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________________ नागसेन ५८२ नाम नागसन-१, श्रुतावतारके अनुसार आप भद्रबाहू प्रथमके पश्चात पाँचवें ११ अग व १० पूर्वधारी हुए। समय-वी. नि. २२६-२४७ दृष्टि नं.३ की अपेक्षा बी नि २८-३००। (दे. इतिहास/४/४)। २. ध्यान विषयक ग्रन्थ तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन के गुरु और वीरचन्द के विद्या शिष्य। समय-ई १०४७। (ती./३/२३६) कोई कोई इन्हें ही तत्त्वानुशान के रचयिता मानते हैं। (त. अनु./प्र / २ ब्र, श्री लाल) नागहस्ती-१ दिगम्बराम्नायमें आपका स्थान आ. पुष्पदन्त तथा भूतबलि के समकक्ष माना गया है। आ० गुणधर से आगत 'पेज्जदोसपाहुड' के ज्ञान को आचार्य परम्परा द्वारा प्राप्त कर के आपने यत्तिवृषभाचार्य को दिया था। समय-वि. नि. ६२०६८४ (ई. १३-१६२) (विशेष दे कोश ११ परिशिष्ट/३.३)। २. पुन्नाटसंघको गुर्वावलीके अनुसार आप व्याघहस्तिके शिष्य तथा जितदण्डके गुरु थे। (दे० इतिहास/७/८) नागाजन-१. एक बौद्ध विद्वात् । इनके सिद्धान्तोका समन्तभद्र स्वामी (वि. श. २-३) ने बहुत खण्डन किया है, अत: आप उनसे भी पहले हुए है। (र. क. पा./प्र. ८/प', परमानन्द) २. आप आ-पूज्यपादको कमलनी नामक छोटी बहन जो गुणभट्ट नामक ब्राह्मणके साथ परणी थी, उसके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। आ.पूज्यपाद स्वामीने इनको पद्मावती देवीका एक मंत्र दिया था, जिसे सिद्ध करके इन्होने स्वर्ण बनानेकी विद्या प्राप्त की थी। पद्मावती देवीके कहनेसे इसने एक जिनमन्दिर भी बनवाया था। समय-पूज्यपादसे मिलान करनेपर इन का समय लगभग वि. ४८१ ( ई०४२४ ) आता है । ( स. सि./प्र. ८४/ पं. नाथूराम प्रेमी के लेखसे उद्धृत) नाग्न्य-दे० अचेलकत्व । नाटक समयसार-दे० समयसार नाटक । नाड़ी-१ नाडी संचालन सम्बन्धी नियम-दे० उच्छवास । २. औदारिक शरीरमें नाडियोका प्रमाण -दे० औदारिक/१। त. अनु./१०० "वाच्यवाचकं नाम । =वाच्यके वाचक शब्दको नाम ___कहते हैं -दे० आगम/४ । २. नामके भेद ध १/१,१,१/१७/५ तत्थ णिमित्तं चउविह, जाइ-दव्व-गुण-किरिया चेदि । दिव्यं दुविहं, संयोगदव्वं समवायदवं चेदि ।..'च अण्ण णिमित्ततरमथि। = नाम या संज्ञाके चार निमित्त होते हैं--जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया । ( उसमें भी) द्रव्य निमित्त के दो भेद हैसंयोग द्रव्य और समवाय द्रव्य । ( अर्थात् नाम या शब्द चार प्रकारके है -जातिवाचक, द्रव्यवाचक, गुणवाचक और क्रियावाचक) इन चारके अतिरिक्त अन्य कोई निमित्त नहीं है। (श्लगे'. वा. २/१/५/ श्लो. २-१०/१६६) ध. १५/२/३ तं च णाम णिबंधणमत्याहिहाणपच्चयभेएण तिविहं। =वह नाम निबन्धन अर्थ, अभिधान और प्रत्ययके भेदसे तीन प्रकारका है। ३. नामके भेदोंके लक्षण दे. जाति (सामान्य) (गौ मनुष्य आदि जाति बाचक नाम हैं)। दे. द्रव्य/१/१० (दण्डी छत्री आदि संयोग द्रव्य निमित्तक नाम हैं और गलगण्ड काना आदि समवाय द्रव्य निमित्तक नाम हैं।) ध. १/१,१,१/१८/२.५ गुणो णाम पज्जायादिपरोप्परविरुद्धो अविरुद्धो वा। किरिया णाम परिफंदणरूवा । तत्थ...