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IV द्रव्याथिक व पर्यायाथिक
गौण करके मुख्य रूपसे जो केवल सत्ताको ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकनय कहा गया है। (न.च /श्रुत/४०/श्लो.४) नि. सा /ता.वृ./१६ सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्याथिकन यबलेन पूर्वोक्तव्यजनपर्यायेभ्य. सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजोवराशय सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्याथिकन यके बलसे, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि ) व्यंजन पर्यायोसे सर्वथा व्यतिरिक्त
भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्यायवाला है अथवा जीव ज्ञानवान है) बह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है। (न.च./श्रुत/शश्लो .६ तथा/४१/ख.३) (विशेष दे० नय/V/४) ७. अन्वय द्रव्यार्थिक आ.प/५ अन्वयसापेक्षो द्रव्याथिको यथा, गुणपर्यायस्वभाव द्रव्यम् । आ.प./८ अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनै कस्याप्यनेकस्वभावत्वम्। -अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसी लिए इस नयकी अपेक्षा एक द्रव्यके भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे-जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि) न.च.वृ/११७ निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं । विवहावणाहि
जो सो अण्णयदव्व थिओ भणिदो।११७ =नि शेष स्वभावोंको जो सर्व द्रव्योंके साथ अन्वय या अनुस्यूत रूपसे कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थि कनय है (न. च./श्रुत/४१/श्लो. ४) न. च /श्रुत/पृ. ६/श्लो.७ निःशेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमबबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सरकटकादिषु ।। -जो सम्पूर्ण गुणों
और पर्यायों में से प्रत्येकको द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरहमें अनुबद्ध रहनेवाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है। प्र. सा./ता. वृ./१०१/१५०/११ पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्याथिकनय.।जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीनका तथा स्वसंवेदनज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणोंका (उपलक्षणसे सम्पूर्ण गुण व पर्यायोंका) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्याथिक नय है।
३. भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ भेदकल्पनानिरपेक्ष' शुतो द्रव्याथिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम्। आ.प./८ भेदकल्पनानिरपेक्षेण कस्वभाव.। -भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायोके स्वभाव से अभिन्न
है तथा एक स्वभावी है। (न.च./श्रुत/४/श्लो.३) न.च. /१६३ गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो जो करइ खलु भेयं । सुद्धो
सो दम्वत्यो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो ।१९३१ = गुण-गुणी और पर्यायपर्यायी रूप ऐसे चार प्रकारके अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हे एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पोंसे निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है । (और भो दे० नय/v/१/२) (न.च./श्रुत/४१/श्लो ५) आ.प/ भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजोवाना चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् । - भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होनेके कारण एकप्रदेशपना है। ४. कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव
आत्मा। - कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। न.च.वृ./१६४ भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दुजंपदि। सोह असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो १६४ -जो सर्व रागादि भावोको जीवमें कहता है अर्थात् जीवको रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (न.च./श्रुत/४१/श्लो.१) न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.४ औदयिकादित्रिभावान यो ब्र ते सर्वात्मसत्तया । कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चयः।४।जो नय औदयिक,
औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावोंको आत्मसत्तासे युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय है।
५. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथै कस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययधौव्यात्मकम् । - उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा द्रव्य एक समयमें ही उत्पाद व्यय व धौव्य रूप इस प्रकार प्रयात्मक है। (न.च.व./१६५), (न.च./श्रुत/पृ.४/श्लो.५) (न.च./श्रुत/४१/श्लो. २)
६. भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक आ.प./५ भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्याथिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञाना
दयो गुणाः। आ.प./८ भेदकल्पनासापेक्षेग चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । -भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्माके गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)-तथा धर्म, अधर्म,
आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाववाले हैं। न.च.वृ./१६६ भेए सदि सब गुणगुणियाईहि कुदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण । -जो द्रव्यमें गुण-गुणो
८. स्वद्रव्यादि ग्राहक आ. प./५ स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्याथिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। -स्व द्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टयसे ही द्रव्यका अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्यका अस्तित्व स्वभाव है। (आ.प./८); (न. च वृ./१६८),(न, च./श्रुत/पृ.३ पृ.४१/श्लो.५); (नय//५/२) ९. परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिक आ. प./५ परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा-परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्सं नास्ति । - परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टयसे द्रव्यका नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्यका नास्तित्व स्वभाव है। (आ. प./८); (न. च. वृ./१९८); न. च./श्रुत/पृ. ३ तथा ४१/श्लो. ६); (नय/12/२) १०. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक आ.प./५ परमभावग्राहकद्रव्याथिको यथा-ज्ञानस्वरूप आत्मा।
- परमभावग्राहक द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभावमें स्थित है। आ. ५./- परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभावः । ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभावः । ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभावः। ...पुद्गलं बिहाय इतरेषाममूर्तस्वभावः । .. कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । -परमभावग्राहक नयसे भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं: कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी है। कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गलके अतिरिक्त शेष द्रव्य अमृतस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०२-६९
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