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क्षेत्र
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३. क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यञ्च संयतासयत जीवोंकी सम्भावनाको अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। (ध १/१,१,१५८/४०२/१); (ध ६/१, ६-६,१८/४२६/१०)
६. प्रमत्तसंयत ध.४/१,३,३/४५-४७/सारार्थ-प्रमत्त संयतोंमे अप्रमत्तसंयतकी अपेक्षा
आहारक व तैजस समुद्रात अधिक है, केवल इतना अन्तर है। अतः दे०--अगला 'अप्रमत्तसंयत' ७. अप्रमत्तसंयत ध.४/१,३,३/४७/४ अप्पमत्तसंजदा सत्थाणसत्याण-विहारवदिसत्थाणत्था
केवडिखेत्ते...मारणं तिय-अप्पमत्ताण पमत्तसजदभंगो । अपमत्ते सेसपदा णत्थि । स्वस्थान स्वस्थान और बिहारवत् स्वस्थान रूपसे परिणत अप्रमत्त संयत जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ।...मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुए अप्रमत्त संयतोंका क्षेत्र प्रमत्त संयतोके समान होता है । अप्रमत्त गुणस्थानमें उक्त तीन स्थानको छोड़कर शेष स्थान नहीं होते।
१४. अयोग केवली ध.४/१,३,५७/१२०/8 सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे । -अयोग
केवलीके विहारवव स्वस्थानादि घोष अशेष पद सम्भव न होनेसे वे स्वस्थानस्वस्थानपदमें रहते है। घ.४/१,३,५७/१२१/१ ण च ममेदं बुद्धोए पडिगहिपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदं बुद्धीए अभावादो त्ति । ण एस दोसो, वीदरागाणं अपणो अच्छिदपदेसस्सेन सस्थाणवबएसादो। ण सरागाणमेस णाओ, तत्थ ममेदं भावसंभवादो। प्रश्न-स्वस्थानपद अयोग केबलीमे नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवाहमें ममेदंबुद्धिका अभाव है, इसलिए अयोगिकेवलीके स्वस्थानपद महीं बनता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं. क्योंकि, वीतरागियोंके अपने रहनेके प्रदेशों को ही स्वस्थान नामसे कहा गया है। किन्तु सरागियोंके लिए यह न्याय नहीं है । क्योंकि इनमें ममेदं भाव संभव है।
२. गति मार्गणामें सम्भव पदोंकी अपेक्षा
८. चारों उपशामक घ.४/१,३,३/४७/६ चदुव्हमुबसमा सत्थाणसत्थाण-मारणं तियपदेसु पमत्तसमा णित्थि वृत्तसेसपदाणि । --उपशम श्रेणीके चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थानस्वस्थान और मारणान्तिक समुद्घात, इन दोनों पदोंमे प्रमत्तसंयतोंके समान होते है। (इन जीवोंमे) उक्त स्थानोके अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते है। [स्वस्थान स्वस्थान सम्बन्धी शंका समाधान दे० अगला क्षपक ] ९. चारों क्षपक घ. ४/१,३,३/४७/७ चदुण्ह खवगाणं.. सत्थाणसस्थाणं पमत्तसमं । खब
गुक्सामगाणं णस्थि वृत्तसेसपदाणि । खवगुवसामगाणं ममेदंभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदरस संभवो । ण एस दोसो, ममेदं - भावसमण्णिदगुणेसु तहा गहणादो । एस्थ पुण अवठ्ठाणमेक्तगहणादो। - अपक श्रेणोके चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवोका स्वस्थान स्वस्थान प्रमत्तसंयतोके समान होता है। क्षपक और उपशामक जीवोके उक्त गुणस्थानोके अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते है । प्रश्नयह मेरा है, इस प्रकारके भावसे रहित क्षपक और उपशामक जीवों के स्वस्थानस्वस्थान नामका पद कैसे सम्भव है. उत्तर-यह कोई दोष नहीं, क्योकि, जिन गुणस्थानों में यह मेरा है' इस प्रकारका भाव पाया जाता है, वहाँ वैसा ग्रहण किया है। परन्तु यहॉपर तो अवस्थान मात्रका ग्रहण किया है। ध ६/१.