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नामकर्म
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कम्माणि वितत्तियाणि चेव । एवं सेसकाइयाणं वि वत्तवं । पृथिवीकाय नामकर्मसे युक्त जीवोंको पृथिवीकायिक कहते है। प्रश्न- पृथिवीकाय नामकर्म कही भी (कर्मके भेदोमे) नहीं कहा गया है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, पृथिवीकाय नामका कर्म एकेन्द्रिय नामक भीतर अन्तर्भूत है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो सूत्र प्रसिद्ध कमोंको संख्याका नियम नहीं रह सकता है उत्तर-सूत्र, कर्न आठही अथवा १४८ ही नहीं कहे गये है; क्योकि आठ या १४८ संख्याको छोडकर दूसरी संख्याओंका प्रतिषेध करनेवाला एवकार पर सूत्र नहीं पाया जाता है। प्रश्न- तो फिर कर्म कितने है । उत्तर-लोकमें घोडा, हाथी, वृक (मेडिया), भ्रमर शलभ मत्कुण, उद्देहिका ( दीमक ), गोमी और इन्द्र आदि रूपसे जितने कर्मो के फल पाये जाते है, कर्म भी उतने ही है । ( ध. ७/२,१.१९/७०/७ ) इसी प्रकार शेष कायिक जीवोके विषयमें भी कथन करना चाहिए। घ. ७/२,१०,१२/२०१५ कम्मोदरण जहा जवाफद
शेणं
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मतं होदि तहा निगोदामकम्मोदरण निगोदत्तं होदि सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिस प्रकार नस्पतिकाविकादि जीवोंके सूक्ष्मपना होता है उसी प्रकार निगोद नामकर्म के उदयसे निगोदव होता है।
ध. १३/५.५,१०१/३६६/६ को पिंडो णाम । बहूणं पयडीणं संदोहो पिड़ो । तसादितं त्तिताओ ओत्ति घेत्तव्य, तत्थ वि बहूणं पयडीणमुवलं भादो । कुदो तदुवलद्धी । जुत्तो का जुत्तो । कारणत्रहुत्तेण विणा भमर-पयंग-मायंग-तुरंगादादो
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घ. १३/५,५,१३३/३८७/११ ण च एदासिमुत्तरोत्तरपयडीओ णत्थि, पपरोरा-धमणारीणं साहारणसरीराचं गुलयहतवादी बहुविहार-गमवादीमुक्त भादो १ प्रश्न पिठ (प्रकृति) का अर्थ क्या है ? उत्तर--बहुत प्रकृतियोंका समुदाय पिण्ड कहा जाता है प्रश्न प्रस आदि प्रकृतियों तो बहुत नहीं है, इसलिए क्या प्रकृतियों है उत्तर ऐसा ग्रहण नहीं करना चाहिए क्यों वहाँ भी युक्तिसे बहुत प्रकृतियाँ उपलब्ध होती हैं और वह युक्ति यह है कि क्योकि, कारणके बहुत हुए बिना भ्रमर, पतंग, हाथी, और घोडा आदिक नाना भेद नहीं बन सकते है, इसलिए जाना जाता है, कि सादि प्रकृतियाँ बहुत हैं ।। २. यह कहना भी ठीक नहीं है कि अगुरुलघु नानकर्म आदिको उत्तरोतर प्रकृतियों नहीं है, क्योंकि, धन और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर की और हर मूली आदि साधारणशरीर; तथा नाना प्रकारके स्वर और नाना प्रकारके गमन आदि उपलब्ध होते हैं ।
और भी दे० नीचे शीर्षक नं० (भवनवासी आदि स मे नामकर्म५ कृत हैं ।)
४. तीर्थंकरववत् गणधर आदि प्रकृतियोंका निर्देश क्यों नहीं
रा. वा./८/२१/४९/५८० / ३ यथा तीर्थकर त्वं नामकर्मोच्यते तथा गणधरस्वानामुपसंख्यानं कर्तव्यस् गणधर चक्रघरमा अि विशिष्ट इति चेदः सम्म कि कारणम् अन्यनिमित्तखात् । गणत्वं ज्ञानावरणायोपशमप्रकर्ष निमित्तम् चक्र दरवादोनि उच्चैर्गोत्रविशेषहेतुकानि । - प्रश्न- जिस प्रकार तीर्थ करव नामकर्म कहते हो उसी प्रकार गणधरख आदि नामकमका उल्लेख करना चाहिए था; क्योकि गणधर चक्रधर, वासुदेव, और बलदेव भी विशिष्ट ऋद्धिसे युक्त होते है। उत्तर- नही, क्योंकि, वे दूसरे निमित्तो से उत्पन्न होते है । गणधरत्वमे तो श्रुतज्ञानावरणका प्रकर्ष क्षयोपशम निमित्त है और चक्रधरत्व आदिकोमे उच्चगोत्र विशेष
