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जयसेन
जल
थी। समय-वि.-१११२-१११५. ( ई.१०५५-१०५८)।--विशेष दे० इतिहास/३/१ (स.श./प्र./२६/ पं. जुगल किशोर )। २. जयसिंहराज द्वि. भोजवंशी राजा थे। भोजवंशकी वंशावलीके अनुसार राजा देवपालके पुत्र थे। अपर नाम जैतुगिदेव था। इनका देश मालवा (मगध ) तथा राजधानी उज्जैनी (धारा नगरी ) थी। समय-वि० १२८५-१२६६ (ई. १२२८-१२३६)-दे० इतिहास/३/१३. सिद्धराज जय सिह गुजरात देशकी राजधानी अणहिल्लपुर पाटणके राजा थे। आप पहले शैव मतावलम्बी थे, पीछे श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रसे प्रभावित होकर जैन हो गये थे। समय-ई. १०८८-११८३। (स. म./प्र. ११)। ४. जयसिंह सवाई जय पुरके राजा थे। वि. १७८४ में आपने ही जयपुर नगर बसाया था। समय-वि. १७६०-१८०० (ई. १७०३-१७४३) ( मो. मा. प्र./प्र.१७/पं. परमानन्द)। जयसन-१. (म.प्र./१८/श्लो नं.)। जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावतीका राजा था ।५८ पुत्र रतिषणको मृत्युपर विरक्त हो दीक्षा धर ली/६२-६७ । अन्तमें स्वर्गमें महाबल नामका देव हुआ/६८ । यह सगर चक्रवर्तीका पूर्व भव नं. २ है।-दे० सगर । २. (म पु./६६/श्लो. नं.) पूर्व भव नं.२ में श्रीपुर नगरका राजा वसुन्धर था ।७४। पूर्वभव नं. १ मे महाशुक्र विमानमें देव था ७७। वर्तमान भवमें ११वाँ चक्रवर्ती हुआ ।७८। अपर नाम जय था।-दे० शलाका पुरुष/२।।
कर ली। (६६/३)। २. द्वारका दहनके पश्चात कलिगका राजा हुआ। इसकी सन्ततिमें ही राजा वसुध्वज हुए।-दे० इतिहास ७/१० । जरा(नि. सा/ता. वृ/६ ) तिर्यड्मानवानां वय कृतदेहविकार एव जरा। -
तियंचों और मनुष्योंका आयुकृत देहविकार जरा है। जरापल्ली-जरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र भट्टारक पद्मनन्दि नं.१० (ई. १३२८-१३६३) की एक१०पयों वाली रचना है । (ती /३/३२३)। जरायु-(स. सि/२/३३/१८६/१२) यज्जालवत्प्राणिपरिवरणं विततमांसशोणित तज्जरायुः । = जो जालके समान प्राणियोका आवरण है और जो मांस और शोणितसे बना है उसे जरायु कहते हैं ( रा.
वा/२/३३/१/१४३/३०); ( गो. जी./जी प्र./८४/२०७/४ ). जरासंध-(ह. पु/सर्ग/श्लोक )-राजगृह नगरके स्वामी बृहद्रथका
पुत्र था (१८/२१-२२)। राजगृह नगरका हरिवंशीय राजा था। (३३/२) । अपनी पुत्री जीवद्यशाका विवाह केसके साथ करके उसे अपना सेनापति बना लिया (३३/२४)। कृष्ण द्वारा कंस मारा गया।(३६/४५) । युद्धमें स्वयं भी कृष्ण द्वारा मारा गया (१२/८३-८४) । यह तीन खण्डका स्वामी वॉ प्रतिनारायण था ( १८/२३) विशेष
दे० शलाका पुरुष/५)। जल-जैनाम्नायमें जलको भी एकेन्द्रिय जीवकाय स्वीकार किया गया है।
१. जलके पर्यायगत भेद मू.आ/२१० ओसाय हिमग महिगा हरदणु सुद्धोदगे घणुदुगे य । ते जाण
आउजीवा जाणित्ता परिहरेदब्वा ।२१०। ओस, बर्फ, धुआँके समान पाला, स्थूलबिन्दु रूपजल, सूक्ष्म बिन्दु रूप जल, चन्द्रकान्त मणिसे उत्पन्न शुद्ध जल, झरनेसे उत्पन्न जल, मेघका जल वा घनोदधिवात जल-ये सब जल कायिक जीव हैं । (पं.स./प्रा./१/७८); (ध./१/१,१,४२ गा१५०/२७३), (भ.आ/वि/६०८/८०५/१७); (त.सा/२/६३) ।
