________________
कर्म कारक
व्यक्तिरूप जीवगत भावकर्म है और पुद्गलपिंडकी शक्तिरूप पुद्गल अव्यय भावकर्म है। कहा भी है- यहाँ उपरोक्त गाथा ही उद्धृत की गयी है। यहाँ रात देकर समझाते है जैसे कि मीठे या खट्टेको खानेके समय जीवको जो मीठे खादी व्यक्ति का विकल्प उत्पन्न होता है वह जीवगत भाव है; और उस व्यक्तिके कारण मीठे की जो शक्ति है, सो गद्रव्यगत भाव है। इस प्रकार जीवगत व पुद्गलगतके भेदसे दो प्रकार भावकर्मक स्वरूप भावकर्मका कथन करते समय सर्वत्र जानना चाहिए ।
६. ज्ञप्ति परिवर्तनरूप कर्म भी संसारका कारण है
|
प्र. सा./त. प्र. / २३३ न च परात्मज्ञानशून्यस्य परमात्मज्ञानशून्यस्य वा मोहादिद्रव्यभावकर्मणा परिवर्तनरूपकर्मणा ना क्षपणं स्पाय तथाहि...मोहरागद्वेषादिभावे सामायो मध्याविभागा भावान्मोहादिद्रव्यभावकर्मणं न सिद्ध तथा च शेयनिष्ठतथा प्रतिवस्तु पातोत्पातपरिणतत्वेन ज्ञप्तेरासंसारात्परिवर्तमानायाः परमात्मनित्यमन्तरेणानिवार्यपरिवर्ततया इमपरिवर्तरूपकर्मणी क्षपणमपि न सिद्धयेत् । = आगमके बिना परात्मज्ञान व परमात्मज्ञान नहीं होता और उन दोनोंसे शुन्यके मोहादि द्रव्यभाव कमका या ज्ञप्ति परिवर्तन रूप कर्मों का क्षय नहीं होता। वह इस प्रकार है किमोहरागद्वेषादि भावों के साथ एकताका अनुभव करनेसे अध्यचातक के विभागका अभाव होनेसे मोहादि द्रव्य व भाव कर्मोंका क्षय सिद्ध नहीं होता । तथा ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तुके उत्पाद विनाशरूप परिणमित होनेके कारण अनादि संसारसे परिवर्तनको पानेवाली जो शति, उसका परिवर्तन परमात्मनिता के अतिरिक्त अनिवार्य होनेसे परिवर्तनरूप रूमका क्षय भी सिद्ध नहीं होता।
० शरीरको उत्पत्ति कर्माधीन है।
न्या
या सु./मू व टी./३-२/६३/२९१ पूर्वकृतफलानुबन्धात्तदुत्पतिः । ६३ । पूर्वशरीरे या प्रवृत्तिर्वा बुद्धिशरीरारम्भलक्षणा पूर्वकर्मो ं तस्य फलं तज्जनिती धर्माधर्मी तत्फलस्यानुबन्ध आत्मसमवेतस्याव स्थानं तेन प्रयुक्तेभ्यो भूतेभ्यस्तस्योत्पत्तिः शरीरस्य न स्वतन्त्रेभ्य इति पूर्वकृत फलके अनुबन्धसे उसकी उत्पत्ति होती है । ६३ । पूर्व शरीरोमे किये मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिरूप कर्मोके फलानुबन्ध से देहकी उत्पत्ति होती है, अर्थात् धर्माधर्मरूप अदृष्टसे प्रेरित पंचभूतोंसे शरीरकी उत्पत्ति होती है भूतोंसे नहीं (रा.वा./ ५/२६/१/४८८/२१) |
।
८. कर्मसिद्धान्त जाननेका प्रयोजन
सम
१२६ । यदि भ्रमण
प्र.सा./मू./१२६ करणं क फ च अन्त परिणमदिन अदि अपर्ण दि 'कर्ता, करण, कर्म और कर्मफल आत्मा है ऐसा निश्चयवाता होता हुआ अन्यरूप परिणमित नही ही हो तो वह शुद्ध आत्माको उपलब्ध करता है । पं.का/ता.वृ./५५/२०५/१७ अत्र यदेत्र शुद्धनिश्चयनयेन मूलोत्तर प्रकृतिरहितं वीतरागपरमाह्लादै करूपचैतन्य प्रकाशसहितं शुद्धजीवास्तिकायस्वरूपं तदेयोपादेयमिति भावार्थः यहाँ ( मनुष्यादि नामप्रकृतियुक्त जीवो के उत्पाद मिनाशके प्रकरण) जो शुखनिधयनयसे होतियो से रहित और वीतराग परमाह्लाद रूप एक चैतन्यप्रकाश सहित शुद्ध जीवास्तिकायका स्वरूप है वह ही उपादेय है. ऐसा भावार्थ है ।
कर्म कारक - दे० कर्ता ।
Jain Education International
२९
कर्म प्राभृत टीका
कर्मक्षय वृत
