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कारण
४. निमित्तकी कथंचित् प्रधानता
नितिको प्रभानताका निर्देश
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-दे० कारण / IIT /१
धर्म व काल द्रव्यकी प्रधानता
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- ६० कारण / 111/१०
निमित्तनैमिति सम्बन्ध वस्तुभूत है।
कारण होनेपर ही कार्य होता है, उसके बिना नहीं ।
उचित निमित्त के सान्निध्य में ही द्रव्य परिणमन करता है।
उपादानको योग्यता सद्भावमें भी निमितके बिना कार्य नही होता |
द्रव्य क्षेत्रादिकी प्रधानता । - दे० कारण / III/१/२ ६. निभिसके बिना कार्यकी उत्पत्ति मानना सदोष है।
सभी कारण धर्मद्रव्यवत् उदासीन नहीं होते । निमिश अनुकूल मात्र नहीं होता । ३० कारण/१/२
निमित्तके बिना केवल उपादान व्यावहारिक कार्य करने को समर्थ नहीं।
उपादान भी निमित्ताधीन है। दे० कारण/II/३ जैसा जैसा निमित्त मिलता है वैसा-पैसा कार्य होता है ।
-३० कारण/11/३
कर्म व जीवगत कारणकार्य भावकी कथंचित्
प्रधानता
जीव व कर्ममें परस्पर निमित्त नैमिशिक सम्बन्धका निर्देश
जीव व कर्मको विचित्रता परस्पर सापेक्ष है
जीवकी अवस्थाओं कर्म मूल हेतु है।
विभाव भी सहेतुक है।
कर्मकी बलवत्ता के उदाहरण
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जीवकी एक अवस्थामें अनेक कर्म निमित्त होते हैं ।
६ कर्मके उदयमे तदनुसार जीवके परिणाम अवश्य
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- दे० विभाव / ३
मोहका अन्य यद्यपि
नही पर सामान्य बन्धका कारण अवश्य है ।
प्रकृतियन्धका कारण
- दे० बन्ध/३
माय द्रव्योवर भी कर्मका प्रभाव पड़ता है।
-दे० वेदनीय ८ तथा तीर्थंकर /२०
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IV कारण कार्यभाव समन्वय
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सूचीपत्र
उपादान निमित्त सामान्य विषयक
कार्य न सचा स्वतः होता है, न सर्वथा परतः ।
प्रत्येक कार्य अन्तर व बहिरंग दोनों कारयोंके सम्मेलसे होता है।
अन्तरंग व रिग कारणोंसे होनेके उदाहरण
व्यहार नवसे निमिश वस्तुभूत है और निश्चय नयसे कल्पना मात्र ।
निर्मित स्वीकार करनेपर भी वस्तुस्वतन्त्रता वाधित नहीं होती ।
कारण व कार्य परस्पर व्याप्ति अवश्य होनी चाहिए। --दे० कारन /६/४/८ उपादान उपादेय भावका कारण प्रयोजन 1 उपादानको परतंत्र कहनेका कारण प्रयोजन | निमिशको प्रधान कहनेका कारण प्रयोजन । निश्चय व्यवहारनय तथा सम्यग्दर्शन चारित्र, धर्म आदिक में साध्यसाधन भाव । -दे० वह वह नाम मिया निमित्त या संयोगवाद । -दे० संयोग
२. कर्म व जीवगत कारणकार्यभाव विषयक
जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे १ कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं ? अचेतन कर्म चेतनके गुणोंका घात कैसे कर सकते #! -दे० विभाव /५ वास्तवमें कर्म जीवसे येथे नहीं बल्कि सरलेश के कारण दोनोंका विभाव परिणमन हो गया है ।
-दे० बन्ध/४ कर्म व जीवके निमित्तनैमिलिकने हेतु । वास्तवमें विभाव व कर्मनिमित्तनैमित्तिक भाव है, जीवन कर्म नही ।
समकालवर्ती इन दोनोंमें कारण कार्य भाव कैसे हो सकता है ?
विभावके सहेतुक अहेतुकपनेका समन्वय ।
-दे० विभाव /५ निश्चयसे आत्मा अपने परिणामोंका और व्यवहारसे कमका कर्ता है। - दे० कर्ता/४/३ कर्म व जीवके परसर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे इतरेतराश्रय दोष भी नहीं जाता।
कर्मोदयका अनुसरथ करते हुए भी जीवको मोक्ष सम्भव है ।
जीव कर्म की सिद्धि ।
- दे० बन्ध/२
कर्म व जीवके निमित्त नैमित्तिकपने में कारण प्रयोजन ।
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