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नियति
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निरतिचार
दे. पद्धति/२/३ (बागम भाषामें जिसे कालादि लब्धि कहते हैं अध्यात्म भाषामें उसे ही शुद्धात्माभिमुख स्वसंवेदन ज्ञान कहते हैं।)
३. एक पुरुषार्थ में सर्वकारण समाविष्ट हैं मो. मा. प्र./६/१५६/८ यहु आत्मा जिस कारण” कार्य सिद्धि अवश्य होय, तिस कारणरूप उद्यम कर, तहाँ तो अन्य कारण मिलें ही मिलें, अर कार्यकी भी सिद्धि होय ही होय । बहुरि जिस कारण” कार्यसिद्धि होय, अथवा नाहीं भी होय, तिस कारणरूप उद्यम करै तहाँ अन्य कारण मिलें तो कार्य सिद्धि होय न मिले तो सिद्धि न होय । जैसे-...जो जीव पुरुषार्थकरि जिनेश्वरका उपदेश अनुसार मोक्षका उपाय करै हैं, ताकै काललब्धि व होनहार भी भया। अर कर्मका उपशमादि भया है, तो यह ऐसा उपाय करै है। तातै जो पुरुषार्थ करि मोक्षका उपाय कर है, ताकै सर्व कारण मिले हैं, ऐसा निश्चय करना ।...बहुरि जो जीव पुरुषार्थ करि मोक्षका उपाय न करें, ताकै काललन्धि वा होनहार भी नाहीं। अर कर्मका उपशमादि न भया है, तो यह उपाय न करै है। तातै जो पुरुषार्थकरि मोक्षका उपाय न करै है, ताकै कोई कारण मिले नाहीं, ऐसा निश्चय करना।
७. नियति निर्देशका प्रयोजन पं. वि./३/८,१०,५३ भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नून पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वव । कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ।। पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा, तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञावा तदेतद्ध बम् । शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्म कुरुष्वादराव, सर्वे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्धृष्टिराहम्यते। ११ मोहोक्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पाद बहून, रागद्वेषविषोज्झितैरिति सदा सद्भिः सुख स्थीयताम् ॥५३॥ -जिस प्रकार वृक्षों में पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चयसे गिरते भी है उसी प्रकार कुटुम्ब में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी है। फिर बुद्धिमान मनुष्यों को उनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और मरमेपर शोक क्यों होना चाहिए । पूर्वोपाजित कर्मके द्वारा जिस प्राणीका अन्त जिस समय लिखा है उसी समय होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर भी शोकको छोड़ो और विनयपूर्वक धर्मका आराधन करो। ठीक है-सर्पके निकल जानेपर उसकी लकीरको कौन लाठीसे पीटता है ।१०। (भवितव्यता वही करती है जो कि उसको रुचता है) इसलिए सजन पुरुष रागद्वेषरूपी विषसे रहित होते हुए मोहके प्रभावसे अतिशय विस्तारको प्राप्त होनेवाले बहुतसे विकल्पोंको छोड़कर सदा सुखपूर्वक स्थित रहें अर्थात साम्यभावका आश्रय करें ।५३।। मो. पा./पं. जयचन्द/८६ सम्यग्दृष्टिकै ऐसा विचार होय है-जो वस्तुका स्वरूप सर्वज्ञने जैसा जान्या है, तैसा निरन्तर परिणमै है, सो होय है। इष्ट-अनिष्ट मान दुखी सुखी होना निष्फल है। ऐसे विचारतै दुख मिट है, यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है। जातै सम्यक्त्व
का ध्यान करना कह्या है। नियम-१. रत्नत्रयके अर्थमें नि:सा./मू./३,१२० णियमेण य जं कज्ज तणियम णाणदं सणचरितम्।