हेतु है
नामनिक्षेप
५. देवगतिमें मवनवासी आदि सर्वभेद नाम कर्मकृत हैं रा. वा /४/१०/३/२१६/६ सर्वे ते नामकर्मोदयापादितविशेषा वेदितव्या'। रा. वा. /४/११/३/२१७/१८ नामकर्मोदय विशेषतस्तद्विशेषसंज्ञा' ।... किन्नरनामकर्मोदयारिक किपुरुषनामकर्मोदयात किरुमा इयादि । रा. बा./१/१२/३/२१०/१० मा विशेष पूर्ववनिवृतिर्वेदितव्यादेवगतिनामकर्म विशेषोदयादिति । =वे सब ( असुर नाग आदि भवनवासी देवोके भेद ) नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए भेद जानने चाहिए। नामकर्मोदयकी विशेषता ही वे (पतर देवी के किन्नर आदि) नाम होते हैं जैसे किन्नर नामकर्म के उदयसे किन्नर और किपुरुष नामकर्म के उदयसे याद उन ज्योतिषी देनोंकी भी पूर्वी 'ति जाननी चाहिए अर्था (सूर्यचन्द्र आदि भी) देवगति नामकर्म विशेषके उदयसे होते हैं।
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६. नामकर्मके अस्तित्वकी सिद्धि
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ध. ६/१,६-१,१०/१३/४ तस्स णामकम्मस्स अत्थितं कुदोवगम्मदे | सरीरठाणादिकभेदणाणुनयसीदो प्रश्न उस नामकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? उत्तर- शरीर, संस्थान, वर्ण आदि कार्योंके भेद अन्यथा हो नहीं सकते हैं।
म. ७/२.१.११/००/१ कारणेण विना कज्यापमुप्पत्ती अस्थि । दोसंति विउ-उ-बाद-दिवसकाहादिसु अमेगाणि कज्जाणि । तदो कज्जमेत्ताणि चैव कम्माणि वि अस्थि ति णिच्छाओ काव्वो । कारणके बिना तो कार्यकी उत्पत्ति होती नहीं है। और पृथिवी, अ, तेज, वायु, वनस्पति और उसकायिक आदि जीयो में उनको उक्त पर्यायरूप अनेक कार्य देखे जाते है। इसलिए जितने कार्य है उतने उनके कारणरूप कर्म भी हैं, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए ।
७. अन्य सम्बन्धित विषय
२. नामकर्मके उदाहरण
२. नामकर्म प्रकृतियोंमें शुभ-अशुभ विभाग
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३. शुभ-अशुभ नामकर्मके बन्धयोग्य परिणाम ४. नामकर्मकी बन्ध उदय सत्य प्ररूपणार्थे ५. जीव विपाकी भी नामकर्मको अवाती कहनेका कारण।
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नामकर्म क्रिया दे० संस्कार/ २०
नाम नय (दे० नर्वे ///३)
नाम निक्षेप - १. नाम निक्षेपका लक्षण
६. गविनाम कर्म जन्मका कारण नहीं आयु है
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-३० प्रकृतिगंध / ३
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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- दे० प्रकृतिबंध / २ ।
- दे० पुण्य पाप ।
दे० यह वह नाम ।
- दे० ३० अनुभाग /३ । ३० आयु / २
स.सि./१/५/१०/४ अक्षगुणे वस्तुनि संव्यवहारार्थं पुरुषकारानियुज्य मानं संज्ञाकर्म नाम संज्ञा के अनुसार जिसमे गुण नहीं हैं ऐसी वस्तु अवहार के लिए अपनी इच्छासे की गयी संज्ञाको नाम ( नाम निक्षेप) कहते है । (स. सा./आ /१३/क. ८ की टीका); (पं ध/ ५. ०४२)।
रा. वा / १/५/१/२०१४ निमिषादम्यनिमित निमित्तान्तरम्, तदमपेक्ष्य किमया सहा नामत्युच्यते यथा परमेश्वर्यन्दन कियानिमित्तान्तरानपेक्षं कस्यचित् इन्द्र इति नाम । = निमित्तसे जो अन्य निमित्त होता है उसे निमित्तान्तर कहते है । उस निमित्तान्तरकी अपेक्षा न करके [ अर्थात् शब्द प्रयोगके जाति, गुण, क्रिया आदि निमित्तों की अपेक्षा न करके लोक व्यवहारार्थ ( श्लो. वा. ) ] की जानेवाली संज्ञा नाम है। जैसे--परम ऐश्वर्यरूप इन्दन क्रियाकी
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