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III नैगम आदि सात नय निर्देश ४. द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनयके भेदोंके लक्षण व व्यञ्जनपर्ययौ। अर्थीकरोति यः सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते ।४६। उदाहरण
- (शुद्भद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्यायको गौण मुख्यरूपसे
विषय करनेवाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नै गमनय है) जैसे कि संसारमें १. अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम
सुख पदार्थ शुद्ध सतस्वरूप होता हुआ क्षणमात्रमे नष्ट हो जाता है । श्लो. वा./४/१/३३/श्लो. २८-३५/३४ अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्व- (यहाँ उत्पाद व्यय धौव्यरूप सतपना तो शद्र द्रव्य है और मुख भावतः । क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय, प्रतिपत्तु प्रजायते ।२८। यथा प्रति
अर्थ पर्याय है। तहाँ विशेषण होनेके कारण सत् तो गौण है और क्षणं वसि सुरवसं विच्छरीरिणः। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया विशेष्य होनेके कारण सुख मुख्य है ।४११) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी गुण. २६। संवेदनार्थ पर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्न
किसी एक अर्थ पर्यायको गौण मुख्य रूपसे विषय करनेवाला भिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति ।३०। कश्चिद्वयब्जनपर्यायौ विषयीकुरु
अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नै गमनय है। जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्रतडजसा । गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नै गम' ।३२। सच्चैतन्यं नरी- को सुखी है। (यहाँ सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होनेके कारण त्येवं सत्त्वस्य गुणभावतः । प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धितः गौण है और संसारी जोवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होनेके कारण मुख्य ।३३। अर्थव्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते परः । धार्मिके सुखजीवित्व- है) ।४३ शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यजनपर्यायको गौण मुख्य मित्येवमनुरोधत ॥३५॥ = एक वस्तुमे दो अर्थपर्यायोंको गौण मुख्य- रूपसे विषय करनेवाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है । जैसे कि रूपसे जाननेके लिए नयज्ञानोका जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे
यह सव सामान्य चैतन्यस्वरूप है । ( यहाँ सब सामान्यरूप शुद्धद्रव्य अर्थ पर्यायनै गम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्माका
तो विशेषण होनेके कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यञ्जन मुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहाँ उत्पाद, व्यय, धौव्यरूप सत्ता पर्याय विशेष्य होनेके कारण मुख्य है)।४५॥ अशुद्धद्रव्य और उसकी सामान्यकी अर्थपर्याय तो विशेषण हो जानेसे गौण है, और संवेदनरूप किसी एक व्यञ्जन पर्यायको गौण मुरण्यरूपसे विषय करनेवाला अर्थपर्याय विशेष्य होनेसे मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय-नैगमनय है। जैसे 'मनुष्य गुणी है' ऐसा अभिप्रायको ज्ञप्ति नहीं हो सकती ।२८-३०। एक धर्मीमें दो व्यंजन- कहना। (यहाँ 'मनुष्य' रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होनेके कारण पर्यायोंको गौण मुख्यरूपसे विषय करनेवाला व्यंजनपर्यायनै गमनय
मुख्य है और 'गुणी' रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होनेके कारण गौण है। जैसे 'आत्मामें सत्त्व और चैतन्य है'। यहाँ विशेषण होनेके
है।४६।) (रा.वा./हि /१/३३/१६६) कारण सत्ताकी गौणरूपसे और विशेष्य होनेके कारण चैतन्यकी प्रधानरूपसे ज्ञप्ति होती है ।३२-३३। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों ९. नेगमामास सामान्यका लक्षण व उदाहरण पर्यायौंको विषय करनेवाला अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि
स्या.म./२८/३१७/५ धर्मद्वयादोनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धि गमाधर्मात्मा व्यक्तिमें सुखपूर्वक जोवन वर्त रहा है। ( यहाँ धर्मात्मारूप
भासः । यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तपृथग्भूते इत्यादि । धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होनेके कारण गौण है और
दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता जोवीपनारूप व्यब्जनपर्याय विशेष्य होनेके कारण मुख्य है ।३।।
दिखानेको नैगमाभास कहते हैं। जैसे-आत्मामें सत और चैतन्य (रा. वा./हि/१/३३/१६८-१६६ ) ।
परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक) २. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम
१०. नैगमाभास विशेषोंके लक्षण व उदाहरण श्लो.वा ४/१/३३/श्लो. ३७-३६/२३६ शुद्धद्रव्यमशुद्ध' च तथाभिप्रेति यो
श्लो.बा.४/१/३३/श्लो. नं./पृष्ठ २३५-२३६ सर्वथा सुखसंबित्यो नात्वेनयः । स तु नैगम एवेह संग्रव्यवहारत.३७। सइद्रव्यं सकलं वस्तु
ऽभिमतिः पुनः। स्वाश्रयाच्चार्थ पर्यायनै गमाभोऽप्रतीतित. ।३१। तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्य. १३८यस्तु पर्यायवद्रव्यं
तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्य स्वाश्रयादपि । ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनै गगुणवद्वेति निर्णयः। व्यवहारनयाज्जातः सोऽशुद्धद्रव्यनगमः ॥३१॥
माभो विरोधत. ३४॥ भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। =शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्यको विषय करनेवाले संग्रह व व्यवहार नय
सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव नः ३६। सद्रव्यं सकलं वस्तु से उत्पन्न होनेवाले अभिप्राय ही क्रमसे शुद्धद्रव्यनैगम और
तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भदोक्तिस्तु दुर्नय ।३८। अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं । जैसे कि अन्वयका निश्चय हो जानेसे सम्पूर्ण तद्भदै कान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते । तथोक्तर्बहिरन्तश्च वस्तुओं को 'सत् द्रव्य' कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।३७-३८। (यहाँ प्रत्यक्षादिविरोधतः ।४०। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्न मेवेति संमतिः । 'सत्' तो विशेषण होनेके कारण गौण है और 'द्रव्य' विशेष्य होनेके
दुर्नीतिः स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदुः ॥४२॥ सुखजीवभिदोकारण मुख्य है ।) जो नय 'पर्यायवान द्रव्य है' अथवा 'गुणवान् द्रव्य
क्तिस्तु सर्वथा मानवाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधरसंशयात है। इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनयसे उत्पन्न होनेवाला
४४ा भिदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापतः । पूर्ववन्नै गमाभासौ अशुद्वद्रव्यनैगमनय है । (यहाँ 'पर्यायवान' तथा 'गुणवान' ये तो
प्रत्येतव्यौ तयोरपि ।४७) =१. नैगमाभासके सामान्य लक्षणवत् यहाँ विशेषण होनेके कारण गौण हैं और 'द्रव्य' विशेष्य होनेके कारण
भी धर्मधर्मी आदिमे सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनै गम व द्रव्यनगम मुख्य है।) (रा.वा./हि./१/३३/११८) नोट-(संग्रह व्यवहारनेय तथा
आदिके आभासोंका निरूपण किया गया है ।) जैसे-२ शरीरधारी
आत्मामे सुख व संवेदनका सर्वथा नानापनेका अभिप्राय रखना शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनै गमनयमें अन्तरके लिए-दे० आगे नय/III/३) ।
अर्थ पर्यायनै गमाभास है। क्योंकि द्रव्यके गुणोका परस्परमें अथवा ३. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम
अपने आश्रयभूत द्रव्यके साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है ।३१। श्लो.वा.४/१/३३/श्लो.४१-४६/२३७ शुद्धद्रव्यार्थ पर्यायनै गमोऽस्ति परो ३. आत्मासे सत्ता और चैतन्यका अथवा सत्ता और चैतन्यका यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्ध संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।४१। क्षणमेक
परस्परमें अत्यन्त भेद मानना व्यजनपर्याय नै गमाभास है ॥३४॥ सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय, । विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्र- ४. धर्मात्मा पुरुषमें सुख व जीवनपनेका सर्वथा भेद मानना व्यर्थनै गमः १४३। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यब्जनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो अर्थव्यञ्जनपर्याय-नै गमाभास है ।३६ ५. सब द्रव्योंमे अन्वयरूपसे यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय' ॥४॥ विद्यते चापरो शुद्धद्रव्य- रहनेका निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पनेको सर्वथा भेदरूप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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