गुणणिमित्तं णाम किण्हो रुहिरो इच्चेवमाइ। किरियाणिमित्तं णाम गायणो णच्चणो इच्चेवमाइ। =जो पर्याय आदिकसे परस्पर विरुद्ध हो अथवा अविरुद्ध हो उसे गुण कहते हैं। परिस्पन्दन अर्थात् हलनचलन रूप अवस्थाको क्रिया कहते है। तहाँ कृष्ण, रुधिर इत्यादि गुणनिमित्तक नाम है, क्यो कि, कृष्ण आदि गुणोके निमित्तसे उन गुणवाले द्रव्योंमें ये नाम व्यवहार में आते है। गायक, नर्तक आदि क्रिया निमित्तक नाम हैं; क्योंकि, गाना नाचना आदि क्रियाओंके निमित्तसे वे नाम व्यवहारमें आते है। ध १५/२/४ तत्थ अत्यो अट्ठविहो एगबहुजीवाजीवजणिदपादेवसंजोगभगभेरण । एदेसु अट्ठसु अत्येसुप्पण्णणाणं पञ्चणिबंधणं । जो णामसद्दो पवुत्तो संतो अप्पाणं चेव जाणावेदि तमभिहाणणामणिबंधणं णाम । - एक व बहूत जीव तथा अजीवसे उत्पन्न प्रत्येक व संयोगी भंगोंके भेदसे अर्थ निबन्धन नाम आठ प्रकारका है (विशेष देखो आगे नाम निक्षेप) इन आठ अर्थोंमे उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रत्यय निबन्धन नाम कहलाता है । जो सज्ञा शब्द प्रवृत्त होकर अपने आपको जतलाता है, वह अभिधान निबन्धन कहा जाता है। ४. सर्व शब्द वास्तव में क्रियावाची हैं श्लो. बा./४/१/३३/७४/२६७/६ न हि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति गौरश्व इति जातिशब्दाभिमतानामपि क्रियाशब्दत्वात आशुगाम्यश्व इति, शुक्लो नील इति गुणशब्दाभिमता अपि क्रियाशब्द एव । शुचिभवना च्छक्लः नीलान्नील इति । देवदत्त इति यदृच्छा शब्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव देव एव (एन) देयादिति देवदत्तः यज्ञदत्त इति । मयोगिद्रव्यशब्दा' समवायिद्रव्यशब्दाभिमताः क्रियाशब्द एव । दण्डोऽस्यास्तीति दण्डी विषाणमस्यास्तीति विषाणीत्यादि । पञ्चतयी तु शब्दानां प्रवृत्तिः व्यवहारमात्रान्न न निश्चयादित्ययं मन्येते। जगतमें कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जो कि क्रियाका वाचक न हो। जातिवाचक अश्वादि शब्द भी क्रियावाचक हैं; क्यों कि, आशु अर्थात शीघ गमन करनेवाला अश्व कहा जाता है। गुणवाचक शुक्ल नील आदि शब्द भी क्रियावाचक हैं; क्योंकि, शुचि अर्थात पवित्र होना रूप क्रियासे शुक्ल तथा नील रंगने रूप क्रियासे नील कहा नाथ वंश-दे० इतिहास/१०७ ! नाभांत-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर -दे० विद्याधर । नाभिगिरि-० लोक/३/८ । नाभिराज-म.३/श्लोक नं) आप वर्तमान कल्पके १४ व कुलकर थे ।१२। इनके समय बालककी नाभिमें नाल दिखाई देने लगी थी। इन्होने उसे काटनेका उपाय सुझाया जिससे नाभिराय नाम प्रसिद्ध हो गया ।१६४। -दे० शलाका पुरुष । नाम--१. नामका लक्षण रा. वा /१/५/-/२८/८ नीयते गम्यतेऽनेनार्थ. नमति वार्थमभिमुस्त्रीकरोतीति नाम । -जिसके द्वारा अर्थ जाना जाये अथवा अर्थको अभिमुग्व करे वह नाम कहलाता है। ध. १५/२/२ जस्स णामस्स वाचगभावे पवुत्तीए जो अस्थो आलवर्ण होदि सो णामणिबंधणं णाम, तेण विणा णामपबुत्तीए अभावादो। - जिस नामकी बाचकरूपसे प्रवृत्तिमे जो अर्थ अवलम्बन होता है वह नाम निबन्धन है; क्योंकि, उसके बिना वामकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। ध.६/४१/५४/२ नाना मिनोतीति नाम । = नानारूपसे जो जानता है, उसे नाम कहते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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