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क्षेत्र
२. मनुष्य गति
नवं-४/१.३/१२/०८ मधुसअपलता केहि खेते लोगस्स असंदिभागे ॥१३॥
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ध. ४/१,३,१२/०६/२ सरयाण केदण कसाय समुग्यादेहि परिणदा. मारणंतिसमुग्धादो।...एवमुववादस्सावि । =अपर्याप्त मनुष्य स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घातसे परिणत, मारणान्तिक समुघातगत तथा उपपादमें भी होते है । ( इसके अतिरिक्त अन्य पदोमें नहीं होते ।
घ. ४/१,३,१२/०५/० मधुसिणी असंजदसम्मादिठीणं उववादो गरिव । पमते तेजाहारसमुग्धादा गरिब मनुष्यनियोंमें असंयत सम्पदृष्टियोके उपपाद नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार उन्हींके प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेजस व आहारक समुद्घात नहीं पाया जाता है। ४. देव गति
४. ४/१.३.१६/०६/३ परि असंजदसम्माट्ठी बनादो णत्थि । बागवे तर जोसियाणं देवोपयो गरि असंजदसम्माहट्टी उववादो णत्थि । =असंयत सम्यग्दृष्टियोंका भवनवासियोंमें अपपाद नहीं होता । वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र देव सामान्यके क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दटियोंको वानव्यन्तर और ज्योतिषियों में उपपाद नहीं होता है ।
३. इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं में सम्भव पदकी अपेक्षा १. इन्द्रिय मार्गणा
च.नं. ४/९.३ / १०/०४-सीदिय-नीदिय चरिंदिया तस्सेव
पज्जता अपजत्ता ११८|
बेदण-कसाय
समुग्धाद
बादरे दियमंगो
परि
त्रिपदं णत्थि । हुमेइं दिया तेसिं चैव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्याणवेद कसाय मारणांतिय उपमादगदा सम्म २.२. दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याय व अपयजीव स्वस्थान स्वस्थान, वेदना व कषायसमुद्घात तथा मारणान्तिक व उपपाद (पद में होते हैं। क्रियक समुहमा परिणत नहीं होते । ३. मादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंका क्षेत्र बादर एकेन्द्रिय ( सामान्य ) के समान है । इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तको के वैक्रियक समुद्रघात पद नही होता है । (तेजस, आहारक, केवली व वैक्रियक समुइषारा तथा बिहारवत्स्यस्थानके अतिरिक्त सर्वपद होते है) स्वस्थानस्वस्थान, बेदनासघात, कषायसमुद्रपाठ, मारणान्तिकसमुद्रघात, और उपपादको प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जोव और उन्होंके पर्याप्त जीव सर्व लोक रहते है।
प. ४/१,३,१८/८५/१ सत्थाणसत्याण
परिणदा मारणांतिय उववादगदा ।
ध. ४ / १.२.१७/०४/६ नावरेदिय अपना
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२. काय मार्गणा
घ.४/१.२.२२/१२/२एवं वाइरतेजकाइयाणं गुस्सेव अपव्यत्ताणं च परि वेवियपदमत्थि । एवं वाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च । सव्व अपनतेपदं निइसी प्रकार (अर्थाद नादर अप्कायिक व हनी के अपर जीवीके समान भावर तेजसकायिक और उन्हीके अपर्याप्त जीवोकी (स्वस्थानस्वस्थान, बिहारपरस्यस्थान, वेदना व कपाय समुद्रात मारणान्तिक व उपपाद पद सम्बन्धी ) प्ररूपणा करनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि बादर जसकाधिक जीवों के क्रियक समुहात पद भी होता है। इसी प्रकार सादर वायुकायिक और उन्होंने अपर्याप्त जीवोके पदका कथन करना चाहिए। सर्व अपर्याप्तक जीवोमें वैकियक समुदघात पद नही होता ।
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३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ
३. योग मार्गणा
