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नियति
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४. नियति सिद्धान्तमें स्वच्छन्दाचारको अवकाश नहीं मो. मा. प्र./७/२८ प्रश्न- होनहार होय, तो तहाँ (तत्त्वविचारादिके उपयोग लागे बिना होनहार कैसे लागे (अतः उद्यम करना निरर्थक है) उत्तर जो ऐसा ज्ञान है, तो सर्वत्र कोई ही कार्यका उद्यम मति करै । तू खान-पान व्यापारादिकका तौ उद्यम करें, और यहाँ (मोक्षमार्ग में होनहार बढाने सो जानिए है, तेरा अनुराग (रूचि) यहाँ नाहीं। मानादिककरि ऐसी कूठी बातें बनाने है। या प्रकार जे रागादिक होते (निश्चयनयका आय लेकर) तिनिकरि रहित आम की माने है ते मिध्यादृष्टि है।
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प्र. सा. पं. जयचन्द / २०२ इस विभावपरिगतिको पृथक होती न देखकर मह (सम्म) आकुसव्याकुल भी नहीं होता क्योंकि जानता है कि समयसे पहिले अक्रमरूपसे इसका अभाव होना सम्भव नहीं है), और वह सफल विभाव परिणतिको दूर करनेका पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता ।
० नियति/५/७ (निर्यातनिर्देशका प्रयोजन धर्म लाभ करना है ।)
५. वास्तव में पाँच समवाय समवेत ही कार्य व्यवस्था सिद्ध है
प.पू./३१/२१२-२१३ भरतस्य किमा कृतं दशरथेन किए। लक्ष्मणयोरेषा का मनीषा व्यवस्थिता । २११) कालः कर्मेश्वरी देव स्वभावः पुरुषः क्रिया । नियतिर्वा करोत्येवं विचित्र कः समीहितम् | २१३ - (दशरथने रामको वनबास और भरतको राज्य दे दिया । इस अवसर पर जनसमूहमें यह बातें चल रही हैं ।) - भरतका क्या अभिप्राय था । और राजा दशरथने यह क्या कर दिया । राम लक्ष्मणके भी यह कौनसी बुद्धि उत्पन्न हुई है ।२१२ यह सब काल कर्म, ईश्वर, दैव, स्वभाव, पुरुष, क्रिया अथवा नियति ही कर सकती है। ऐसी विचित्र चेष्टाको और दूसरा कौन कर सकता है २१३ (कालको नियति कर्म व ईश्वरको निमित्तने और देव व क्रियाको भवितव्य में गर्भित कर देनेपर पाँच बातें रह जाती हैं । स्वभाव, निमित, नियति पुरुषार्थ व भवितव्य इन पाँच समवायोंसे समवेत ही कार्य व्यवस्थाकी सिद्धि है, ऐसा प्रयोजन है ।)
पं. का./ता.वृ./२०/४२/१० यदा कालादिसन्धिवशाद्ध दाभेदरत्नत्रयात्मक व्यवहार निश्चयमोक्षमार्ग लभते तदा तेषां ज्ञानावरणादिभावानां श्रव्यभावकर्मरूपपर्यायाणामभावं विनाशं कृत्वा पर्यायार्थिकनयेनाभूतपूर्वसिद्धो भवति । द्रव्याधिकनयेन पूर्वमेव शिद्धरूपं इति वार्तिकं ।
- जब जीव कालादि लब्धिके वशसे भेदाभेद रत्नत्रयात्मक व्यवहार व निश्चय मोक्षमार्गको प्राप्त करता है, तब उन ज्ञानावरणादिक भावोंका तथा द्रव्य भावकर्मरूप पर्यायोंका अभाव या विनाश करके सिद्धपर्यायको प्रगट करता है। वह सिद्धपर्याय पर्यायार्थिकनयसे तो अभूतपूर्व अर्थात् पहले नहीं थी ऐसी है द्रव्यार्थिकनयसे यह जीव पहिले से ही सिद्ध रूप था। इस मानवमें आचार्यने सिपाि रूप कार्य में पाँचों समवायोंका निर्देश कर दिया है। इम्पार्थिकनयसे जीवका त्रिकाली सिद्ध सदृश शुद्ध स्वभाव, ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभावरूप निमित्त कालादिसन्धि रूप नियति, मोक्षमार्गरूप पुरुषार्थ और सिद्ध पर्यायरूप भवितव्य )
मो. मा. प्र./२/०३/१० प्रश्नका कासविषे दशरीरको मा पुत्रादिकको इस जीवकै आधीन भी तो क्रिया होती देखिये है, तब तो सुखी हो है (अर्थादिसुख दुःख भवितव्याधोन हो तो नहीं हैं, अपने आधीन भी तो होते ही हैं। उत्तरशरीरादिककी भवितव्यकी और जबकी इच्छाकी विधि मिले, कोई एक प्रकार जैसे वह चाहे जैसे परिणमैताकाहू का विवाहीका विचार होते सुखी सी आभासा होय है, परन्तु सर्व ही तो सर्व प्रकार यह चाहें तैसे न
