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निक्षेप
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७. भावनिक्षेप निर्देश व शंका आदि
२. भावनिक्षेपके भेद स.सि./१/१/१८/७ भाव जीवो द्विविधः-आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। -भाव जीवके दो भेद है-आगम-भावजीव और नोआगम-भावजीव। (रा. वा./२/५/६/२६/१५); (श्लो. वा. २/१/२/ श्लो. ६७); (ध. १/१,१,१/२६/७१८३/६); (ध. ४/१,३,१/७/8); ( गो.
क./मू./६४/५६); (न.च. वृ./२७६ ) । घ. १/१,१,१/२६/६ णो-आगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति । -नोआगम भाव मगल, उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकारका है।
व्यवहार किया है (दे० निक्षेप/12/३), उसी प्रकार वर्तमान जीव ही भविष्यत में पेज्जविषयक शास्त्रका ज्ञाता होगा; अतः जीव सामान्यकी अपेक्षा एकत्व मानकर वर्तमान जीव (के शरीरको) भाविनोआगम द्रव्यपेज्ज कहा है। (ध. १/१,१,१/२६/२१ पर विशेषार्थ)। स. सि./पं. जगरूप सहाय/१// पृ.४६ भावी ज्ञायकशरीरमें जीवके (जीव विषयक) शास्त्रको जाननेवाला शरीर है। परन्तु भावी नोआगमद्रव्यमें जो शरीर आगे जाकर मनुष्यादि जीवन प्राप्त करेगा। उन्हें उनके ( मनुष्यादि विषयोंके) शास्त्र जाननेकी आवश्यकता नहीं। अज्ञायक होकर ही ( शरीर) प्राप्त कर सकेगा। ऐसा ज्ञायकपना और अज्ञायकपनाका दोनोंमें भेद व अन्तर है।
३. शायक शरीर और तद्व्यतिरिक्तमें अन्तर श्लो. वा. २/१/५/६६/२७५/२५ कर्म नोकर्म वान्वयप्रत्ययपरिच्छिन्नं ज्ञायकशरीरादनन्यदिति चेद न, कार्मणस्य शरीरस्य तैजसस्य च शरीरस्य शरोरभावमापन्नस्याहारादिपुद्गलस्य वा ज्ञायकशरीरत्वासिद्ध, ओदारिकवै क्रियकाहारकशरोरत्रयस्यैव ज्ञायकशरोरत्वोपत्तेरन्यथा विग्रहगतावपि जोबस्योपयुक्तज्ञानत्वप्रसगाव तैजसकार्मण शरीरयोः सदभावात् ।-प्रश्न-तद्वय तिरिक्तके कर्म नोकर्म भेद भो अन्वय ज्ञानसे जाने जाते हैं, अतः ये दोनों ज्ञायकशरीर नोआगमसे भिन्न हो जायेंगे। उत्तर-नहीं, क्योंकि, कार्माण वर्गणाओंसे बने हुए कार्मणशरीर और तैजस वर्गणाओसे बने हुए तैजसशरीर इन दोनों शरीररूपसे शरीरपनेको प्राप्त हो गये पुद्गलस्कन्धोको ज्ञायक शरीरपना सिद्ध नहीं है । अथवा आहार आदि वर्गणाओको भी ज्ञायकशरीरपना असिद्ध है । वस्तुतः बन चुके औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीरोंको ही ज्ञायकशरोरपना कहना युक्त है। अन्यथा विग्रहगतिमें भी जीवके उपयोगात्मक ज्ञान हो जानेका प्रसंग आवेगा, क्योंकि कार्मण और तेजस दोनो ही शरीर वहाँ विद्यमान हैं।
४. भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्तमें अन्तर श्लो. वा. २/१५/६६/२७६/६ कर्मनोकर्म नोआगमद्रव्यं भाविनोआगम
द्रव्यादनान्तरमिति चेन्न, जीवादिप्राभृतज्ञायिपुरुषकर्मनोकर्मभावमापन्नस्यैव तथाभिधानात, ततोऽन्यस्य भाविनोआगमद्रव्यत्वोपगमात् । प्रश्न-कर्म और नोकर्मरूप नोआगम द्रव्य भावि-नोआगमद्रव्यसे अभिन्न हो जावेगा 1 उत्तर-नहीं. क्योंकि, जीवादि विषयक शास्त्रको जाननेवाले ज्ञायक पुरुषके ही कर्म व नोकौंको तैसा अर्थात् तद्वयतिरिक्त नोआगम कहा गया है। परन्तु उससे भिन्न पड़े हुए और आगे जाकर उस उस पर्यायरूप परिणत होनेवाले ऐसे कर्म व नोकर्मोंसे युक्त जीवको भाविनोआगम माना गया है।
