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निक्षेप
अन्वय प्रत्यय विद्यमान है। तत्त्वज्ञानमें उपयोग लगाये मेरा जो हुए ही शरीर पहले था वही इस भोजन करते समय तत्वज्ञान में नहीं उपयोग लगाये हुए मेरा यह शरीर है, इस प्रकार भूतकाल के ज्ञायकशरीरमें प्रत्यभिज्ञान हो रहा है। तथा इस वाणिज्य करते समय तत्त्वज्ञानमें नहीं उपयोग लगा रहे मेरा जो भी शरीर है, पीछे तत्त्वज्ञानमे उपयुक्त हो जानेपर वही शरीर रहा आवेगा, इस प्रकार भविष्यतके ज्ञायक शरीरमें अन्वयज्ञान हो रहा है। २. धावक शरीरोको नोआगम संत्रा क्यों ?
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१/४/११/७/२ कपमेदेसि तिष्णं सरीराणं गच्चेया जिगएसो मधगृहसहचारारण तौदाणागयमाणम आण एसो जिणाहारपाण तीदानामय वट्टमाणसरीराणं दव्य जग पडि गिरोहाभावादी प्रश्न इन अचेतन तीन शरीरोंके (नोआगम) 'जिन' संज्ञा कैसे सम्भव है (यहाँ 'जिन' विषयक प्रकरण है ) 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार धनुष - सहचार रूप पर्यायसे अतीत, अनागत और वर्तमान मनुष्योंकी 'धनुष' संज्ञा होती है, उसी प्रकार ( आधारने आधेयका आरोप करके) जिनाधार रूप पर्याय अतीत, अनागत और वर्तमान शरीरोंके द्रव्य जिनके प्रति कोई विरोध नहीं है।
घ. ६/४.१६३/२००/ १ कधं सरीराणं णोआग मदव्यक दिव्ववएसो । आधारे आधे ओवयारादो। प्रश्न- शरीरोको नोआगम-द्रव्यकृति संज्ञा कैसे सम्भव है (यहाँ 'कृति' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर - चूँकि शरीर नोआगम द्रव्यकृतिके आधार हैं, अतः आधारमें आधेयका उपचार करनेसे उक्त संज्ञा सम्भव है। (ध. ४ / १,३,९/६/६ ) ३. भूत व भावी शरीरोंको नोआगमपना कैसे है १.११.१३-१४/२००/३ हो गाम महमाणसरीरस्स पेज्जागमयमएसी पैज्जागमेण सह एवभादो ण भविय समुज्भादाणमेसा सन्नापेज्जपान संबंधाभावादति ण एस दोसो दव्यदिव्यपणाए सरीरम्मि तिसरीरभावेण एयत्तमुवगयम्मि तदविरोहादो । प्रश्नवर्तमान शरीरकी नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञा होओ, क्योंकि वर्तमान शरीरका पेज्जविषयक शास्त्रको जाननेवाले जीवके साथ एकत्व पाया जाता है। परन्तु भाविशरीर और अतीत शरीरको नोआगम-द्रव्यपेज्ज संज्ञा नहीं दी जा सकती है, क्योंकि इन दोनों शरीरोंका पेज्जके साथ सम्बन्ध नहीं पाया जाता है। (यहाँ 'पेज्ज' विषयक प्रकरण है ) उत्तर - यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयी दृष्टि भूत भविष्य और वर्तमान ये तीनों शरीर शरीरस्यकी अपेक्षा एक्रूप हैं, अत एकत्वको प्राप्त हुए शरीर में नोआगम द्रव्यपेज्ज संज्ञाके मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
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. १/१.१.१/२१/४ बहारस्सामववारावो भवबुधरिदमंगलज्जारा परिषद जीक्सरीरस्स मंगलबएसो पण असं ते ददमंगलपज्जायाभावा । ण रायपज्जायाहारत्तणेण अणागदादीदजीवे वि रायववहारोवलभा । प्रश्न-बाधारभूत शरीर में आधेयंभूत आत्माके उपचार से धारण की हुई मंगल पर्यायसे परिणत जीवके शरीरको नोआगम हायकशरीर द्रव्यमंगल कहना तो उचित भी है, परन्तु भावी और भूतकालके शरीरकी अवस्थाको मंगल संज्ञा देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है; क्योंकि उनमें मंगलरूप पर्यायका अभाव है । ( यहाँ 'मंगल' विषयक प्रकरण है ) 1 उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, राजयका आधार होनेसे अनागत और अतीत जीवमें भी जिस प्रकार राजारूप व्यवहारकी उपलब्धि होती है, उसी प्रकार मगल पर्याय से परिणत जीवका आधार होने से अतीत और अनागत शरीरमें भी मगलरूप व्यवहार हो सकता है। (ध. ५/१.६, १/२/६) । ध. ४ / १.३.१ / ६ / ३ भवदु पुव्विल्लस्स दव्त्रखेत्तागमत्तादो खेत्तववएसो. एक्स्स पुर्ण सरोरस्स अगागमस्स खेत्त बनएसो ण घडदि ति । एत्थ