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५. नियति व पुरुषार्थका समन्वय
परिणमै । (यहाँ भी पाँचों समवायोंके मिलनेसे ही कार्य की सिद्धि होना बताया गया है, केवल इच्छा या पुरुषार्थ से नहीं। तहाँ सुखप्रतिरूप कार्यमें 'परिणमन' द्वारा जीवका स्वमान 'शरीरादि द्वारा निमित्त, काहू काल विचे' द्वारा नियति 'इच्छा' द्वारा पुरुषार्थ और भवितव्य द्वारा भविस्यका निर्देश किया गया है। )
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६. नियति व पुरुषार्थादि सहवर्ती हैं।
१. काललब्धि होनेपर शेष कारण स्वतः प्राप्त होते हैं प.पु./२३/२४६ प्राप्ते विनाशकालेऽपि बुद्धिर्जन्तोविनश्यति। विधिना प्रेरितस्तेन कर्मपार्क विष्ट २४६ - विनाशका अवसर प्राप्त होगेपर जीवकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। सो ठीक है; क्योंकि, भवितव्यताके द्वारा प्रेरित हुआ यह जीव कर्मोदयके अनुसार पेष्टा करता है। असहली / १. २५० साहसी जायते बुद्धिर्व्यवसायश्च तादृशः सहायास्तादृशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता । जिस जीवकी जैसी भवितव्यता होती है उसकी वैसी ही बुद्धि हो जाती है। वह प्रयत्न भी उसी प्रकारका करने लगता है और उसे सहायक भी उसीके अनुसार मिल जाते हैं।
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म.पु. ४०/९००-१०० कदाचित् कालसन्ध्याविचोदितोऽभ्यर्ण निवृत्तिः ॥ विलोकयन्नभोभागं अकस्मादन्धकारितम् । ९७७) चन्द्रग्रहणमालोक्य धिगैतस्यापि चेदियम् । अवस्था संसृतौ पापग्रस्तस्यान्यस्य का गतिः | १७८ | किसी समय जब उसका मोक्ष होना अत्यन्त निकट रह गया तब गुणपाल सन्धि आदिसे प्रेरित होकर आकाशकी ओर देख रहा था कि इसनेमें उसकी दृष्टि अरमाद अन्धकारसे भरे हुए चन्द्रग्रहणकी ओर पड़ी। उसे देखकर वह संसारके पापग्रस्त जीवोंकी दशाको विकारने लगा और इस प्रकार उसे वैराग्य आ गया १७७-१७८ ।
पं. का/पं. हेमराज / १६१/२३३ प्रश्न जो आप ही से निश्चय मोक्षमार्ग होय तो व्यवहारसाधन किसलिए कहा ? उत्तर - आत्मा-अनादि अविद्यासे युक्त है। जब काललब्धि पानेसे उसका नाश होय उस समय व्यवहार मोक्षमार्गको प्रवृत्ति हो है |... (तभी) सम्यक् रत्नत्रय ग्रहण करने का विचार होता है, इस विचारके होनेपर जो अनादिका ग्रहण था, उसका तो त्याग होता है, और जिसका त्याग था उसका ग्रहण होता है ।
२. कालादि सब्धि बहिरंग कारण दें और पुरुषार्थ अन्तरंग कारण है
म.पु. /६/९९६ देशनाकालध्यादिनाशकारण संपदि । अन्तःकरणसाम भव्यात्मा स्पाइ विशुद्धकृत (ह) १९९६ मदेशनालय और कालन्धि आदि बहिरंग कारण तथा करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण सामग्रीको प्राप्ति होती है, तभी यह भव्य प्राणी विशुद्ध सम्य दर्शनका धारक हो सकता है । प्र.सं./टी./२६/१२९/४ केन कारणतेन गलति 'जहकालेज स्वासपच्यमानाम्र फलवत्सविपाक निर्जरापेक्षया अभ्यन्तरे निजशुद्धात्म
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त्रित्तिपरिणामस्य बहिरंगसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन न केवलं यथाकालेन 'तवेण' अकालपच्यमानानामाचादिफलवद विपाक निर्जरापेक्षया चेति 'तस्स' कर्मणो गलन यच सा द्रव्यनिर्जरा प्रश्न-कर्म किस कारण गलता है उत्तर कालेज अपने समय पर पकनेवाले आमके फलके समान तो सविपाक निर्जराको अपेक्षा, और अन्तरंगमें निजशुद्धात्मा अनुभवरूप परिणामको महिरंग सहकारीकरणभूत काललब्धिसे यथा समय और 'तवेणय' बिना समय पकते हुए आम बादि फलोंके समान अविपाक निर्जराकी अपेक्षा उस कर्मका गलना द्रव्यनिर्जरा है ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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