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ज्ञान
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IV निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान
आ. अनु/१७४-११५ ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युति.। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।१७४। ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥१७॥मुक्तिकी अभिलाषा करनेवालेको मात्र ज्ञानभावनाका चिन्तवन करना चाहिए कि जिससे अविनश्वर ज्ञानकी प्राप्ति होती है परन्तु अज्ञानी प्राणी ज्ञानभावनाका फल ऋद्धि
आदिकी प्राप्ति समझते हैं, सो उनके प्रबल मोहकी महिमा है। स. सा/आ/१५३/क १०५ यदेतद् ज्ञानारमा ध्र वमचलमाभाति भवनं, 'शिवस्यायं हेतु. स्वयमपि यतस्तच्छिव इति । अतोऽन्यद्बन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत्. ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।१०५ - जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्र वरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता हुआ या परिणमता हुआ भासित होता है, वही मोक्षका हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है । उसके अतिरिक्त अन्य जो कुछ है वह बन्धका हेतु है, क्योंकि वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है। इसलिए आगममें ज्ञानस्वरूप होनेका अर्थात अनु
भूति करनेका ही विधान है। पं. का/त. प्र/१७२ द्विविधं किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्य शास्त्रतारपर्यं
चेति । तत्र सूत्रतात्पर्य प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम् । शास्त्रतात्पय त्विदं प्रतिपाद्यते । अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य साक्षान्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति । -तात्पर्य दो प्रकारका होता हैसूत्र तात्पर्य और शास्त्र तात्पर्य । उसमें सूत्र तात्पर्य प्रत्येक सूत्र में प्रतिपादित किया गया है और शास्त्र तात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है। साक्षात् मोक्षके कारणभूत परमवीतरागपने में जिसका समस्त हृदय स्थित है ऐसे इस (पंचास्तिकाय, षद्रव्य सप्ततत्त्व व नत्रपदार्थके प्रतिपादक ) यथार्थ पारमेश्वर शास्त्रका,
परमार्थ से वीतरागपना ही तात्पर्य है । (नि. सा./ता. वृ./१८७)। प्र. सा./त प्र./१४ सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्य विभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्र. । - सूत्रोके अर्थ के ज्ञानबलसे स्वद्रव्य और परद्रव्यके विभागके परिज्ञानमें, श्रद्धानमें और विधानमें समर्थ होनेसे जो श्रमण पदार्थोंको और सूत्रोको जिन्होने भलीभाँति
जान लिया है...। पं. का./त. प्र./३ ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थं शब्दसमयसंबोधनार्थसमयोऽभिधातुमभिप्रेत.। - ज्ञानसमयकी प्रसिद्धिके लिए शब्दसमयके सम्बन्घसे अर्थसमयका कथन करना चाहते हैं। प्र. सा./ता. वृ /८१,६०/१११/१६ ज्ञानात्मकमात्मानं जानाति यदि ।
पर च यथोचितचेतनाचेतनपरकीयद्रव्यत्वेनाभिसंबद्धम् । कस्मात निरच प्रत. निश्चयानुक्लं भेदज्ञानमाश्रित्य । यः स •मोहस्य क्षयं करोतीति सूत्रार्थः । अथ पूर्वसूत्रे यदुक्तं स्वपरभेद विज्ञानं तद'गमत' सिद्धयतीति प्रतिपादयति। यदि कोई पुरुष ज्ञानात्मक आत्माको तथा यथोचितरूपसे परकीय चेतनाचेतन द्रव्योंको निश्चयके अनुकूल भेदज्ञानका आश्रय लेकर जानता है तो वह मोहका क्षय कर देता है।
और यह स्त्र-परभेद विज्ञान आगमसे सिद्ध होता है। पं. का /ता वृ./१७३/२५४/१६ श्रुतभावनाया' फलं जोवादितत्त्व विषये सक्षेपेण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशत्रविमोह विभ्रमरहितो निश्चलपरिणामो भवति। - श्रुतभावनाका फल, जोवादि तत्त्वोके विषयमे अथवा हेयोपादेय तत्त्वके विषयमें संशय विमोह व विभ्रम रहित निश्चल परिणाम होना है। द्र स./टो /१/७/७ प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्व्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरञ्जनशुद्वात्मस वित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् । = इस शास्त्रका प्रयोजन व्यवहारसे तो षद्रव्य आदिका परिज्ञान है और निश्चयसे निज
