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दर्शन
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कहलाता है, और पाचन गुणसे पकाता होनेसे पाचक कहलाता है । इस प्रकार विषय भेदसे वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकारका है । उसी प्रकार अभेदनयसे एक ही चैतन्य भेदनयकी विवक्षामें जब आत्मग्रहण रूपसे प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थको ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्यका नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेदसे वह एक भी चैतन्य दो प्रकारका होता है ।
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७. दर्शन में मी कथंचित् बाह्य पदार्थोंका ग्रहण होता है द्र.सं./टी./२२/११/१ अथ मतं यदि दर्शन महिविषयेन प्रयते तदाधन सर्वजनानामन्वत्वं प्राप्नोतीति न वक्तव्य महिविषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति । अयं तु विशेष - दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञानेच गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं महिस्वपि गृहीतं भवतीति । = प्रश्न- यदि दर्शन बाह्य विषयको ग्रहण नहीं करता तो अन्धेकी तरह राम मनुष्यों के अन्धेपनेकी प्राप्ति होती है उत्तर-ऐसा नही कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषयमें दर्शनका अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूपसे सब पदार्थोंको जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि जब दर्शन से आत्माका ग्रहण होता है, तब आत्मा व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शनसे ज्ञानको ग्रहण किया तो ज्ञानका विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी ( स्वत ) ग्रहण कर लिया ( या हो गया) । ( और भी - दे० दर्शन /५/८ )
८. दर्शनका विषय ज्ञानकी अपेक्षा अधिक है
६/९/१. १. १३/३०/- स्वीवस्वपर्यादर्शनमधिकमिति पेश, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । नः अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । - प्रश्न - ( ज्ञान केवल बाह्य पदार्थोंको ही ग्रहण करता है, आत्माको नहीं, जबकि दर्शन आत्माको व कथंचित्र बाह्यपदार्थोंको भी ग्रहण करता है तो जीनमे रहनेवाली स्वकीय पर्यायोको अपेक्षा ज्ञानसे दर्शन अधिक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। प्रश्न- ज्ञानके साथ दर्शनकी समानता कैसे हो सकती है ? उत्तर - समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरेकी अपेक्षा करनेवाले उन दोनोंमें ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है।
९. दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अन्तर
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रा. वा./१/१२/१३/६/२/१३ दाह-यदुक्तं भवता विषय-विषयसंनिपाते दर्शनं भवति तदनन्तरमवग्रहइति तदयुक्तम् अक्षम्याद ... अत्रोच्यते - नः वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा 'किंचिदेतद्वस्तु' इत्यालोकमनाकार दर्शनमित्युच्यते बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसी अविभावितरूपद व्यविशेषालोचनादर्शन विवक्षितं तथा सर्वेषाम् रातो द्वित्रादिसमभाव 'रूपमिदम्' इति विभवोऽग्रय प्रथमसमयोमेषि तस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मध्याज्ञानं वा स्याद, सम्यग्ज्ञान या मिथ्याहामत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मक (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययामर्कनाऽपेष्टिः तस्य सम्यानपूर्वकत्वाद प्राथमिकत्वाच तत्रास्तीति । न वानध्यवसायरूपम् जात्यन्धवधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते' । न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलम्बनाभावात् । किं चकारण नानात्वात् कार्यनानात्वसिद्ध े । यथा मृत्तन्तुकारणभेदात घटपटकाभेदः तथा दर्शनज्ञानावरण क्षयोपशम कारणभेदाद तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति । = - प्रश्न - विषय विषयीके सन्निपात होनेपर प्रथम क्षणमे
भा० २-५२
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३. दर्शन व ज्ञानकी क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
दर्शन होता है और तदनन्तर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनोंके लक्षणोंमें कोई भेद नहीं है ? उत्तर-
१. नहीं, क्योंकि दोनोंके लक्षण भिन्न हैं । वह इस प्रकार कि - चक्षु इन्द्रियसे 'यह कुछ है' इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है । इसके बाद दूसरे आदि समयोमे 'यह रूप है' 'यह पुरुष है' इत्यादि रूपसे विशेषांशका निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालकका ज्ञान जातमात्र बालकके प्रथम समय में होनेवाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है - मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है, या विपर्ययरूप, या अनध्यवसाय रूप ' तहाँ
संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं । अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदिका निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थने संशय या विपर्यय हो सकता है । परन्तु प्राथमिक होनेके कारण उस प्रकारका सम्यग्ज्ञान यहाँ होना सम्भव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योकि जन्मान्ध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्रका तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेषके आकारका निश्चय नहीं हुआ है । (ध. ६/४,१,४५/१४५/६ ) । २. जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु ऐसे विभिन्न कारणोसे उत्पन्न होनेके कारण घट व पट मित्र हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरणके क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणो से उत्पन्न होनेके कारण दर्शन व ज्ञानमे भेद है। (और भी दे० दर्शन /५/५) |
१०. दर्शन व संग्रहनयमें अन्तर
श्लो. बा. २/१/१४/१५/०४६/२१ न हि सन्मायाही संग्रहो नयी दर्श स्यादित्यतिव्याप्ति शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपते. भूतभेदा नया इति वचनात् सम्पूर्ण वस्तुकी संग्रहीत केवल सत्ताको ग्रहण करनेवाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञानका भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होनेसे उसे नयपना बन रहा है। और ग्रन्थोंमें श्रुतज्ञानके भेदको नयज्ञान कहा गया है।
३. दर्शन व ज्ञानको क्रम व अक्रम प्रवृत्ति
१. छद्मस्थोंके दर्शन व ज्ञानक्रम पूर्वक होते हैं और केवलीको अक्रम
नि. सा./मू. १६० जुगवं वट्टह णाणं केवलिणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं १६०। - केवलज्ञानीको ज्ञान तथा दर्शन युगपत् वर्तते है । सूर्य के प्रकाश व ताप जिस प्रकार वर्त हों, उसी प्रकार जानना ।
घ. १३/२.२ ५/३६/१ धदुमत्यणापाणि इंसानि केवलमाणं पुण केवल दंसणसमकालभावी णिरावणत्तादो । छद्मस्थो के ज्ञान दर्शन पूर्वक होते है परन्तु केवलज्ञान केवलदर्शनके समान कालमें होता है; क्योंकि उनके ज्ञान और दर्शन ये दोनों निरावरण हैं। (रा.वा./२/६/३/१२/११) (१.प्र./मू./१/१५) (. ३/१.२.१६९/ ४५७/२); (द्र.सं./. ४४) ।
२. केवल दर्शन व केवलज्ञानकी युगपत् प्रवृति हेतु क. पा. ९/९-२० / प्रकरण / पृष्ठ / पंक्ति केवलणाम केवट समास उप जोगकालो तोहुतमेोति भनिदो तेव्हा नाद'सणाणमकमेण उत्ती होदि ति । ( ३३१६ / ३५१ / २ ) । अथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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