________________
तीर्थकर
४. तीर्थंकर प्रकृति सम्बन्धी शंका-समाधान
४. तीर्थकर प्रकृति सम्बन्धी शंका-समाधान १. मनुष्यगतिमें ही इसकी प्रतिष्ठापना क्यों
जाता है ? उत्तर-ऐसा होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जिन्होंने पूर्व में त्यिंच व मनुष्यायुका बन्ध कर लिया है उन जीवोके नरक व देव आयुओंके बन्धसे संयुक्त जीवोंके समान तीर्थ कर कर्मके बन्धका अभाव है। प्रश्न-वह भी कैसे सम्भव है। उत्तर-क्योंकि जिस भवमें तीर्थंकर प्रकृतिका बंध प्रारम्भ किया है उससे तृतीय भवमें तीर्थकर प्रकृतिके सत्त्वयुक्त जीवोंके मोक्ष जानेका नियम है। परन्तु तिथंच और मनुष्योंमें उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी देवों में उत्पन्न न होकर देव नारकियों में उत्पन्न हुए जीवों के समान मनुष्यों में उत्पत्ति होती नहीं, जिससे कि तिर्यच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंकी तृतीय भवमें मुक्ति हो सके। इस कारण तीन गतियों के असंयत सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर प्रकृतिके बन्धके स्वामी हैं।
घ. ८/३, ४०/७८/८ अण्णगदीसु किण्ण पारंभो होदित्ति वुत्ते-ण होदि, केवलणाणोवलक्खियजीवदव्वसहकारिकारणस्स तिस्थयरणामकम्मबंधपारंभस्स तेण विणा समुप्पत्तिविरोहादो। -प्रश्न-मनुष्यगतिके सिवाय अन्य गतियोंमें इसके बन्धका प्रारम्भ क्यों नहीं होता! उत्तर-अन्य गतियोमें इसके बन्धका प्रारम्भ नहीं होता, कारण कि तीर्थकर नामकर्म के प्रारम्भका सहकारी कारण केवलज्ञानसे उपलक्षित जीव द्रव्य है, अतएव मनुष्य गतिके बिना उसके बन्ध प्रारम्भको उत्पत्तिका विरोध है। गो. क./जी. प्र./६३/७८/१० नरा इति विशेषणं शेषगतिज्ञानमपाकरोति विशिष्टप्रणिधानक्षयोपशमादिसामग्री विशेषाभावात् । -बहुरि मनुष्य कहनेका अभिप्राय यह है जो और गतिवाले जीव तीर्थ कर बंधका प्रारंभ न करें जातै और गतिवाले जीवनिकै विशिष्ट विचार क्षयोपशमादि सामग्रीका अभाव है सो प्रारंभ तो मनुष्य विष ही है।
२. केवलोके पादमूलमें ही बन्धनेका नियम क्यों गो. क./जी. प्र/६३/७८/११ केवलिद्वयान्ते एवेति नियमः तदन्यत्र तागविशुद्धिविशेषासंभवाव । - प्रश्न-[ केवलीके पादमूलमे ही बन्धने का नियम क्यों.] उत्तर-बहुरि केवलिके निकट कहनेका अभिप्राय यह है जौ और ठिकानै ऐसी विशुद्धता होई नाही, जिस तीर्थ कर बंधका प्रारंभ होई।
५. नरकगतिमें उसका बन्ध कैसे सम्भव है। गो, क./जी. प्र./५५०/७४२/२० नन्वविरदादिचत्तारितित्थयरबंधपारंभया णरा केवलि दुगंते इत्युक्तं तदा नारकेषु तद्युक्तस्थानं कथं बध्नाति । तन्न। प्रारबद्धनरकायुषां प्रथमोपशमसम्यक्त्वे वेदकसम्यक्त्वे वा प्रारब्धतीर्थबन्धानां मिथ्यादृष्टित्वेन मृत्वा तृतीयपृथ्व्यन्तं गताना शरीरपर्याप्तरुपरि प्राप्ततदन्यतरसम्यक्त्वाना तद्भन्धस्यावश्यभावात । प्रश्न-"अविरतादि चत्तारि तित्थयरबंधपारंभया णरा केवलिदुगंते" इस वचन ते अविरतादि च्यारि गुणस्थानवाले मनुष्य ही केवली द्विक निकटि तीर्थकर बंधके प्रारंभक कहे नरक विष कैसे तीर्थंकरका बंध है। उत्तर-जिनके पूर्व नरकायुका बंध होइ', प्रथमोपशम वा वेदक सम्यग्दृष्टि होय तीर्थकरका बन्ध प्रारम्भ मनुष्य करै पोछे मरण समय मिथ्यादृष्टि होइ तृतीय पृथ्वीपर्यंत उपजै तहो शरीर पर्याप्त पूर्ण भए पीछे तिन दोऊनि मै स्यों किसी सम्यक्त्वको पाई समय प्रबद्ध विर्षे तीर्थंकरका भी बंध करै है।
१. कृष्ण व नील लेश्यामें इसके बन्धका सर्वथा निषेध क्यों