घ.४/१,१.२६/१०३/१ ममवचिजोगे उववादो पत्थि । मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंमें उपपाद पद नहीं होता ।
नियम
ष. वं. ४/२,३ / सू. ३३/१०४ ओरालियकाजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओषं |३३|... उनवांदो गरि ( घनता टी० ) ।
घ. ४/१,३,३४/१०५/३ ओरालियकायजोगे सासणसम्मादिठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो परिच पमन्ते आहारसमुग्धादो परिय
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घ. ४ / १.२.२६/९०६/४ ओरालिय मिस्सजोगिभिच्छाइट्ठी सम्बलोगे | बिहार दिराण उव्वयसमुदादा मत्थितेन तेखि विरोहा। घ. ४/१,२,३६/१००० ओरालियनिस्सम्हि व्दिाणमोरालियमस्स कायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अस्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तोलियमस्सजीवाणमभावादशे च १. औदारिक काययोगियोंमें मिध्यादृष्टि जोवोंका क्षेत्र मूल बोचके समान सर्वलोक है |३३| किन्तु उक्त जीवोंके उपपाद पर नहीं होता है। २. औदारिक काययोगमै सासादन सम्पदृष्टि और असंयतसम्यग् जीवोंके उपपाद पद नहीं होता है। प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुहयात पद नहीं होता है। २. औदारिक मिश्र कायगी मिध्यादृष्टि जीन सर्व लोकमे रहते हैं। यहाँ पर विहारपद स्वस्थान और वैयिक स्वस्थान ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि औदारिक मिश्र काययोगके साथ इन पदोंका विरोध है। ४. बौदारिक- मिश्र काययोगमें स्थित जीमोंका पुनः औदारिकमिश्र काययोगियोंमें उपपाद नहीं हो है । ( क्योंकि अपर्याप्त जीव पुन नहीं मरता) अथवा उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ अक्रमसे उपात्त भव शरीरके प्रथम समय में ( अर्थात पूर्व भवके शरीरको छोडकर उत्तर भवके प्रथम समय में ) उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है, कि स्वस्थान- स्वस्थान, वेदनासमुइपात कषायमुपात केमतिसमुद्रमात और उपपाद इन पाँच स्था अतिरिक्त औदारिकमित्र काययोगी जीवोंका अभाव है।
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. . ७/२६/२६६९/३४३ बेडन्नियकायजोगी सत्य पोष समुग्धादेण केवड खेत्ते । । ५६ । उववादो णत्थि ॥ ६१॥
घ. ४ / १,३,३७/१०१/३ ( वेदव्ययकायजोगी) सम्बन्ध उनादो णत्थि ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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घ. ७/२,३,६४/३४४/६ नेजियमिस्सेण सह-मारणातिय उववादेहि सह विरोहो । १. वैकियक काययोगी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता है । २. वैक्रियक काययोगियोंमें सभी गुणस्थानों में उपपाद नहीं होता है । ३. वैक्रियक मिश्रयोगके साथ मारणान्तिक व उपपाद पोका विरोध है।
आहारमिस्सकायजोगिणी
ध. ४ / १,३,३६/११०/३ सत्थाणगदा ।
घ. ७/२६.६५/२३४५/१० (आहारकायजोगी)- सत्याण-विहारवदि सत्या परिणदा... मारणं तिरसमुग्वादगदा आहार मिश्रका योगी स्वस्थानस्वस्थान गत ( ही है। अन्य पदोंका निर्देश नहीं है) २ आहारकाययोगी स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्व स्थानसे परिणत तथा मारणान्तिक समुद्घातगत ( से अतिरिक्त अन्यपदोंका निर्देश नहीं है।)
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पमन्त संजड़ा...
घ. ४/९.३,४०/११०/७ सत्थाण- वेदण-कसाय-उववादगदाकम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्टिणो । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्रघात, और उपपाद इन पदोंको प्राप्त कार्माण काययोगी मिथ्यादृष्टि तथा अन्य गुणस्थानवर्ती में भी इनसे अतिरिक्त अन्यपदोंमें पाये जानेका निर्देश नहीं मिलता ) |
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