न होकर एक ही स्थानपर हो जाते (रा. वा./५/८/१८/४५१/२१) २. यदि आकाशके प्रदेश न माने जायें तो सम्पूर्ण आकाश ही श्रोत्र बन जायेगा । उसके भीतर आये हुए प्रतिनियत प्रदेश नहीं तब सभी शब्द सभी को सुनाई देने चाहिए। ( रा. वा० / ५ / ८ / ११ / ४५१/२७) । ४ एक परमाणु यदि पूरे आकाश से स्पर्श करता है तो आकाश अणुत्र बन जायेगा अथवा परमाणु विभु बन जायेगा, और यदि उसके एक देशसे स्पर्श करता है तो जाकाश के प्रवेश मुख्य ही सिद्ध होते हैं, औपचारिक नहीं (रा.वा./५/८/१६/४९/२८) ५. एक आश्रयसे हटाकर दूसरे आश्रयमें अपने आधारको ले जाना, यह वैशेषिक मान्य 'कर्म' पदार्थका स्वभाव है। आकाश में प्रदेशभेदके बिना यह प्रदेशान्तर संक्रमण नहीं बन सकता। ( रा. वा. /५/८/२०/४५१/३१ )। ६. आकाश में दो उँगलियाँ फैलाकर इनका एक क्षेत्र कहनेपर-यदि आकाश अभिनांवाला अविभागी एक द्रव्य है तो दोमें से एकवाले अंशका अभाव हो जायेगा, और इसी प्रकार अन्य अन्य अंशोंका भी अभाव हो जाने से आकाश अणुमात्र रह जायेगा । यदि भिन्न शिवाला एक म्य है तो फिर आकाशमै प्रदेशभेद सिद्ध हो गया। यदि उँग लियोंका क्षेत्र भिन्न है तो आकाशको सविभागी एक द्रव्य माननेपर उसे अनन्तपना प्राप्त होता है और अविभागी एकद्रव्य माननेपर उसमें प्रदेश भेद सिद्ध होता है (प्र. सा. रा. प्र. / ९४०) (विशेष आकाश २)
३. जीव द्रव्यके प्रदेशत्वमें हेतु
१. आगम में जोवद्रव्य प्रदेशोंका निर्देश किया है । (दे० जीव/ ४१): (रा. मा./१२/०/१५/४५१/७२ आगम जीवके प्रदेशों चल व अचल प्रदेशरूप विभाग किया है (दे० जीव / ४ ) । ३ आगम में चक्षु आदि इन्द्रियोंमें प्रतिनियत आत्मप्रदेशोंका अवस्थान कहा है । (३० इन्द्रिय/३/५) उनका परस्पर में स्थान संक्रमण भी नहीं होता। (रा. वा./२/०८/१०/०१/१०) ४. अनादि कर्मबन्धनबद्ध संसारी जीब में सावयवपना प्रत्यक्ष है। ( रा. वा./५/८/२२/४५२/८) । ५. आत्माके किसी एक देशमें परिणमन होनेपर उसके सर्वदेशमें परिण मन पाया जाता है । (पं. ध. / ५६४ ) ।
४. द्रव्योंका यह प्रदेशभेद उपचार नहीं है।
१. मुख्यके अभाव में प्रयोजनवश अन्य प्रसिद्ध धर्मका अन्य में आरोप करना उपचार है । यहाँ सिंह व माणवकवत् पुद्गलादिके प्रदेश मुख्यता और धर्मादि द्रव्योंके प्रदेशवस्य मे गौणता हो ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों ही अवगाहकी अपेक्षा तुल्य हैं । ( रा. वा /५/८/१९/४५०/२६) । २. जैसे गला 'पटके प्रदेश' ऐसा सोपपद व्यवहार होता है. वैसा ही धर्मादिमें भी 'धर्मप्रदेश ऐसा सोपपद व्यवहार होता है। 'सिंह' व 'माणवक सिंह" ऐसा निरुपपद व सोपपदरूप भेद यहाँ नहीं है। (रा. बा./५/२/११/४५०/ २१) ३ सिंह मुख्य करता आदि धर्मोंको देखकर उसके माणवकमें उपचार करना बन जाता है, परन्तु यहाँ पुद्गल और धर्मादि सभी द्रव्योंके मुख्य प्रदेश होनेके कारण, एकका दूसरेमें उपचार करना नहीं बनता। (रा. वा. /५/८/१३/४५०/३२ ) । ४. पौगलिक घटादिक द्रव्य प्रत्यक्ष है। इसलिए उनमें प्रोवा वैदा आदि निज अवययों द्वारा प्रदेशका व्यवहार बन जाता है, परन्तु धर्मादि द्रव्य परोक्ष होने से
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