३. मुहअसुहवयणरयणं रायादिभाववारण किच्चा । अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा ११२०। -नियम अर्थात नियमसे जो करणे योग्य हो वह अर्थात ज्ञान दर्शन चारित्र ।३। शुभाशुभवचनरचनाका और रागादि भावों का निवारण करके, जो आत्माको ध्याता है, उसको निश्चित रूपसे नियम है ।१२० नि. साता. वृ./गा. नियमशब्दस्तावत् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेषु वर्तते ॥१॥ यः.. स्वभावानम्तचतुष्टयात्मकः शुद्धज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः । नियमेन च निश्चयेन यरकार्य प्रयोजनस्वरूपं ज्ञामदर्शन
चारित्रम् ।। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता ।१२३॥ -नियम शब्द सम्यग्दर्शन शान चारित्रमें वर्तता है। जो स्वभावानन्तचतुष्टयात्मक शुद्धज्ञान चेतनापरिणाम है बह नियम है। नियमसेअर्थात निश्चय से जो किया जाने योग्य है अर्थात् प्रयोजनस्वरूप है ऐसा ज्ञानदर्शनचारित्र नियम है। निज आस्माकी आराधनामें तत्परता सो नियम है।
२. वचनरूप नियम स्वाध्याय है मि.सा./मू./१५३ बयणमय पडिकमणं वयणमयं पच्चक्रवाणं णियमं
च। आलोयणवयणमयं तं सर्व जाण सज्झाउँ। बचनमयी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना ये सब स्वाध्याय जानो।
३. सावधि त्यागके अर्थमें र. क. पा./८७-८१ नियम' परिमितकालो ८७] भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुममेषु । ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसंगीतगीतेषु ८८ अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथातुरयनं वा। इति कालपरिच्छित्या प्रत्यारण्यानं भवेनियमः ८६ -जिस त्यागमें कालकी मर्यादा है वह नियम कहलाता है।८७। भोजन, सवारी, शयन, स्नान, कंकुमादिलेपन, पुष्पमाला, ताम्बूल, वस्त्र, अलंकार, कामभोग, संगीत और गीत इन विषयों में-आज, एकदिन, एकरात, एकपक्ष, एकमास तथा दो मास, अथवा छहमास इस प्रकार कालके विभागसे त्याग करना सो नियम है। (सा.ध./५/१४)। रा.वा./९/७/२/५३३/१५ इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्तिः नियमः।-'यह ही तथा ऐसा ही करना है। इस प्रकार अन्य पदार्थकी निवृत्तिको नियम कहते हैं। प. पु./१४/२०२ मधुतो मद्यतो मासात ा ततो रात्रिभोजनात् । वेश्या
संगमनाच्चास्य विरतिनियमः स्मृतः ।२०२ . गृहस्थ मधु, मद्य, मांस, जूआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागमसे जो रिक्त होता है, उसे नियम कहा है। नियमसार-1. नियमसारका कक्षण नि. सा./मू./३ णियमेण य जं कज्ज तण्णियमं णाणदसणचरित्तं । विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणम् । -नियमसे जो करने योग्य हो अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्रको नियम कहते हैं। इस रत्नत्रयसे विरुद्ध भावोंका त्याग करनेके लिए वास्तवमें 'सार' ऐसा वचन कहा है। नि, सा./ता. वृ./१ नियमसार इत्यनेन शुद्धरत्नत्रयस्वरूपमुक्तम् । - 'नियमसार' ऐसा कहकर शुद्धरत्नत्रयका स्वरूप कहा है।
२. नियमसार नामक ग्रन्थ आ. कुन्दकुन्द (ई० १२७-९७६ ) कृत, अध्यात्म विषयक, १७०प्राकृतगाथा बद्ध शुद्धात्मस्वरूप प्रदर्शक, एक ग्रन्थ । इसपर केवल एक टीकाउपलब्ध है-मुनि पद्मप्रभ मन्लधारीदेव (११४०-१९८५) कृत संस्कृत टीका। (ती/२/११४)। नियमित सान्द्र-Regular Solid (ज.प./प्र. १०७) ।
कालका प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१/४ । -कालका प्रमाण विशेष-हे. गणित/1/१/४ |
निरंतर-१.निरन्तर बंधी प्रकृति-दे० प्रकृतिबंध/२ | २. निरन्तर
सान्तर वर्गणा-दे० वर्गणा। ३. निन्तर स्थिति - दे० स्थिति/१। निरतिचार-निरतिचार शीलंबत भावना-दे० शील ।
जैमेन्द्र सिद्धान्त कोश
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