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________________ गणित २१८ गणित विषयक प्रमाण ६. उपमा प्रमाणको प्रयोग विधि नन्त लिया जाता है। जहाँ अनन्तानन्तका प्रकरण आता है वहाँ अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त लेना चाहिए। ह, पु./७/२२ 'सोवा द्विगुणितो रज्जुस्तनुवातोभयान्तभाग्। निष्पद्यते त्रयो लोका प्रमीयन्ते बुधैस्तथा ।।२। द्वीपसागरोके एक दिशाके विस्तारको दुगुना करनेपर रज्जुका प्रमाण निकलता है। यह रज्जु दोनों दिशाओं में तनुवातवलयके अन्त भागको स्पर्श करती है। विद्वान् लोग इसके द्वारा तीनों लोकोंका प्रमाण निकालते है। १६० द्वीप, समुद्र इन सबका प्रमाणभरी, युग २. द्रव्य क्षेत्रादि प्रमाणोंकी अपेक्षा सहनानियाँ १. लौकिक संख्याओंकी अपेक्षा सहनानियाँ ति.प./१/११०-११३ उस्सेहअंगुलेणं सुराणणरतिरियणारयाण च। उस्सेहंगुलमाणं चउदेवणिदेणयराणि ॥११०। दीवो दहिसेलाणं वेदीण णदीण कुंडनगदीणं । वस्साणं च पमाणं होदि पमाणुंगलेणेव ॥१११२ । भिंगारकलसदप्पणवेणुपडहजुगाणसयणसगदाणं । हलमूसलसत्तितोमरसिंहासणबाणणालिअक्वाणं ।११। चामरदंदुहिपीढच्छत्ताणं नरणिवासणगराणं । उज्जाणपह दियाण संस्खा आदंगुलं णेया।११३। नत्सेधांगुलसे देव, मनुष्य, तिर्यंच एवं नारकियोंके शरीरकी ऊँचाईका प्रमाण और चारों प्रकारके देवोंके निवास स्थान व नगरादिकका प्रमाण जाना जाता है ।११०॥ द्वीप, समुद्र, कुलाचल, वेदी, नदी, कुण्ड या सरोवर, जगती और भरतादि क्षेत्र इन सबका प्रमाण प्रमाणागुलसे ही हुआ करता है ।१११। झारी, कलश, दर्पण, वेणु, भेरी, युग, शय्या, शकट ( गाडी या रथ ) हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नालि, अक्ष, चामर, दंदुभी, पीठ, छत्र ( अर्थात् तीर्थंकरों व चक्रवर्तियों आदि शलाका पुरुषोंकी सर्व विभूति) मनुष्यों के निवास स्थान व नगर और उद्यान आदिकोकी संख्या आत्मागुल से समझना चाहिए ।१११-११३. ( रा. वा./३/३८/६/२०७/३३) ति.प./१/६४ ववहारुद्वारद्धातियपल्ला पढमयम्मि संखाओ। विदिये दीवसमुद्दा तदिये मिज्जेदि कम्मठिदि।१४। व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य और अद्धापल्य ये पत्यके तीन भेद हैं। इनमें से प्रथम पस्यसे संख्या (द्रव्य प्रमाण ); द्वितीयसे द्वीप समुद्रादि ( की संख्या ) और तृतीयसे कर्मोंका (भव स्थिति, आयु स्थिति, काय स्थिति आदि काल प्रमाण लगाया जाता है। (ज. प./१३/३६); (त्रि. सा./६३) स. सि./३/३८/२३३/५ तत्र पल्यं त्रिविधम-व्यवहारपत्यमुद्धारपत्यमद्धापल्यमिति । अन्वर्थसंज्ञा एताः। आद्य व्यवहारपल्यमित्युच्यते, उत्तरपन्यद्वयव्यवहारबीजत्वात् । नानेन किंचित्परिच्छेद्यमस्तीति। द्वितीयमुद्धारपत्यम् । तत उद्धृतैर्लोमकच्छेदैर्वीपसमुद्रा' संख्यायन्त इति । तृतीयमद्धापल्यम् । अद्धा कालस्थितिरित्यर्थः।"अर्धतृतीयोद्वारसागारोपमाना यावन्तो रोमच्छेदास्तावन्तो द्वीपसमुद्रा। ""अनेनाद्धापन्येन नारकर्यग्योनीनां देवमनुष्याणां च कर्म स्थितिभवस्थितिरायुःस्थितिः कायस्थितिश्च परिच्छेत्तव्या। = पत्य तीन प्रकारका है-व्यवहारपल्य, उद्धारपस्य और अद्धापल्य । ये तीनो सार्थक नाम हैं। आदिके पल्यको व्यवहारपत्य कहते हैं; क्यों कि यह आगेके दो पत्योंका मूल है। इसके द्वारा और किसी वस्तुका प्रमाण नहीं किया जाता । दूसरा उद्धारपत्य है। उद्धारपल्यमेंसे निकाले गये रोमके छेदों द्वारा द्वीप और समुद्रों की गिनती की जाती है। तीसरा अद्भापत्य है। अद्धा और काल स्थिति ये एकार्थवाची शब्द हैं।...