६-६,११/२४५/६ मणुसैमुष्पण्णा कधं समुद्देमु ईसणमोहस्त्रवणं पट्ठति । ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। -प्रश्न-मनुष्योमें उत्पन्न हुए जीवममुद्रोंमे दर्शनमोहनीयको क्षपणाका कैसे प्रस्थापन करते है । उत्तर-नही, क्योकि, विद्या आदिके वशमे समुद्रोमें आये हुए जीबोके दर्शनमोहका क्षपण होना संभव है। १३ सयोगी केवली ध.१/१,३,४/४/३ एरथ सजोगिकेवलियस्स सस्थाणसत्थाण-विहारबादिसत्थाणाणं पमत्तमंगो । दंगदोकेवन्नी ( पृ०४८) वाइगदो केवली पृ ४६. पदरगदो केवली ( पृ. ५०) • लोगपूरणगदो केवली (पृ०५६) केवडि खेत्ते । - सयोग केचनीका स्वस्थानस्वस्थान और विहारबत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है । दण्ड समु
घातगत केवनी, कपाट समुद्रातगत केवन्नी.. प्रतर समुद्घतगत केवनी और नोक्पूरण समुद्घातगत वेवनी क्तिने क्षेत्रमें रहते है।
१ नरक गति ध.४/१,३,५/६४/१२ एवं सासणस्स । णवरि उववादो णत्थि। ध४/१,३.६/६५/8 ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघालवणाए
पदंपडितुल्ला,तत्य असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो। ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारगंतियपदस्स असं जदसम्माइट्ठिमारणं तिय उववादपदाणं च तत्थ अभावादो। १. इसी प्रकार (मिथ्यावृष्टिवत ही) सासादन सम्यगदृषि नारकियोंके भी स्वस्थानस्वस्थानादि समझना चाहिए। इतनी 'विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। ( अर्थात् यहाँ केवल स्वस्थानस्वस्थान, बिहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, बै क्रियक व मारणान्तिक समुद्धात रूप छ' पद ही सम्भव हैं। २. द्वितीयादि पाँच पृथिवियोंकी प्ररूपणा ओघ अर्थात नरक सामान्यकी प्ररूपणाके समान नहीं है, क्योकि इन पृथिवियोमें असंयत सम्यग्दृष्टियोका उपपाद नहीं होता है। सातवीं पृथिवीकी प्ररूपणा भी नारक सामान्य प्ररूपणाके तुल्य नहीं है, क्योकि, सातबी पृथिवीमें सासादन सम्यग्दृष्टियों सम्बन्धी मारणान्तिक पदका और असयत सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी मारणान्तिक और उपपाद (दोनो) पदका अभाव है। २ तिर्यच्च गति ध.१/१,२,८५/३२७/१ न तिर्यसूत्पन्ना अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽणुव्रता-- न्यादधते भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपपत्ते. । तियंचोमें उत्पन्न हुए भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अणुव्रतोको नही ग्रहण करते है, क्योकि, (बद्धायुष्क) क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते है: और भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीबोके अणुव्रतोका ग्रहण करना बन नहीं सकता। (ध.१/१,१,
१५६/४०२/६), परवं. ४/१,३/सू.१०/७३ पंचिंदियतिरिक्वअपजना...। ध /१,३,१०/७३/५ विहारवदिसत्थाणं वेउब्बियसमुग्धादो य णत्यि।' ध.४/१,३,६/७२/८ णवरि जोणिणीमु असंजदसम्माट्ठीणं उबवादो
णस्थि । ध.४/१,३.२१/८७/३ सत्याण-वेदण-कमायसमुग्धादगदपंचिदियअप
जत्ता ..मारणांतियउववादगदा । -१-२. पंचेन्द्रिय तियंच अपर्याप्त जीवोके बिहारबत् स्वस्थान और वै क्रियक समुद्रात नही पाया जाता (७३)। ३. योनिमति तिय चो में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। ४. स्वस्थानस्वस्थान, वेदना ममुद्धात, कषाय समुदुधात, मारणान्तिक समुद्रात तथा उपक्गत ५ चेन्द्रिय अपर्याप्त ( परन्तु वै क्रियक समुद्घात नहीं होता)।
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