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७. निश्चय व्यवहारधर्ममे कथंचित मोक्ष "
८. परन्तु सम्बक म्यवहारधर्मसे उत्पन्न पुण्य विशिष्ट
प्रकारका होता है द्र.सं./टी./३६/१५२/५ तद्भवे तीर्थंकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति । -(सम्यग्दृष्टिकी शुभ क्रियाएँ) उस भवमें तीर्थकर प्रकृति आदि रूप विशिष्ट पुण्यबन्धकी कारण होती है (द्र.सं/टी/३८/ १६०/२); (प्र.सा./ता.व./६/८/१०), (प.प्र./टी./२/६/७१/१६६/६)1 प.प्रा./टी./२/६०/१२/१ इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरत्नत्रयाराधना
रहितेन दृष्ट श्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव ममकाराहंकारं जनयति, बुद्धिविनाशं च करोति । न चे पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् । यदि पुनः सर्वेषां मदं जनयति तर्हि ते कथ पुण्यभाजनाः सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गता इति भावार्थः। -जो यह पुण्य पहले कहा गया है वह सर्वत्र समान नहीं होता। भेदाभेद रत्नत्रयकी आराधनासे रहित तथा दृष्ट श्रुत व अनुभूत भोगौकी आकांक्षारूप निदानबन्धवाले परिणामोंसे सहित ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा जो पूर्वभवमें उपाजित किया गया पुण्य होता है, वह ही ममकार व अहंकारको उत्पन्न करता है तथा बुद्धिका विनाश करता है। परन्तु सम्यक्त्व आदि गुणोंके सहित उपाजित पुण्य ऐसा नहीं करता, जैसे कि भरत, सगर, राम, पाण्डव आदिका पुण्य । यदि सभी जीवोंका पुण्य मद उत्पन्न करता होता तो पुण्यके भाजन होकर भी वे मद अहंकारादि विकल्पोंको छोड़कर मोक्ष कैसे जाते. (और भी-दे० मिथ्याष्टि/४); (मिथ्याष्टिका पुण्य पापानुबन्धी होता है पर सम्यग्दृष्टिका पुण्य पुण्यानुबन्धी होता है)। ९. सम्यक व्यवहारधर्म निजराका तथा परम्परा मोक्षका कारण है
... परन्तु निश्चय सहित ही व्यवहार मोक्षका कारण है रहित नहीं स.सा./म./१५६ मोत्तूण णिच्छयह्र बवहारेण विदुसा पवट्ट'ति । परमठमस्सिदाण दु जदीण कम्मस्वओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोडकर विद्वान व्यवहारके द्वारा प्रवर्तते हैं. परन्तु परमार्थ
के आश्रित यतीश्वरोंके ही कोंका नाश आगममें कहा गया है। स.श./७१ मुक्तिरेकान्तिकी तस्य चित्ते यस्याचलाधृतिः। तस्य नै कान्तिको मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः। -जिस पुरुषके चित्तमें आत्मस्वरूपकी निश्चल धारणा है, उसकी नियमसे मुक्ति होती है, और जिस पुरुषको आत्मस्वरूपमें निश्चल धारणा नहीं है, उसकी अवश्यम्भाविनी मुक्ति नहीं होती है ( अर्थात् हो भी और न
भी हो)। प प्र./टी./२/१६१ यदि निजशुद्धात्मैवोपादेय इति मंत्वा तत्साधकस्बेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परम्परया मोक्षसाधकं भवति, नो चेत पुण्यबन्धकारणं तमेवेति । - यदि 'निज शुद्धात्मा ही उपादेय है' ऐसी श्रद्धा करके, उसके साधकरूपसे तदनुकूल तपश्चरण (चारित्र) करता है, और उसके ही विशेष परिज्ञानके लिए शास्त्रादि पढता है तो वह भेद रत्नत्रय परम्परासे मोक्षका साधक होता है। यदि ऐसा न करके केवल बाह्य क्रिया करता है तो वही पुण्यबन्धका कारण है । (पं.का। ता.व./१७२/२४६/8); (प्र.सा./ता.वृ./२५५/३४६/१) । ११. यद्यपि मुख्यरूपसे पुण्यबन्ध ही होता पर परम्पस
से मोक्षका कारण पड़ता है प्र.सा./ता.व./२५५/३४८/२० यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वक
शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परंपरया निर्वाणं च । - जब पूर्वसूत्रमें कहे अनुसार सम्यनत्वपूर्वक शुभोपयोग होता है तन मुख्यरूपसे तो पुण्यबन्ध होता है, परन्तु परंपरासे निर्वाण भी होता है।