निरंजनशुद्वात्मसंवित्तिमे उत्पन्न परमानन्दरूप एक लक्षणवाले सुखा
मृतके रसास्वादरूप स्वसवेदन ज्ञान है। द्र सं /टो /२/१०/६ शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं शेष चहेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवनोद्धव्यः । - शुद्ध नयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है, वह तो उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार हेयोपादेय रूपसे भावार्थ भी समझना चाहिए। ३. निश्चय व्यवहार ज्ञानका समन्वय
१. निश्चय ज्ञानका कारण प्रयोजन स. सा./आ/२६५ एतदेव किलात्मबन्धयोद्विधाकरणस्य प्रयोजन यद्गबन्धत्यागेन शुद्धात्मोपादानम् । वास्तवमें यही आत्मा और बन्धके द्विधा
करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे शुद्धात्माको ग्रहण करना है। पं. का./त. प्र /१२७ एवमिह जीवाजीवयोर्वास्तवो भेद' सम्यग्ज्ञानिनां ___ मार्गप्रसिद्धयर्थ प्रतिपादित इति । = इस प्रकार यहाँ जीव और
अजीवका वास्तविक भेद सम्यग्ज्ञानियोके मार्गकी प्रसिद्धिके हेतु प्रतिपादित किया गया है। स. सा/ता. वृ /२५ एवं देहात्मनो दज्ञानं ज्ञात्वा मोहोदयोत्पन्नसमस्तविकल्पजालं त्यक्त्वा निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रे निजपरमात्मतत्त्वे भावना कर्तव्ये ति तात्पर्यम् । इस प्रकार देह और आत्माके भेदज्ञानको जानकर, महके उदयसे उत्पन्न समस्त विकल्पजालको त्यागकर निर्विकार चैतन्यचमत्कार मात्र निजपरमात्म तत्त्वमे भावना करनी
चाहिए, ऐसा तात्पर्य है। प्र. सा./ता. वृ/१८२/२४६/१७ भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्वद्रव्ये प्रवृत्ति परद्रव्ये निवृत्ति च करोतीति भावार्थ-भेद विज्ञान हो जानेपर मोक्षार्थी जीव त्वद्रव्यमे प्रवृत्ति और परद्रव्यमें निवृत्ति करता है. ऐसा भावार्थ है। द्र.सं/टी/४२/१८३/३ निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं...उपादेय. । शेष च हेयमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति ।... तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञान ... स्वस्य सम्यग निर्विकल्परूपेण वेदनं...निश्चयज्ञानं भण्यते। -निश्चयसे स्वकीय शुद्धात्मद्रव्य उपादेय है और शेष सब हेय है। इस प्रकार संक्षेपसे हेयोपादेयके भेदसे दो प्रकार व्यवहारज्ञान है। उसके विकल्परूप व्यवहारज्ञानके द्वारा निश्चयज्ञान साध्य है। सम्यक व निर्विकल्प अपने स्वरूपका वेदन करना निश्चयज्ञान है।
२. निश्चय व्यवहारज्ञानका समन्वय प्र. सा./ता. वृ /२६३/३५४/२३ बहिरङ्गपरमागमाभ्यासेनाभ्यन्तरे स्वसवे___दनज्ञानं सम्यग्ज्ञानम् । बहिरंग परमागमके अभ्याससे अभ्यन्तर
स्वसंवेदन ज्ञानका होना सम्यग्ज्ञान है।। प. प्र / टी /२/२६/१४६/२ अयमत्र भावार्थः। व्यवहारेण सविकल्पा
वस्थाया तत्वविचारकाले स्वपरपरिच्छेदकं ज्ञानं भण्यते। निश्चयनयेन पुनर्वीतरागनिर्विकल्पसमाधिकाले बहिरुपयोगो यद्यप्यनीहितवृत्त्या निरस्तस्तथापीहापूर्वकविकल्पाभावाद्गौणत्वमिति कृत्वा स्वसवेदनज्ञानमेव ज्ञानमुच्यते । यहाँ यह भावार्थ है कि व्यवहारनयसे तो तत्त्रका विचार करते समय सविकल्प अवस्थामें ज्ञानका लक्षण स्वपरपरिच्छेदक कहा जाता है। और निश्चयनयसे वीतराग निविकल्प समाधिके समय यद्यपि अनी हित वृत्तिसे उपयोगमे से बाह्यपदार्थोंका निराकरण किया जाता है फिर भी ईहापूर्वक विकल्पोंका अभाव होनेसे उसे गौण करके स्वसंवेदन ज्ञानको ही ज्ञान कहते है। स.सा/ता. वृ/१६/१५४/८ हे भगवन्, धर्मास्तिकायोऽयं जीवोऽयमित्यादिज्ञेयतत्त्वविचारकाले क्रियमाणे यदि कर्मबन्धो भवतीति तहि ज्ञेयतत्त्व विचारो वृथेति न कर्तव्य' । नैवं वक्तव्यं । त्रिगुप्तिपरिणतनिवि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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