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ધર્મધ્યાન
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३. धर्मध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमे अन्तर
चानक
गिनना ध्यान है। उत्तर-नहीं, क्योकि, ऐसा माननेसे ध्यानके है। क्योकि, कषायसहित धर्मध्यानीके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके लक्षणका अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि, इसमे एकाग्रता नही है। अन्तिम समयमै मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना देखी जाती है। ४. गिनती करनेमे व्यग्रता स्पष्ट ही है।
तीन घातिकर्मोका समूलविनाश करना एकवितर्क अवीचार ( शुक्ल) ५. धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद
ध्यानका फल है, परन्तु मोहनीयका विनाश करना धर्मध्यानका
फल है। क्योंकि, सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका १. विषय व स्थिरता आदिकी अपेक्षा दोनों समान है
विनाश देखा जाता है। मा,अनु./६४ सुधुवजोगेण पुणो धम्म सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा ____ म पु /२१/१३१ विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवधार्यताम् । ५. इन सवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिच्च ६४। -१. शुद्धोपयोगसे ही दोनोमे स्वामी व विशुद्धिके भेदसे परस्पर विशेषता समझनी जीवको घHध्यान व शुक्लध्यान होते हैं। इसलिए सवरका कारण चाहिए । (त.अनु./१८०) ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए। (दे० मोक्षमार्ग/२/ दे० धर्मध्यान/४/१/३६. धर्मध्यान शुक्लध्यानका कारण है। ४); (त-अनु./९८०)
दे० समयसार-धर्म ध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान कार्य ध,१३/५,४,२६/७४/१जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ समयसार है। होदि तो सुझज्झाणेण णिव्विसएण होदव्बमिदि ! ण एस दोसो दोणं पि ज्माणाणं विसयं पडिभेदाभावादो। जदि एवं तो दोणं
४. धर्मध्यानका फल पुण्य व मोक्ष तथा उनका ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो। .-खज्जतो वि...फाडिज्जंतो वि ...कवलिज्जतो वि.. लालिज्जतओ विजिस्से अवत्थाए ज्झेयादो
समन्वय ण चल दि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम । एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो,अण्णहाज्माणभावाणुववत्तीदो त्ति । एत्थ परिहारो बुच्चदे
१. धर्मध्यानका फल अतिशय पुण्य सच्चं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्माणाणं भेदाभावादो।
ध. १३/५,४,२६/५६/७७ होति सुहासव संवर णिज्जरामरसुहाई विउ-प्रश्न- २. यदि समस्त समयसद्भाव (संस्थानविचय) धर्म्य
लाई। झाणवरस्स फलाई सुहाणुबंधीणि धम्मस्स ! - उत्कृष्ट धर्मध्यानका ही विषय है तो शुक्लध्यानका कोई विषय शेष नहीं
ध्यानके शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवोका सुख ये शुभानुबन्धी रहता! उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानोमें
विपुल फल होते है। विषयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। (चा. सा./२१०/३) प्रश्न-यदि
ज्ञा./४१/१६ अथावसाने स्वतनु विहाय ध्यानेन संन्यस्तसमस्तसङ्गाः। ऐसा है तो दोनों ही ध्यानोंमे अभेद प्राप्त होता है। क्योकि
ग्रवेयकानुत्तरपुण्यवासे सर्वार्थ सिद्धौ च भवन्ति भव्याः। =जो भव्य ( व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, (करोंतों द्वारा) फाडा
पुरुष इस पर्यायके अन्त समयमे समस्त परिग्रहोंको छोड़कर धर्मगया भी, (दावानल द्वारा) प्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) ध्यानसे अपना शरीर छोडते है, वे पुरुष पुण्यके स्थानरूप ऐसे प्रैवेलालित किया गया भी, जो जिस अवस्थामें ध्येयसे चलायमान