३. आगम व नोआगम भावके भेद व उदाहरण घ. वं. १३/५.५/सू. १३६-१४०/३१०-३६१ जा सा आगमदो भावपयढ़ी णाम तिस्से इमो णिदेसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसम गथसम णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदिधम्मकहा वा जेचामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट टु जावदिया उबजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम ।१३६। जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेय विहा। त जहा-सुर-असुरणाग-सुवण्ण-किण्णर-किंपुरिस-गरुड-गंधव्य-जक्रवारवरख-मणुअ-महोग मिय-पसु-पक्खि -दुवय-चउपय-जलचर-थलचर-खगचर-देव-मणुस्स - तिरिवरख-णेरड्य-णियगुणा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम ।१४०) जो आगम-भावप्रकृति है, उसका यह निर्देश हैस्थित, जित, परिचित, वाचनापगत, सूत्रसम, अर्थ सम, ग्रन्थसम, नामसम, और घोषसम । तथा इनमें जा वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग है वे सब भाव हैं। ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव है वह सब आगम भाव कृति है ।१३६॥
जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा-सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षी, द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर, खगचर, देव, मनुष्य, तिथंच और नारकी; इन जीवो की जो अपनीअपनी प्रकृति है वह सब नोआगमभावप्रकृति है। (यहाँ 'कर्म प्रकृति' विषयक प्रकरण है।
४. आगम व नोआगम भावके लक्षण स. सि./१/१/१८/८ तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो बा आरमा आगमभावजीवः । जीवनपर्यायण मनुष्य जीवत्वपर्याय वा समाविष्ट आरमा नोआगमभावजीवः । -जो आत्मा जोव विषयक शास्त्रको जानता है और उसके उपयोगसे युक्त है वह आगम-भाव-जीव कहलाता है। तथा जीवनपर्याय या मनुष्य जीवनपर्यायसे युक्त आत्मा नोआगम भाव जीव कहलाता है। (यहाँ 'जोव' विषयक प्रकरण है) (रा. वा./१/५/१०-११/१६); (श्लो. वा. २/१/५/श्लो.६७-६८/२७६ ); (ध. १/१.१,१/८३/६); (ध.
१/१,६,१/३/५) (गो. क./मू. ६५-६६/५६) । ध. १/१,१,१/२६/८ आगमदो मंगलपाइडजाणओ उवजुत्तो। णोआगमदो
भावमगलं दुविह, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्तः । मङ्गलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति ।-जी मंगलविषयक शास्त्रका ज्ञाता होते हुए वर्तमानमें उसमे उपयुक्त है उसे
आगमभाव मंगल कहते है। नोआगम-भाव-मगल उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकार का है। जो आगमके बिना ही मंगलके अर्थ में उपयुक्त है, उसे उपयुक्त नोआगम भाव मगल कहते है, और मंगलरूप अर्थात् जिनेन्द्रदेव आदिको वन्दना भावस्तुति आदिमे
७. भाव निक्षेप निर्देश व शंका आदि
१. भावनिक्षेप सामान्यका लक्षण स. सि./१/३/१७/६ वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षित द्रव्यं भावः । वर्तमानपर्यायसे युक्त द्रव्यको भाव कहते है। (रा. वा./१/१/८/२६/१२); ( श्लो. वा. २/१/५/श्लो. ६७/२७६ ); (ध. १/१,१,१/१४/३ व २६/७);
(ध.६/४,१,४८/२४२/७) (त. सा./१/१३) । ध. १४१,७,१/१८७/६ दवपरिणामो पुवावरकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवल क्खियदव्वं बा।-द्रव्यके परिणामको अथवा पूर्वापर कोटिसे व्यतिरिक्त वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको भाव कहते हैं। दे. नय///३ (भाव निक्षेपसे आत्मा पुरुषके समान प्रवर्तती स्त्रीकी भाँति पर्यायोल्लासी है)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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