'निज शुद्धामाति, नो चेन पुण्याकं च पठति तदा
प्र.सा./मू. प्रक्षेपक/-२ तं देवदेवं जदिवरवसहं गुरु तिलोयस्स । पणमति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्रवयं जंति। -जो त्रिलोकगुरु यतिवरवृषभ उस देवाधिदेवको नमस्कार करते हैं, वे मनुष्य अक्षय
मुख प्राप्त करते हैं। भाव संग्रह/४०४,६१० सम्यग्दृष्टे. पुण्यं न भवति संसारकारण नियमाव। मोक्षस्य भवति हेतु. यदि च निदानं न करोति ।४०४। आवश्यकादि कर्म वैयावृत्त्यं च दानपूजादि। यत्करोति सम्यग्दृष्टिस्तत्सर्व निर्जरानिमित्तम् ।६१० सम्यग्दृष्टिका पुण्य नियमसे] संसारका कारण नहीं होता, बलिक यदि वह निदान न करे तो मोक्षका कारण है।४०४। आवश्यक आदि या वैयावृत्ति या दान पूजा आदि जो कुछ भी शुभक्रिया सम्यग्दृष्टि करता है, वह सबकी सब उसके लिए निर्जराकी निमित्त होती है। पु.सि.उ./२११ असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः। सविषक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न अन्धनोपायः ।२१। -भेदरत्नत्रयकी भावनासे जो पुण्य कर्मका वन्ध होता है वह यद्यपि रागकृत है, तो भी वे मिथ्यादृष्टिकी भाँति उसे संसारका कारण नहीं है बल्कि परम्परासे मोक्षका ही कारण है। नि.सा./ता.वृ./७६/क. १०७ शीलमपवर्गयोषिदनमुखस्यापि मूलमाचार्याः । प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परम्पराहेतुः । आचार्योंने शीलको मुक्तिसुन्दरीके अनंगसुखका मूल कारण कहा। व्यवहारादमक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है। 1.सं./टी./३६/१५२/६ पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। -(वह विशिष्ट पुण्यबन्ध ) परम्परासे मुक्तिका कारण है।
१२. परम्परा मोक्षका कारण कहनेका तात्पर्य पं.का./ता../१७०/२४३/१५ तेन कारणेन यद्ययनन्तसंसारछेदं करोति कोऽप्यचरमदेहस्तद्भवे कर्मक्षयं न करोति तथापि...भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपदं लभते। तत्र...पञ्चविदेहेषु गत्वा समवशरणे वीतरागसर्वज्ञानं पश्यति...तदनन्तरं विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थ गुणस्थानयोग्यमात्मभावनामपरित्यजन् सन् देवलोके कालं गमयति ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रमादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनामलेन मोहं न करोति ततश्च विषयमुख परिहत्य जिनदीक्षा गृहीत्वा निर्विकल्पसमाधिविधानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजशुद्धात्मनि स्थित्वा मोक्षं गच्छतीति भावार्थः। -- उस पूजादि शुभानुष्ठानके कारणसे यद्यपि अनन्तसंसारकी स्थितिका छेद करता है, परन्तु कोई भी अचरमदेही उसी भवमें कर्मक्षय नहीं करता। तथापि भवान्तरमें देवेन्द्रादि पदोंको प्राप्त करता है। तहाँ पंचविदेहोंमें जाकर समवशरणमें तीर्थंकर भगवान के साक्षात दर्शन करता है। तदनन्तर विशेष रूपसे दृढ़धर्मा होकर चतुर्थ गुणस्थानके योग्य आत्मभावनाको न छोड़ता हुआ देवलोकमें काल गवाता है। जीवनके अन्त में स्वर्ग से चयकर मनुष्य भवमें चक्रवर्ती आदिकी विभूतिको प्राप्त करके भी पूर्वभवमें भावित शुद्धात्मभावनाके बलसे मोह नहीं करता। और विषयसुखको छोड़कर जिनकीक्षा ग्रहण करके निर्विकल्पसमाधिको विधिसे विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजशुद्धारमामें स्थित होकर मोक्षको प्राप्त करता है। (द्र.सं./टी./३८/ १६०१); (इ.सं./टी./३५११४५/६); (धर्मध्यान/५/२); (भा.पा./टी./०१/ २३३१६)।
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