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काल
९४५. कालानुयोग द्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम ५. कालानुयोगद्वार तथा तत्सम्बन्धी कुछ नियम ५. ओघ प्र. में नानाजीवोंकी जघन्यकाल प्राप्ति विधि १. कालानुयोगद्वारका लक्षण
ध. ४/१.५,१/३३६/६ दो वा तिणि वा एगुत्तरवडीए जाव पलिदोवमस्स
असंखेज्जदिभागमेत्ता वा उसमसम्मादिष्टिणो उवसमसमत्तद्वाए रा.वा./१/८14/४२/३ स्थितिमतोऽर्थस्यावधिः परिच्छेत्तव्य.। इति
एगो समओ अत्थि त्ति सासणं पडिवण्णा एगसमय दिट्ठा । विदिएकालोपादानं क्रियते। किसी क्षेत्रमें स्थित पदार्थ की काल मर्यादा
समये सव्वं वि मिच्छतं गदा, तिसु वि लोएस सासणमभावो जादो निश्चय करना काल है।
त्ति लद्धो एगसमओ। =दो अथवा तीन, इस प्रकार एक अधिक घ.१/१,१,७/१०३/१५६ कालो द्विविअवधारणं .......११०३।
वृद्धिसे बढ़ते हुए पलयोपमके असंख्यातवे भागमात्र उवसमसम्यग्दृष्टि घ.१/१.१,७/१५८/६ तेहितो अवगय-संत-पमाण-उत्त-फोसणाणं द्विदि
जीव उपशम सम्यक्त्वके कालमें एक समय मात्र (जघन्य ) काल परूवेदि कालाणियोगो। -१. जिसमें पदार्थोंकी जघन्य और
अवशिष्ट रह जानेपर एक साथ सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए एक उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन हो उसे काल प्ररूपणा कहते हैं ।१०३१
समयमें दिखाई दिये। दूसरे समयमें सबके सब युगपत) मिथ्यात्व २. पूर्वोक्त चारों ( सद, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन ) अनुयोगोंके द्वारा जाने
को प्राप्त हो गये। उस समय तीनों ही लोकों में सासादन सम्यग्दृष्टि गये सर-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्योंकी स्थितिका वर्णन
जीवोंका अभाव हो गया। इस प्रकार एक समय प्रमाण सासादन कालानुयोग करता है।
गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा (जघन्य ) काल प्राप्त हुआ। २. काल व अन्तरानुयोगद्वारमें अन्तर
नोट-इसी प्रकार यथायोग्य रूपसे अन्य गुणस्थानोंपर भी लागू कर
लेना चाहिए। विशेष यह है कि उस उस गुणस्थानका एक जीवापेक्षा ध. १/१,१,७/१५८/६ तेहितो अवगय-संत-पमाण-खेत्त-फोसणाणं ट्ठिदि
जो जघन्य काल है उस सहित ही प्रवेश करना । परूवेदि कालाणियोगो। तेसिं चेव विरह परूवेदि अंतराणियोगो।
चारों ( सत, संख्या, क्षेत्र व म्पर्शन) अनुयोगोंके द्वारा जाने गये ६. ओघ प्र. में नाना जीवोंकी उस्कृष्ट काल प्राप्ति विधि सव-संख्या-क्षेत्र और स्पर्श रूप द्रव्योंकी स्थितिका वर्णन कालानुयोग
घ./४/१,५,६३४०/२ दोणि वा, तिणि वा एवं एगुत्तरवड्ढीए जाव द्वार करता है। जिन पदार्थोंके अस्तित्व, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श और
पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेसा वा उवसमसम्मादिट्टिणो एगस्थितिका ज्ञान हो गया है उनके अन्तरकालका वर्णन अन्तरानुयोग
समयादि कादूण जावुक्कस्सेण छआवलिओ उवसमताद्वाए अस्थि त्ति करता है।
सासणतं पडिवण्णा। जाव ते मिच्छत्तं ण गच्छति ताव अण्णे वि ३. काल प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
अण्णे वि उवसमसम्मदिहिणो सासणत्तं पडिवज्जति । एवं गिम्ह