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६. द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ
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परिहारो बुच्चदे तं जया -क्षयत्यक्षेण्यस्मिन् प्रत्यागमो गागमो वेति त्रिविधमपि शरीरं क्षेत्रम्, आधारे आधेयोपचाराद्वा । - प्रश्न- इव्य क्षेत्रागनके निमित्त से पूर्व के (भूत) शरीरको क्षेत्र संज्ञा भले ही रही आओ, किन्तु इस अनागम ( भावी) शरीर के क्षेत्र संज्ञा घटित नहीं होती । (यहाँ 'क्षेत्र' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तरउक्त शंकाका यहाँ परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है- जिसमें द्रव्यरूप आगम अथवा भावरूप आगम वर्तमान कालमें निवास करता है, भूतकाल में निवास करता था और आगामी कालमें निवास करेगा; इस अपेक्षा तीनों ही प्रकारके शरीर क्षेत्र कहलाते हैं। अथवा, आधाररूप शरीर में आधेयरूप क्षेत्रागमका उपचार करनेसे भी क्षेत्र संज्ञा बन जाती है।
५. वम्यनिक्षेपके भेदोंमें परस्पर अन्तर
१. आगम व नोआगममें अन्तर
लो. वा. १२/१/२/२७५/१८ तस्यागमद्रव्यादन्यत्वं सुप्रीतमेवानात्मस्वात् । वह ज्ञायक शरीर नोआगमद्रव्य आगमद्रव्यसे तो भिन्न भले प्रकार जाना ही जा रहा है, क्योंकि आगमज्ञानके उपयोग रहित आत्माको आगमद्रव्य माना है, और जीवके जड़ शरीरको नोआगम माना है।
घ. १/४.१.६३/२००/२ दि एवं तो सरीरागमागमनमारेण किल् बुमदे आगमगोआगमाणं भेदपप्पायनमुपादे पञ्जोजणाभावादी च । प्रश्न- यदि ऐसा है अर्थात आधार में आधेयका उपचार करके शरीरको नोआगम कहते हों तो शरीरोंको उपचारसे आगम क्यों नहीं कहते ? उत्तर- आगम और नोआगमका भेद बतलानेके लिए; अथवा कोई प्रयोजन न होनेसे भी शरीरोंको आगम नहीं कहते ।
घ. ६/४,१,१/७/३ आगमसण्णा अणुवजुत्त जीवदव्वस्से एत्थ किण्ण कदा, उपजोगाभावं परि विमेाभावादी ण, एत्य आगमसंस्काराभावेग तदभावाद... भविस्सकाले पाहुजाणमस्स भूदकाले गाण विस्सरिदस्स य णोआगमभवियदव्वजिणन्तं किण्ण इच्छज्जदे ण, आगमदक्स्स आगमसंसकारपज्जायस्स आहारत्तणेण तीदाणागदवट्टमाण णोआगमदव्वत्तविरोहादो प्रश्न- अनुपयुक्त जीवद्रव्यके समान यहाँ (त्रिकाल गोचर ज्ञायक शरीरोंकी भी ) आगम संज्ञा क्यों नहीं की, क्योंकि दोनोंमें उपयोगाभावकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है ! उत्तर- नहीं की, क्योंकि यहाँ आगम संस्कारका अभाव होनेसे उत संज्ञाका अभाव है । प्रश्न - भविष्यकाल में जिनप्राभृतको जाननेवाले
भूतकाल में जानकर विस्मरणको प्राप्त हुए जीवद्रव्यके नोखागमभाती जिनश्व क्यों नहीं स्वीकार करते (यहाँ 'जिन' विषयक प्रकरण है ) ? उत्तर- नहीं क्योंकि आगम संस्कार पर्यायका आधार होनेसे अतीत, अनागत व वर्तमान आगमद्रव्य के नोआगम द्रव्यत्वका विरोध है । ( भावार्थ - आगमद्रव्यमें जीवद्रव्यका ग्रहण होता है और नोआगम में उसके आधारभूत शरीरका जीवनें आगमसंस्कार होना सम्भव है, पर शरीर में वह सम्भव नहीं है । इसीलिए ज्ञायकके शरीरको आगम अथवा जीवद्रव्यको नोआगम नहीं कह सकते हैं । ) २. भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगममें अन्तर
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श्लो. वा. २/१/५/६६/२७६/१७ तर्हि ज्ञायकशरीर भाविनोआगमद्रव्यादनम्यदेवेति चेत्रज्ञायविशिष्टस्य ततोऽन्यबाद प्रश्न- तब तो (भावी) ज्ञायकशरीर भाविनोआगमसे अभिन्न ही हुआ ? उत्तरनहीं, क्योंकि, उस ज्ञायकशरीरसे ज्ञायक आत्मा करके विशिष्ट भावी नोआगमद्रव्य भिन्न है ।
क. पा. १/१,१३-१४/१ २२७/२७०/२४ - भाषाकार - जिस प्रकार भावी और धृत शरीर में शरीरसामान्यको अपेक्षा वर्तमान शरीरोंसे एक मानकर उन भूत व भावी शरीर में) नोआगम द्रव्यपेज संज्ञाका
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