जयसन-१. श्रुतावतारको पट्टावलीके अनुसार आप भद्रबाहू श्रुतकेवलीके पश्चात् चौथे ११ अंग व १४ पूर्वधारी थे । समय-वी. नि. २०८-२२६ ( ई. पू./३१९-२६८ ) दृष्टि नं ३ के अनुसार वी. नि. २६८२८६१-दे० इतिहास/४/४।२ पुन्नाटसंघ- की गुर्वावली के अनुसार आप शान्तिसेनके शिष्य तथा अमितसेनके गुरु थे । समय-वि.७८०. ८३० ( ई. ७२३-७७३ )।-दे० इतिहास/७/८ ।३. पंचस्तूप संघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आर्यनन्दिके शिष्य तथा धवलाकार श्री वीरसेनके सधर्मा थे। समय-ई. ७७०-८२७ -दे० इतिहास/७/७ । ४. लाड़बागड संघकी गुर्वावलोके अनुसार आप भावसेनके शिष्य तथा ब्रह्मसेनके गुरु थे। कृति-धर्म-रत्नाकर श्रावकाचार । समय--- वि.१०५५( ई.६६८)।-दे०इतिहास/७/१०। जे/१/३७५) ५-आचार्य वसुनन्दि (वि. ११२५-११७५, ई. १०६८- १११८) का अपर नाम । प्रतिष्ठापाठ आदिके रचयिता।-दे० वसुनन्दि/३ ६.लाड़बागड़संघकी गुर्वावलीकेअनुसार आप नरेन्द्रसेनकेशिष्य तथा गुणसेन नं.२ व उदयसेन नं. २ के सधर्मा थे। समय-वि. ११८०-दे० इतिहास७/१०। वीरसेन के प्रशिष्य सोमसेन के शिष्य । कृतिये-समयमार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय पर सरल संस्कृत टीकायें। समय-t. कैलाश चन्द जी के अनुसार बि. श. १३ का पूर्वाध, ई. श. १२ का उत्तरार्ध । डा० नेमिचन्द के अनुसार ई. श. ११ का उत्तरार्ध १२ का पूर्वाध । (जै /२/१६४), (तो,/३/१४३)।
जया-१. अरहनाथ भगवानकी शासक यक्षिणी-दे० तीर्थकर//३
२. एक विद्याधर विद्या,व एक मन्त्र विद्या-दे०विद्या। ३. वाचना या व्याख्याका एक भेद-दे० वाचना।
२. प्राणायाम सम्बन्धी अपमण्डल ज्ञा./२६/२० अर्द्धचन्द्रसमाकारं वारुणाक्षरलक्षितम् । स्फुरत्सुधाम्बुसं सिक्तं
चन्द्राभ वारुणं पुरम् १२० - आकारतो आधे चन्द्रमाके समान, वारुण बीजाक्षरसे चिह्नित और स्फुरायमान अमृतस्वरूप जलसे सींच। हुआ ऐसा चन्द्रमा सरीखा शुकवर्ण वरुणपुर है । यह अप-मण्डलका स्वरूप कहा। ३. अन्य सम्बन्धित विषय १. जलके काय कायिकादि चार भेद-दे० पृथिवी। २. बादर जलकायिकोंका भवनवासी देवोंके भवनों तथा नरक
पृथिवियोंमें अवस्थान ।-दे० काय/२/५ । ३. जलमें पुद्गलके सर्वगुणोंका अस्तित्व ।-३० पुद्गल/११ ४. मार्गणा प्रकरणमें भावमार्गणाकी इष्टता तथा वहाँ आयके
अनुसार ही व्ययका नियम ।-दे० मार्गणा। ५. जलकायिक सम्बन्धी गुणस्थान, मार्गणास्थान व जीवसमास
आदि २० प्ररूपणाएँ-दे० सत् ।। ६. जलकायिक सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर,
भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ--दे० वह-वह नाम । ७. जलकायिक नामकर्मका बन्ध उदयसत्व -दे. वह-वह नाम । ८. जलका वर्ण धवल ही होता है-दे० लेश्या/३ )
जयावह-विजया की उत्तरश्रेणीका एक नगर ।-(दे. विद्याघर ). जरत्कुमार-१.( ह. पु/सर्ग/श्लोक )-रानी जरासे बसुदेवका पुत्र था। (४८/६३) भगवान् नेमिनाथके मुखसे अपनेको कुष्णकी मृत्युका कारण जान जंगल में जाकर रहने लगा (६१/३०) द्वारिका जलनेपर जब कृष्ण वनमे आये तो दूरसे उन्हें हिरन समझकर बाण मारा, जिससे वह मर गये (६२/२७-६१)। पाण्डवोंको जाकर सब समाचार बताया (६३/४६)। और उनके द्वारा राज्य प्राप्त किया (६३/७२) । इनसे यादव वंशकी परम्परा चली। अन्तमें दीक्षा धारण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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