कालरुक्रवछाहीव उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालं ध.७/२.८,१७/४६६/२ किंतु जस्स गुणट्ठाणस्स मग्गणट्ठाणस्स वा एगजीवा- जीवेहि असुण्णं होदूण सासाणगुणट्ठाणं लब्भदि । दो, अथवा तीन, बट्ठाणकालोदोपवेसंतरकालो बहुगो होदि तस्सण्णयवोच्छेदो। जस्स अथवा चार, इस प्रकार एक-एक अधिक वृद्धि द्वारा पल्योपमके पुण कयानि ण बहुओ तस्स ण संताणस्स वोच्छेदो। जस्स पूण कयामि असंख्यातवें भागमात्र तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समयको आदि ण बहुओ तस्मण संताणस्स वोच्छेदो ति घेत्तत्वं । = जिस गुणस्थान करके उत्कर्ष से छह आवलियाँ उपशम सम्यक्त्वके कालमें अवशिष्ट अथवा मार्गणा स्थानके एक जीवके अवस्थान कालसे प्रवेशान्तरकाल रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए। वे जब तक मिथ्यात्वको बहुत होता है, उसकी सन्तानका व्युच्छेद होता है। जिसका वह प्राप्त नहीं होते हैं, तब तक अन्य-अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव काल कदापि बहुत नहीं है, उसकी सन्तानका व्युच्छेद नहीं होता, सासादन गुणस्थानको प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकारसे ग्रीष्मकाल के ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
वृक्षकी छायाके समान उत्कर्षसे पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र १. ओघ प्ररूपणा सम्बन्धी सामान्य नियम
कालतक जीवोंसे अशुन्य ( परिपूर्ण) होकर, सासादन गुणस्थान पाया
जाता है । ( पश्चात् वे सर्वजीव अवश्य ही मिथ्यात्वको प्राप्त होकर ध. ३/१,२,८/६०/३ अपमत्ताद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणत्तादो। - अप्रमत्त उस गुणस्थानको जीवोंसे शून्य कर देते हैं) नोट-इसी प्रकार संयतके कालसे प्रमत्त संयतका काल दुगुणा है ।
यथायोग्य रूपसे अन्य गुणस्थानोंपर भी लागू कर लेना। विशेष यह घ.१/१,६,२५०/१२५/४ उसमसेढि सव्वद्धाहिंतो पमत्तद्धा एक्का चेव है कि उस उस गुणस्थान तकका एक जीवापेक्षया जो भी जघन्य या संखेज्जगुणा त्ति गुरुवदेसादो।
उत्कृष्ट कालके विकल्प हैं उन सबके साथ वाले सर्व ही जीवोंका घ. ५/१,६,१४/१८/८ एक्को अपुवकरणो अणियट्टिउवसामगो मुष्ठमउव- प्रवेश कराना। सामगो उवसंत-कसाओ होदूण पुणो वि सुहमउवसामगो अणियट्टिउवसामगो होदूण अपुठवउवसामगो जादो। एदाओ पंच वि अद्धाओ
७. भोध प्र० में एक जीवकी जघन्यकाल प्राप्ति विधि एक्कट्ठ कवे वि अंतोमुहुत्तमेव होदि त्ति जहण्णं तरमंतोमुहूत्तं होदि । ध./४/१,५.७/३४१-३४२ एक्को उवसमसम्मादिट्ठी उवसमसमत्तद्वाए ४१. उपशम श्रेणी सम्बन्धी सभी ( अर्थात् चारों आरोहक व तीन एगसमओ अस्थिति सासणं गदो।...एगसमयं सासाणगुणेण सह ट्ठिदो, अवरोहक) गुणस्थानों सम्बन्धी कालोंसे अकेले प्रमससंयतका काल विदिए समए मिच्छत्तं गदो । एवं सासाणस्स लद्धो एगसमओ ।... ही संख्यातगुणा होता है। २. एक अपूर्वकरण उपशामक जीव, ध./४/१,९,१०/३४४-३४५ । एक्को मिच्छदि विसुज्झमाणे सम्मामिच्छत्त अनिवृत्ति उपशामक, सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और उपशान्त- पडिवण्णो। सबलहुमंतोमुहुसकाल मिच्छिदूण विसुज्झमाणे चेव कषाय उपशामक होकर फिर भी सूक्ष्म साम्पराधिक उपशामक और सासंजमं सम्मत्तं पडिवण्णो । .. अधवा वेदगसम्मादिट्ठी संकलिस्सअनिवृत्तिकरण उपशामक होकर अपूर्वकरण उपशामक हो गया। इस माणगोसम्मामिच्छत्तं गदो, सब्बलहुमंतोमुहुत्तकालमिच्छिदूण पकार अन्तमुहर्त्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर उपलब्ध हुआ। ये अविणसं किलेसो मिच्छदं गदो।...एवं दोहि पयारेहि सम्माअनिवृत्तिकरणसे लगाकर पुनः अपूर्वकरण उपशामक होनेके पूर्व तक- मिच्छत्तस्स जहण्णकालपरूवणा गदा। के पाँचों ही गुणस्थानोंके कालोंको एकत्र करनेपर भी वह काल 2./३/१,१,२४/३५३ एक्को अणियहि उवसामगो एगसमयं जीविदमस्थि अन्तर्मुहुर्त ही होता है. इसलिए जघन्य अन्तर भी अन्तर्मुहर्त ही त्ति अपुव्व उवसामगो जादो एवासमयं विट्ठो. विदियसमए मदो होता है।
लयसत्तमो देवो जादो-१ एक उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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