यक व अनुत्तर विमानोमे तथा सर्वार्थ सिद्धि में उत्पन्न होते है। नहीं होता, बह जोवकी अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकारका यह भाव दोनों ध्यानोमें समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणामकी २. धर्मध्यानका फल संवर निर्जरा व कर्मक्षय उत्पत्ति नहीं हो सकती। उत्तर-यह बात सत्य है, कि इन दोनों प्रकारके स्वरूपोको अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है।
ध.१३/५४,२६/२६,५७/६८,७७ णवकम्माणादाणं, पोराणवि णिज्जराम.पु./२१/१३१ साधारणमिदं ध्येयं ध्यानयोधर्म्य शुक्लयोः। -विषय
सुहादाणं । चारित्तभावणाए ज्माणमयत्तण य समेइ ।२६। जह वा की अपेक्षा तो अभीतक जिन ध्यान करने योग्य पदार्थोंका (दे०
घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिज्जंति । ज्माणप्पवणोवह्या धर्मध्यान सामान्य व विशेषके लक्षण ) वर्णन किया गया है, वे सब
तह कम्मघणा विलिज्जति ।५७ - चारित्र भावनाके बलसे जो धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही ध्यानोके साधारण ध्येय
ध्यानमें लीन है, उसके नूतन कर्मोका ग्रहण नही होता, पुराने हैं । (त,अनु./१८०)
कर्मोंकी निर्जरा होती है और शुभ कर्मोका आस्रव होता है ।२६।
(ध/१३/५/४/२६/५६/७७ -दे० ऊपरवाला शीर्षक) अथवा जैसे २. स्वामी, स्थितिकाल, फल व विशुद्धिकी अपेक्षा भेद है
मेघपटल पवनसे ताड़ित होकर क्षणमात्रमें विलीन हो जाते ध.१३/५,४,२६/७५/८ तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकालचिर- है, वैसे ही (धर्म्य ) ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्ममेघ कालावट्ठाणेण य दोण्ण झाणाणं सिद्धो भेआ।
भी विलीन हो जाते हैं । ध.१३/५,४,२६/८०/१३ अट्ठावीसभेयभिण्णमोहणीयस्स सव्वसमाव- (दे० आगे धर्म्यध्यान/६/३ में ति. प.), (स्वभावसंसक्त मुनिका ध्यान
ठाणफलं पुधत्त विदक्कवीचारसुक्कज्झाणं । मोहसव्वुसमो पुण निर्जराका हेतु है।) धम्मज्माणफलं; सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहमसापराइयस्स
(दे० पीछे/धर्म्यध्यान/३/५/२); (सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें चरिमसमए मोहणीयस्स सव्वुक्समुवलंभादो। तिणं घादिकम्माणं
कर्मों की सर्वोपशमना तथा मोहनीकर्मका क्षय धर्म्यध्यानका हिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्माणं । मोहणीय विणासो
फल है।) पुण धम्मज्झाणफलं; सुहुसांपरायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो। १. सकषाय और अकषायरूप स्वामीके भेदसे तथा--
ज्ञा./२२/१२ ध्यानशुद्धि,मन शुद्धि, करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि
नि.शड्कं कर्मजालानि देहिनाम् ।१५॥ - मनकी शुद्धता केवल ध्यान(चा.सा./२१०/४) । २. अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति
को शुद्धताको ही नहीं करती है, किन्तु जीवोंके कर्मजालको भी रहनेके कारण इन दोनों ध्यानोंका भेद सिद्ध है । (चा. सा./२१०/४) ।
नि सन्देह काटती है। ३. अट्ठाईस प्रकारके मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना हो. जानेपर
पं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२५ पर उधृत-एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं उसमें स्थित रखना पृथक्त्व-वितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानका संवरनिर्जरे। - एकाग्र चिन्तवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और फल है, परन्तु मोहनीयका सर्वोपशमन करना धर्मध्यानका फल संवर निर्जरा उसका फल है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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