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जल चारण
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जाति ( नामकर्म)
राग तथा जीबहिसासे बचनेके लिए रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिए । जो दोष रात्रि भोजनमे लगते हैं वही दोष अगालित पेय पदार्थों में भी लगते है, यह जानकर बिना छने जल, दूध, घी, तेल आदि पेय पदार्थोका भी उनको त्याग करना चाहिए। और भी दे० रात्रि भोजन । जल चारण-दे० ऋद्धि/४। जलपथ-पा.प्र./१६/७ प्रवाससे लौटनेपर पाण्डव नकुल जलपथ नगरमें रहने लगे। नोट-कुरुक्षेत्रके निकट होनेसे वर्तमान पानीपत ही 'जलपथ' प्रतीत होता है। जल शुद्धि-दे० जल गालन । जलावत-विजयाकी दक्षिणश्रेणीका एक नगर-दे०विद्याधर। जलौषध-दे० ऋद्धि/७ । जल्प-१. लक्षण न्या.सू मू./२-२/२ यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपलम्भो
जल्प/२। न्या.सू./भा/२-२/२/४३/१० यत्तत्प्रमाणैरर्थस्य साधनं तत्र छलजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविधातेन स्वपक्षं रक्षन्ति । - पूर्वोक्त लक्षणसहित 'छल' 'जाति और 'निग्रहस्थान' से साधनका निषेध जिसमे किया जाये उसे जाप कहते हैं। यद्यपि छल, जाति व निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्षके साधक नहीं होते, तथापि दूसरेके पक्षका खण्डन करके अपने पक्षकी रक्षा करते हैं, इसलिए नैयायिक लोग उनका प्रयोग करके भी दूसरेके साधनका निषेध करना न्याय मानते है । इसी प्रयोगका नाम जल्प है। सि.वि./मू./३/२/३११ समर्थवचन जल्पम् । सि.वि./वृ./५/२/३११/१६ छलजातिनिग्रहस्थानानां भेदो लक्षणं च नेह
प्रतभ्यते ।- (जिनमार्गमे क्योकि अन्यायका प्रयोग अत्यन्त निषिद्ध है, इसलिए यहाँ जल्पका लक्षण नैयायिकोसे भिन्न प्रकारका है।) समर्थवचनको जल्प कहते हैं। यहाँ छल, जाति व निग्रहस्थानके भेद रूप लक्षण इष्ट नही किया जाता है।
२. जल्पके चार अंग सि.वि./मू./२/२/३११ जल्पं चतुरङ्ग विदुर्बुधाः । सि.वि./व./५/२/३१३/१२ तत्राह 'चतुरङ्गम्' इति । चत्वारि वादि
प्रतिवादि-प्राश्निक-परिषद्विलक्षणानि अगानि, नावयवाः, वचनस्य तदनवयवत्वात । = विद्वान् लोग जम्पको चार अंगवाला जानते हैं। वे चार अंग इस प्रकार है-वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और परिषद् या सभासद् । इन्हे अवयव नहीं कह सकते है क्योकि अनुमानके वचन या वाक्यकी भॉति यहाँ वचनके अवयव नहीं होते।
३. जल्पका प्रयोजन व फल दे० वितंडा । नैयायिक लोग केवल जीतनेकी इच्छासे जल्प व
वितण्डाका प्रयोग भी न्याय समझते है। (परन्तु जैन लोग।) सि.वि./मू./२/२८/३६६ तदेवं जल्पस्वरूपं निरूप्य अधुना सदसि तदुपन्यासप्रयोजनं दर्शयन्नाह -स्याद्वादेन समस्तवस्तुविषयेणकान्तवादेवभिध्वस्तेष्वेकमुखीकृता मतिमतां नैयायिकी शेमुषी। तत्त्वार्थाभिनिवेशिनी निरूपणं चारित्रमासादयन्यद्धानन्तचतुष्टयस्य महतो हेतुर्विनिश्चीयते ।२८१ सि.वि./मू./५/२/३११ पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना। इस प्रकार
