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________________ तप " 1-समाधान १ देवादि पदोंकी प्राप्तिका कारण तप निर्जराका कारण कैसे। २ ३ ६ तपकी प्रवृत्ति निवृत्तिका अंश ही संवरका कारण है -३० संवर/२/५ दुःख प्रदायक तपसे असाताका आस्रव होना चाहिए । तप से इन्द्रिय दमन कैसे होता है । * तप धर्म भावना व प्रायश्रित निर्देश धर्म से पृथक् पुनः तपका निर्देश क्यों -दे० निर्जरा/२/४ कायक्लेव तप व परिषदजय अन्तर १ शक्तितस्तप भावनाका लक्षण २ शक्तितस्तप भावना शेष १५ भावनाओंका समावेश शक्तितस्तप भावनासे ही तीर्थंकर प्रकृतिका संभव -दे० भावना/२ । - दे० कायक्लेश | ३ तप प्रायवित्तका क्षण । * तप प्रायश्चित्तके अतिचार ० वह वह नाम । तप प्रयन्त किस अपराधमें तथा किसको दिया जाता है । - दे० प्रायश्चित्त/४ । - दे० Jain Education International १. भेद व लक्षण १. तपका निश्रय लक्षण- १ - निरुक्तप 1 स.सि./६/६/४१२ / ११ कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः । - कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है ( रा. बा./६/६/१०/५१८/२); (७. सा / ६/९८/३४४) । रा.मा./६/१६/१८/११/३९ कर्मदहनाच कर्मको दहन अव भस्म कर देनेके कारण तप कहा जाता है। .वि./१/८ कर्ममलविलयहेतोर्बोधदृशा तप्यते तपः प्रोक्तम् । = सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले साधुके द्वारा जो कर्मरूपी मैलको दूर करनेके लिए तपा जाता है उसे तप कहा गया है। ( चा. सा० / १३३ / ४ ) । ३५८ २. आत्मनि प्रतपनः बा. अ. / ७७ विसयकसायविणिग्गहभाव काउण झाणसिज्झीए । जो भाव अप्पाण तस्स तवं होदि नियमेण 1991 - पाचौं इन्द्रियोंके विषयोंको तथा चारों कषायों को रोककर शुभध्यानकी प्राधिके लिए जो अपनी आत्माका विचार करता है, उसके नियमसे तप होता है। प्र. सा./त.प्र./१४/१६/३ स्वरूपविश्रान्तनिस्तरतन्यप्रतपनाचराः । - स्परूप विश्रान्त निस्तरंग चैतन्य प्रतपन होनेसे उपयुक्त है। (प्र.सा./ता.वृ./०६/१००/१२) (सं./१२/२.१६/३) । नि.सा. २.११८, १२३ सहज निश्चवनयात्मकपरमस्वभावात्मक परमात्मनि प्रतपनं रूप ५५ प्रतिकारणपरमात्मतत्वे सदान्त मुखतया प्रतपनं यत्तत्तप । ११८ आत्मानमात्मन्यात्मना संघत्त इश्यध्यात्मं तपनम् सहज निश्चय नयात्मक परमस्वभावस्वरूप परमात्मामें प्रतपन सो तप है । ५५। प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्वमे " ९. भेद व लक्षण सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप... है ।११८ ॥ आत्माको आत्मामें आत्मासे धारण कर रखता है-टिका रखता है-जोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है । ३. इच्छा निरोध मोक्ष पंचाशय / ४८ तस्माद्वीर्यसमुद्रेकादिरोधस्तपो विदुः । बाह्यं बाबासंतमान्तरं मानसं स्मृतम् ॥४॥ बीर्यका उद्रेक होनेके कारण से इच्छा निरोधको तप कहते है ।... घ. १३/२.४.२६/५४/१२ तिष्णं रममाणमाविभावमिच्छागिरोहो तीनों रत्नोको प्रगट करनेके लिए इच्छा निरोधको रूप कहते हैं। (चा, सा./१३३/४)। नि.सा./ता.वृ./६/१५ में विसयजिगहो जत्य तुप यह है जहाँ विषयोंका निग्रह है। प्र. सा./ता.वृ./०६/१००/१२ समस्तभावेच्यामागेन स्वस्वरूपे प्रतपन विजयनं तपः । =भावों में समस्त इच्छाके त्यागसे स्व-स्वरूपमें प्रतपन करना, विजयन करना सो तप है। द्र.सं./ २१ / ६३ / ४ समस्त बहिर्द्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरण । संपूर्ण बाह्य द्रव्योकी इच्छाको दूर करनेरूप लक्षणका धारक तपश्चरण । (प्र. सं./३६/९६९/०); (द्र.सं./५२/२१६/३ जन. प./७/२/६५६ तपो मनोऽक्षकायाणां तपनाव संनिरोधनाय निरु ते गायाविर्भावाच्या निरोधनम् ॥२॥ तप शब्दका अर्थ समीचीनतया निरोध करना होता है। अतएव रत्नत्रयका आविर्भाव करनेके लिए इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयोंकी आकांक्षा निरोधका नाम तप है । ४. चारित्रमें उद्योग भ. आ./मू./१० चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आजगाय जो होई सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरं तस्स | १०| चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग किया जाता है जिनेन्द्र भगवान् उसको ही तप कहते हैं । २. तपका व्यवहार लक्षण कुरल का./२०/१ सर्वेषामेव जोवानां हिसाया विरतिस्तथा । शास्या • हि सर्वदुःखानां सहनं तप इष्यते । शान्तिपूर्वक दुःख सहन करना और जीवहिंसा न करना, बस इन्हीं में तपस्याका समस्त सार है । स. सि. / ६ / २४ / ३१८ / १२ अनिगृहीतवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तप' | किन छिपाकर मोक्षमार्गके अनुकूल शरीरको लेश देना यथाशक्ति है (रा.वा./१२/४/७/५२१)। रा.वा./१/११/२९/६११/३३ देहस्येन्द्रियाणां च तापं करोतीरवनशनादि[अस] तप हरमुच्यते देह और इन्द्रियोंको विषय प्रवृत्तिको रोककर उन्हें तपा देते है । अतः ये तप कहे जाते हैं । रा. वा./६/२४/१/५२६/३२ यथाशक्ति मार्गाविरोधिकायक्लेशानुष्ठानं तप इति निश्चीयते । अपनी शक्तिको न छिपाकर मार्गाविरोधी कायक्लेश आदि करना तप है। (चा. सा./१३३/३); (भा.पा./टी./ ७७/२२१/८ ) । - का. अ./मू./४०० इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम भावो । fara काय - कलेसं तवधम्मो णिम्मलो तस्स । -जो समभावी इस लोक और परलोक सुखकी अपेक्षा न करके अनेक प्रकारका काम क्लेश करता है उसके निर्मत तपधर्म होता है। ३. श्रावककी अपेक्षा तपके लक्षण प.पू./१२/२४२-२४३ नियमश्च तपश्चेति इयन भियते २४२॥ तेन युक्तो जनः शक्त्या तपस्वीति निगद्यते । तत्र सर्व प्रयत्नेन मतिः कार्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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