३. अन्य गतियों में तीथकरका बन्ध कैसे सम्भव है गो क./जी. प्र./५२४/१२ देवनारकासंयतेऽपि तद्बन्ध' कथं । सम्यक्त्वाप्रच्युतावुत्कृष्टतन्निरन्तरवन्धकालस्यान्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्ष न्यूनपूर्वको - टिद्वयाधिकत्रयस्त्रिशत्सागरोपममात्रत्वेन तत्रापि भवात् । - प्रश्नजो मनुष्य ही विर्षे तीर्थ कर बंधका प्रारम्भ कहा तो देव, नारकीकै असंयतविर्षे तीर्थ कर बन्ध कैसे कहा । उत्तर-जो पहिले तीर्थ कर बंधका प्रारंभ तौ मनुष्य ही कै होइ पीछे जो सम्यक्त्वस्यों भ्रष्ट न होइ तो समय समय प्रति अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष घाटि दोयकोडि पूर्व अधिक तेतीस सागर पर्यन्त उत्कृष्ट पनै तीर्थ कर प्रकृतिका बंध समयप्रबद्धविष हुआ करै तातै देव नारकी विर्षे भो तीर्थकरका बंध संभव है। ४. तिर्यचगतिमें उसके बन्धका सर्वथा निषेध क्यों ध.८/३, ३८/७४/८ मा होदु तत्थ तित्थयरकम्मबंधस्स पारंभो, जिणाणमभवादो। किंतु पुव्व बद्धतिरिक्खाउआणं पच्छा पडिवण्णसम्मत्तादिगुणेहि तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं पुणो तिरिक्खेमुप्पण्णाणं तित्थयरस्स बंधस्स सामित्तं लब्भदि त्ति वुत्ते-ण, बद्धतिरिक्रवमणुस्साउआणं जीवाणं बद्धणिरय-देवाउआणं जीवाणं व तित्थयरकम्मस्स बंधाभावादो। तं पि कुदो। पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदिय भवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं मोक्खगमण-णियमादो। ण च तिरिक्ख-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठोणं देवेसु अणुप्पज्जिय देवणेरइएसुप्पण्णाणं व मणुस्सेसुप्पत्ती अत्थि जेण तिरिक्व-मणुस्सेसुप्पण्णमणुससम्माइट्ठीणं तदियभवे णिव्वुई होज्ज। तम्हा तिगइअसंजदसम्माइट्ठिणो चेव सामिया त्ति सिद्ध। -प्रश्न-तिर्यग्गतिमें तीर्थकर कर्म के बन्धका प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनोंका अभाव है। किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यगायुको बान्ध लिया है, उनके पीछे सम्यक्त्वादि गुणोके प्राप्त हो जानेसे तीर्थ कर कर्मको बान्धकर पुनः तिर्यञ्चो में उत्पन्न होनेपर तीर्थंकरके बन्धका स्वामोपना पाया
ध. ८/३, २५८/३३२/३ तत्थ हेट्ठिमइंदर णीललेस्सासहिए तित्थयरसंतकम्मियामिच्छाइटीणमुववादाभावादो। ... तित्थयरसंतकम्मियमिच्छाइट्ठीणं णेरइएसुववज्जमाणाणं सम्माइट्ठीणं व काउलेस्सं मोत्तूण अण्णलेस्साभावादो वा ण णीलकिण्हलेस्साए तित्थयरसंतकम्मिया अत्थि। =प्रश्न- [कृष्ण, नीललेश्यामें इसका बंध क्यों सम्भव नही है।] उत्तर-नील लेश्या युक्त अधस्तन इन्द्रकमे तीर्थंकर प्रकृतिके सत्त्ववाले मिथ्याष्टियोंकी उत्पत्तिका अभाव है।...अथवा नारकियों में उत्पन्न होनेवाले तीर्थ कर संतकर्मिक मिथ्यादृष्टि जीवोंके सम्यग्दृष्टियोंके समान कापोत लेश्याको छोड़कर अन्य लेश्याओं का अभाव होनेसे नील और कृष्ण लेश्यामें तीर्थकरकी सत्तावाले जीव नहीं होते हैं। (गो. क./जी.प्र./३५४/५०६/८)
७. प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें इसके बन्ध सम्बन्धी दृष्टि भेद
गो. क./जी. प्र./१३/७८/८ अत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वे इति भिन्नविभक्तिकरणं तत्सम्यक्त्वे स्तोकान्तर्मुहूर्तकालयात षोडशभावनासमृद्ध्यभावात् तद्बन्धप्रारम्भो न इति केचित्पक्ष ज्ञापयति । -इहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्वका जुदा कहनेका अभिप्राय ऐसा है जो कोई आचार्यनिका मत है कि प्रथमोपशमका काल थोरा अंतर्मुहर्त मात्र है तातें षोडश भावना भाई जाइ नाही, तातै प्रथमोपशम विर्षे तीर्थकर प्रकृतिके बंधको प्रारंभ नाहीं है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org