व्रत विधान संग्रह / १२१ कुल समय - २६६ दिन कुल उपवास १४८ कुल पारणा - १४८ ॥ विधि-सात प्रकृतियोके नाशार्थं चतुर्थियों के ७ उपवास; तीन प्रकृतियोंके नाशार्थ ३ सप्तमियोंके ३ उपवास; बत्तीस प्रकृतियोंके नाशार्थ २६ नवमियोंको ३६ उपवास एक प्रकृतिके नाशार्थ १ दशमीका उपवास १६ प्रकृतियोंके नाशार्थ १६ द्वा शियो १६ उपवास और ८५ प्रकृतियोंके नाशार्थ ८५ चतुर्दशियों के ८५ उपवास । इसप्रकार कुल १४८ उपवास पूरे करे "ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं" इस मंत्र का त्रिकाल जाप्य करे ।
पु. / ३४ / १२९ २६६ दिन तक लगातार १ उपवास व १ पारणाके क्रम से १४८ उपवास व १४० ही पारणा करे "सर्वकर्मरहिताय सिद्धाय नमः " इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे ।
I
कर्म चूर व्रत - कुल समय २वर्ष मास अर्थात् १२ मासकी ६४६४ दिन विधि नं. १-१ प्रथम आठ अहमियोंके आठ उपवास; २. दूसरी आठ अष्टमियोंके आठ कांजिक आहार; ( भात व जल ) ३. तीसरी बाठ अष्टमियोंको केवल तंदुलाहा ४. चौथो आठ अष्टमियोंको एक ग्रासाहार; ५० पाँचवीं आठ अष्टमियोंको एक कुरही मात्र बाहार ६. छठी आठ अष्ठमियोंको एक रस व एक अन्नका आहार ७. सातवीं आठ अष्टमियोंको एकलठाने; ८. आठवीं आठ अष्टमियोंको रूक्ष अन्नका आहार । "ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने नम इस मन्त्रका त्रिकाल विधानसंग्रह / पृ. ४८ ), ( वर्द्धमान पुराण ) ।
नं २ - उपरोक्त क्रममें ही - नं. १ वाले स्थानमें उपवास, नं. २ वाले में एकलटाना, नं. ३ वालेमें एक ग्रास; नं. ४ बालेमें नीरस भोजन नं. ५ वाले एक ही प्रकारके फलोंका आहार नं. ६ मालेमें केवल चावल; नं. ७ वालेमें लाडू; नं. ८ वालेमें कांजी आहार ( भात व जल ) ( व्रत विधान संग्रह / पृ १५ ) ( किशनसिह क्रिया कोश ) । कर्म चेतना - दे० चेतना ।
कर्मस्व ८/१२/१२ कर्म भावाद कर्म१२२
प्रत्येक कर्ममें रहनेवाला सामान्य व नित्य धर्म कर्म है। कर्म निर्जरा व्रत विधि- १. दर्शन निशुद्धिके अर्थ आषाढ शु.
१४; २. सम्यग्ज्ञानकी भावनाके अर्थ श्रावण शु. १४. ३. सम्यक्चारित्रकी भावना के अर्थ भाद्रपद शु. १४ और ४. सम्य तपकी भावना के अर्थ आसोज (कार) शु. १४ । इन चार तिथियोंके चार उपवास । जाय मन्त्र --- नं. १ के लिए 'ॐ ह्रीं दर्शविशुद्धये नमः ; नं. २ के लिए 'ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नमः नं. ३ के लिए ॐ ह्रीं सम्यचारित्राय नमः' और नं ४ के लिए 'ॐ ह्रीं सम्यक्तपाय नमः'। उस उस दिन उस उस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करना । ( व्रत - विधान संग्रह / पू. १५) (किशन सिंह किया कोटा ) |
•
कर्म प्रकृति
का भेद
० प्रकृति
ज्ञान का एक अ -१० परिशिष्ट १
दे०
कर्म प्रकृति चूणि- ३० परिशिष्ट १ कर्म प्रकृति रहस्य- आ. अभयमन्दि ( ई० १३०-१५०) पृत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
एक रंचना ।
कर्म प्रकृति विधान
बनारसीदास (ई. १६९६-१६६७) द्वारा रचित कर्म सिद्धान्त विषयक भाषा ग्रन्थ । कर्म प्रवाद- श्रुतज्ञानका ७वाँ पूर्व- दे० श्रुतज्ञान / III
कर्म प्राभूत टीका-आसमन्तभद्र (ई. श. २) कृत कर्मसिद्धान्त विषयक एक संस्कृत भाषा बद्ध ग्रन्थ । - दे० समन्तभद्र |
www.jainelibrary.org