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क्षेत्र
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४. क्षेत्र प्ररूपणाएँ
होता है । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह 'उपपादस्थानका अतिक्रमण करके गमन नहीं करता' इस परम्परागत उपदेशसे सिद्ध है।
४. वेद मार्गणा ध.४/१,३४३/१११/- इत्थिवेद.. असदसम्मादिम्हि उववादो
णत्थि । पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा। ध. ४/१,३,४४/११३/१ (णवंसयवेदेसु) पमते तेजाहारपदं णस्थि।
-१. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्त्रीवेदियोके उपपाद पद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें तैजस समुद्वघात नहीं होते हैं। २. प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें नसकवेदियोके तैजस आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते हैं। (असंयत सम्यग्दृष्टि में उपपाद पदका यहाँ निषेध नहीं किया गया है।)
५ शान मार्गणा ध/४/१,३,५३/११८/विभंगण्णाणी मिच्छाइट्ठी...उववाद पदं णत्थि।
सासणसम्मदिट्ठी...वि उववादो णस्थि ।-विभं गज्ञानी मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में उपपाद पद नहीं होता।
६. संयम मार्गणा ध./४/१,६१/१२३/७ ( परिहारविसुद्धिसंजदेसु (मूलसूत्रमें ) पमत्तसंजदे
तेजाहारं त्थि - परिहार विशुद्धि संयतोंमें प्रमत्त गुणस्थानवर्तीको तैजस समुद्धात और आहारक समुद्धात यह दो पद नही होते हैं।
स
४. क्षेत्र प्ररूपणाएं १. सारणीमें प्रयुक्त संकेत परिचय
सर्व लोक । त्रिलोक अर्थात् सर्वलोक तिर्यक्लोक ( एक राजूx०० योजना) ऊर्ध्व व अधो दो लोक। चतु लोक अर्थात मनुष्य लोक रहित सर्व लोक मनुष्य लोक या अढ़ाई द्वीप। असंख्यात। संख्यात। संख्यात बहुभाग।
संख्यात धनांगुल। । भाग
गुणा। पल्योपमका असंख्यात बहुभाग।
पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग। स्व औध गुणस्थान निरपेक्ष अपनी अपनी सामान्य प्ररूपणा। मूलोघ गुणस्थानों की मूल प्रथम प्ररूपण। और भी देखो आगे।
नोट --के २ इत्यादि को क इत्यादि रूप ग्रहण करो जीवोंकी स्व स्व ओघराशिx-xxसं. प्रतरांगुलx१ राजू
क २ मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र ।
७. सम्यक्त्व मार्गणा ध. ४/१,३,८२/१३५/६ पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि। ' = प्रमत्त संयतके उपशम सम्यक्त्वके साथ तैजस समुद्रात और आहारक समुद्धात नहीं होते हैं।
८. आहारक मार्गणा ष. वं. ४/१३./सू ८८/१३७ आहाराणुवादेण...८८ । ध.४/१,३,८४/१३७/६ सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोग-पूरणसमुग्धादा वि णत्थि, आहारित्ताभावादो। आहारक सयोगीकेवलीके भी प्रतर और लोकपूरण समुद्रात नहीं होते है; क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओंमे केवलीके आहारपनेका अभाव है। ष, ख./४/३/सू.१०/१३७ अणाहारएसु...1801 ध.४/१,३/१२/१३८/८ पदरगतो सजोगिकेवली...लोकपूरणे-पुण..
भवदि । - अनाहारक जीवों में प्रतर समुद्धातगत सयोगिकेवली तथा लोकपूरण समुद्धातगत भी होते है।
जीवोंकी स्व स्व ओघ राशिक-xसं प्रतरांगुल४१ राजू-उप
उप/क-
क२
पाद क्षेत्र।
तिर्यचोकी स्व स्व ओघराशि....
शxक-१४सं.प्रतरांगुलx१राजू मारख २ णान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र ।
४. मारणान्तिक समुद्धातके क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद ध ११/४,२,५.१२/२२/७ के वि आइरिया एवं होदि त्ति भणं ति। तं जहा
अवरदिसादो मारणं तियसमुग्धाद कादूण पुन्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति। पुणो विग्गहं करिय हेठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्गहं करिय वारुण दिसाए अघरज्जुपमाणं गंतूण अवहिठाणभिम उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति । एवं ण घडदे, उववादठाणं बोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जत उबदेसेण सिद्धत्तादो। -ऐसा कितने ही आचार्य कहते है-यथा पश्चिम दिशासे मारणान्तिक समुद्घातको करके लोकनालीका अन्त प्राप्त होने तक पूर्व दिशामें आया। फिर विग्रह करके नीचे छह राजू मात्र जाकर पुन: विग्रह करके पश्चिम दिशामें (पूर्व
पश्चिम) (इस
उप/वतियंचोकी
प्रतरांगुल४३
तिर्यंचोकी स्व स्व ओघराशि .
xक-६xसंख्यात ख ३ राजू-उपपाद क्षेत्र।
मनुष्योकी स्व स्व अघोराशि...
धाराशिxक-१४संख्यात प्रतरांगुलx१ राजू
करख मारणान्तिक समुद्रात सम्बन्धी क्षेत्र ।
उप/गमनुष्योंकी
प्रकार ) आध गजू प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरकमें उत्पन्न होनेपर उसका (मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त महा मत्स्यका) उत्कृष्ट क्षेत्र
मनुष्यों की स्व स्व ओधराशिक-१xसंख्यात प्रतरांगुल १राजू
करख २ उपपाद क्षेत्र।
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