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द्रव्य
३. षद्रव्य विभाजन
कर्तापना है। वस्तुत: पुण्य पाप आदि रूपसे उनके अकर्तापना है। (पं का /ता वृ/२७५७/१५) ।
क्षेत्रवान् है क्योंकि उसका अवगाहन लक्षण कहा गया है। शेष पाँच द्रव्य क्षेत्रवान् नही है, क्योकि उनमे अवगाहन लक्षण नही पाया जाता (पं.का./ता.वृ./२७/५७/७ ) ( इ.सं /टी / अधि. २ की चूलिका/ ७०/७)। (विशेष दे० आकाश/३) ।
१०. द्रव्यके या वस्तुके एक दो भादि भेदोकी अपेक्षा विभाग
1. सर्वगत व असर्वगतको अपेक्षा विभाग
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विकल्प
द्रव्यकी अपेक्षा (क पा.१/१-१४/६१७७/ २११-२१५)
वस्तुकी अपेक्षा (ध ६/४,१,४५/१६८-१६६)
वसु श्रा./३६ सव्वगदत्ता सव्वगमा वासं णेव सेसगं दव्वं । = सर्वव्यापक
होनेसे आकाशको सर्वगत कहते है । शेष कोई भी सर्वगत नहीं है। द्र.स/टी./अधि २ की चूलिका/७८/११ सबगदं लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया
सर्वगतमाकाशं भण्यते । लोकव्याप्त्यपेक्षया धर्माधर्मों च । जीवद्रव्य पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूर्णावस्थायां विहाय असर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति। पुद्गल द्रव्यं पुनर्लोकरूपमहास्कन्धापेक्षया सर्वगत, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति। कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति। --लोकालोक्व्यापक होनेकी अपेक्षा आकाश सर्वगत कहा जाता है। लोकमें व्यापक होनेकी अपेक्षा धर्म
और अधर्म सर्वगत हैं। जीवद्रव्य एकजीवकी अपेक्षा लोकपूरण समुद्धातके सिवाय असर्वगत है। और नाना जोवोकी अपेक्षा सर्वगत ही हैं। पुदगलद्रव्य लोकव्यापक महास्कन्धकी अपेक्षा सर्वगत है और शेष पुद्गलोंकी अपेक्षा असर्वगत है। एक कालाणुव्यकी अपेक्षा तो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है, किन्तु लोकप्रदेशके बराबर असंख्यात कालाणुओंकी अपेक्षा कालद्रव्य लोकमे सर्वगत है (पं.का./ता../२७/ ५७/२१)।
सत्ता
सत् जीव, अजीव
जीवभाव-अजीवभाव। विधिनिषेध । मूर्त-अमूर्त । अस्ति
काय-अनस्तिकाय भव्य, अभव्य, अनुभय द्रव्य, गुण, पर्याय (जीव) - संसारी, अससारी | बद, मुक्त, बन्धकारण, मोक्ष(अजीव)-पुद्गल, अपुद्गल कारण (जीव) भव्य, अभव्य, | औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, अनुभय (अजीव ) --मूर्त, क्षायोपशमिक, पारिणामिक अमूर्त जोव, पुद्गन्न, धर्म, अधर्म द्रव्यवत् काल व आकाश जीव, अजीव, आस्रव, बद्ध, मुक्त. पुद्गल, धर्म, अधर्म, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष काल व आकाश जीवास्तव, अजीवासव, | भव्य संसारी, अभव्य संसारी, जीवसंवर, अजीवसंबर मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, जीवनिर्जरा, अजीव निर्जरा | आकाश, काल जीवमोक्ष, अजीवमोक्ष जीव, अजीव, पुण्य, पाप, द्रव्यवत् आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष | (जीव)= एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, द्रव्यवत त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय (अजीव) - पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, काल (जीव) =पृथिवी. अप, तेज, द्रव्यवत वायु, वनस्पति, व त्रस तथा (अजीव )- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल (जीव) - पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति. संज्ञी, असंज्ञी; तथा ( अजीव )= पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश
९. कर्ता व मोक्ताकी अपेक्षा विभाग
वसु.श्रा./३५ कत्ता सुहासुहाणं कम्माण फलभोयओ जम्हा। जीवो तप्फलभोया सेसा ण कत्तारा ॥३॥
द्र.सं./टी./अधि. २ की चूलिका ७८/६ शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन यद्यपि... | ११
घटपटादीनामकर्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन...पुण्यपापबन्धयोः कर्ता तत्फलभोक्ता च भवति । मोक्षस्यापि कर्ता तत्फलभोक्ता चेति । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्व सर्वत्र ज्ञातव्य
१२ मिति । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीय-स्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव क्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुनः पुण्यपापादिरूपेणाकतृत्वमेव । -१. जीव शुभ और अशुभ कर्मोंका कर्ता तथा उनके फलका भोक्ता है, किन्तु शेष द्रव्य न कर्मोके कर्ता है न भोक्ता ॥३५॥ २. शुद्धद्रव्याथिकनयसे यद्यपि जीव घटपट आदिका अकर्ता है. तथापि अशुद्धनिश्चयनयसे पुण्य, पाप व बन्ध, मोक्ष तत्वोका कर्ता तथा उनके फलका भोक्ता है। शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणामोंका परिणमन ही सर्वत्र जीवका कर्तापना जानना चाहिए। पुद्गलादि पाँच द्रव्यों का स्वकीय स्वकीय परिणामोंके द्वारा परिणमन करना ही
व काल
(जीव)= भव्य, अभव्य, अनुभय; (पुद्गल)बादरमादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म, सूक्ष्मसूक्ष्म; ( अमूर्त अजीव ) -- धर्म, अधर्म, आकाश, काल
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-५८
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