जलपस्वरूपका निरूपण करके अब उसका कथन करनेका प्रयोजन दिखाते है-समस्त वस्तुको विषय करनेवाले तथा समस्त एकान्तवादों का निराकरण करनेवाले स्याद्वादके द्वारा अन्य कथाओसे निवृत्त
होकर बुद्धिमानोकी बुद्धि एक विषयके प्रति अभिमुख होती है।
और न्यायमे नियुक्त होकर तत्त्वका निर्णय करनेके लिए वादी और प्रतिवादी दोनोके पक्षोमें मध्यस्थताको धारण करती हुई शीघ्र ही अनुपम तत्त्वका निश्चय कर लेती है ।२८। पक्षका निर्णय जब तक नहीं होता तब मार्ग प्रभावना होती है। यही जल्पका प्रयोजन व फल है ।। ४. अन्य सम्बन्धित विषय १. जय पराजय व्यवस्था-दे० न्याय/२ । २. वाद जल्प व वितंडामें अन्तर-दे० वाद । ३. बाह्य और अन्तर जल्प-दे० वचन/१। ४. नैयायिकों द्वारा जल्प प्रयोगका समर्थन-दे० वितंडा । जल्पनिर्णय-आ, विद्यानन्दि (ई० ७७५-८४०) द्वारा संस्कृत
भाषामें रचित न्याय विषयक एक ग्रन्थ । जसफल-दे० जयपाल । जांबूनदा-एक विद्या-दे० विद्या। जागृत-दे० निद्रा/१/३ जाति(सामान्य)-१. लक्षण न्याय,सू./मू./२/२/६६ समानप्रवासात्मिका जाति ६६।-द्रव्योंके आपस
मे भेद रहते भी जिससे समान बुद्धि उत्पन्न हो उसे जाति कहते है। रा.वा./१/३३/५/५/२६ बुद्धचभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्ग सादृश्य स्वरूपानुगमो वा जातिः, सा चेतनाचेतनाद्यात्मिका शब्दप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रतिनियमात स्वार्थव्यपदेशभाक् । = अनुगताकार बुद्धि और अनुगत शब्द प्रयोगका विषयभूत सादृश्य या स्वरूप जाति है। चेतनकी जाति चेतनत्व और अचेतनकी जाति अचेतनत्व है क्योंकि यह अपने-अपने प्रतिनियत पदार्थ के ही द्योतक है। ध./१/१,१,१/१७/५ तत्थ जाईं तब्भवसारिच्छ-लक्षण-सामण्णं । ध./९/१,१.१/१८/३ तत्थ जाइणिमित्तं णाम गो-मणुस्स-घड-पड-त्थंभ
वेत्तादि । तद्भव और सादृश्य लक्षणवाले सामान्यको जाति कहते हैं । गौ, मनुष्य, घट, पट, स्तम्भ और वेत इत्यादि जाति निमित्तक नाम है।
२. जीवोंकी जातियोंका निर्देश घ./२/१,१/४१६/४ एइंदियादी पंच जादीओ, अदीदजादि विअस्थि ।
एकेन्द्रियादि पाँच जातियाँ होती हैं और अतीत जातिरूप स्थान भी है।
३. चार उत्तम जातियोंका निर्देश म पु/३६/१६८ जातिरैन्द्री भवेदिव्या चक्रिणां विजयाश्रिता। परमा
जातिराहन्त्ये स्वारमोत्था सिद्धिमीयुषाम् । =जाति चार प्रकारकी हैं-दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा। इन्द्रके दिव्या जाति होती है, चक्रवर्तियोके विजयाश्रिता, अर्हन्तदेवके परमा और मुक्त जीवोंको स्वा जाति हाती है।। जाति ( नामकर्म)-१. लक्षण स, सि/८/११/३८६/३ तासु नरकादिगतिष्वव्यभिचारिणा सादृश्येने की
कृतोऽत्मिा जातिः। तन्निमित्तं जाति नाम ।उन नारकादि गतियोमे जिस अव्यभिचारी सादृश्यसे एकपनेका बोध होता है, वह जाति है। और इसका निमित्त जाति नामकम है। (रा. वा/८/११/
२/५७६/१०); (गो.क./जी.प्र./३३/२८/१६) घ.६/१,६-१,२८/५१/३ तदो जत्तो कम्मरवधादो जीवाणं भूओ सरिसत्तमुप्पज्जदे सो कम्मक्रवंधो कारणे कज्जुवयारादो जादि त्ति भण्णदे।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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