ढाई उद्धार सागरके जितने रोम खण्ड हों उतने सब द्वीप और समुद्र हैं।.. अद्धापत्यके द्वारा नारकी, तिर्यच, देव और मनुष्योंकी कर्म स्थिति, भवस्थिति, आयुस्थिति और कायस्थितिकी गणना करनी चाहिए। (रा. वा./३/३८/७/२०८/७,२२ ) ( ह. पु./ ७/५१-५२); (ज. प./१३/२८-३१) रा. वा./२/३८/१/पृष्ठ/पंक्ति यत्र संख्येन प्रयोजग तत्राजघन्योत्कृष्टसंख्येयग्राह्यम् ।२०६/२६ । यत्रावलिकाया कार्य तत्र जघन्ययुक्तासख्येयग्राह्यम् ।२०७।३ । यत्र संख्येयासंख्येया प्रयोजनं तत्राजघन्योस्कृष्टासंख्येयासंख्येयं ग्राह्यम् ।२०७/१३। अभव्यराशिप्रमाणमार्गणे जघन्ययुक्तानन्तं ग्राह्यम् ।२०७/१६) यत्राऽनन्तानम्तमार्गणा तत्राजघन्योत्कृष्टाऽनन्ताऽनन्तं ग्राह्यम् ।५०७/२३/ - जहाँ भी संख्यात शब्द आता है। वहाँ यही अजघन्योत्कृष्ट संरख्यात लिया जाता है। जहाँ आवलीसे प्रयोजन होता है, वहाँ जघन्य युक्तासंख्येय लिया जाता है। असंख्यासंख्येयके स्थानोंमें अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय विवक्षित होता है। अभव्य राशिके प्रमाण में जघन्य युक्ता गो. जी./अर्थ संदृष्टि/पृ.१/१३ तहाँ कहीं पदार्थ निके नाम करि सहनानी है। जहाँ जिस पदार्थका नाम लिखा होई तहाँ तिस पदार्थकी जितनी संख्या होइ तितनी सरव्या जाननी । जैसे-विधु-१ क्योंकि दृश्यमान चन्द्रमा एक है। निधि-६ क्योंकि निधियोंका प्रमाण नौ है। ___बहुरि कहीं अक्षरनिकौ अंकनिकी सहनानीकरि संख्या कहिए हैं। ताका सूत्र-कटपयपुरस्थवर्णैर्नवनवपश्चाष्टकल्पितैः क्रमशः। स्वरव्यअनशून्यं संख्यामात्रोपरिमाक्षरं त्याज्यम् । अर्थात् क, ख, ग, घ. ङ, च, छ, ज, झ (ये नौ), ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द,ध (ये नौ) १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८६ प, फ, ब, भ, म (ये पाँच ), य, र, ल, व, श, ष, स, ह (ये आठ.) १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ बहुरि अकारादि स्वर वा 'ब' वा 'न' करि बिन्दी जाननी। वा अक्षरकी मात्रा वा कोई ऊपर अक्षर होइ जाका प्रयोजन किच्छु ग्रहण न करना। (तात्पर्य यह है कि अंकके स्थानपर कोई अक्षर दिया हो तो तहाँ व्यब्जनका अर्थ तो उपरोक्त प्रकार १, २ आदि जानना। जैसे कि-ड, ण, म, श इन सबका अर्थ है । और स्वरोका अर्थ बिन्दी जानना। इसी प्रकार कही बया न का प्रयोग हुआ तो वहाँ भी बिन्दी जानना। मात्रा तथा संयोगी अक्षरोको सर्वथा छोड़ देना। इस प्रकार अक्षर परसे अक प्राप्त हो जायेगा। (गो. सा /जी. का/को अर्थ संदृष्टि) लक्ष :ल जघन्य ज्ञान :ज. ज्ञा. कोटि (क्रोड) : को. लक्षकोटिल. को, (जघन्यको आदि कोडाकोडी :को. को. 17 लेकर अन्य भी : जम् अन्तःकोटाकोटि : अं. को. को 5६५ को आदि लेकर जघन्य ज० अन्य भी उत्कृष्ट : उ० एकट्ठी :१८% अजघन्य :अज० बादाल :४२साधिक जघन्य: ज पणही :६५नोट-इसी प्रकार सर्वत्र प्रकृत नामके आदि अक्षर उस उसकी सह नानी है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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