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धूम चारण ४९२
ध्याता कारण अज्ञानतप करके देव हुआ।२२१॥ पूर्व वैरके कारण इसने बायाभावादो।'ण च दव्वसुदेण एस्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स प्रद्युम्नको चुराकर एक पर्वतकी शिलाके नीचे दमा दिया ।२२२॥ जडस्स णाणोवलिंगभूदस्स सुदत्तबिरोहादो। थोवदव्यसुदेण अवगयाधूम चारण-दे० ऋद्धि/४ ।
सेस-णवपयस्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीर्ण झाणाभावेण मोक्खा
भावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्माणं होदि तो खवगसेडिधूम दोष-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/I/४ । २. बस्ति
उवसमसेडिणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि । चोहस-दस-णवपुव्यकाका एक दोष-दे० वस्तिका।
हरा पुण धम्मसुक्कझाणं दोणं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। धूमप्रभा
तेण तेसिं चेव एत्य णिसो कदो। जो चौदह पूर्वोको धारण स.सि./११/२०३/८ धूमप्रभा सहचरिता भूमि मप्रभा ।- जिस पृथिवी- करनेवाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि इतना ज्ञान हुए
की प्रभा धुके समान है वह भूमि धूमप्रभा है। (ति.प./२/२१), मिना, जिसने नौ पदार्थोंको भली प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यान(रा.वा./३/१/३/१५६/११)
की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। प्रश्न-चौदह, दस और नौ पूर्वोके ज. प./११/१२९ अबसेसा पुढवीओ मोद्धमा होति पंकबहुलाओ। बिना स्तोकग्रन्थसे भी नौ पदार्थ विषयक ज्ञान देखा जाता है।
-रवप्रभाको छोड़कर (नरककी) शेष छः पृथिवियोंको पंक बहुल उत्तर-नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थसे बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान जानना चाहिए।
सकते हैं, उनके सिवा दूसरे मुनियोंको जाननेका कोई साधन नहीं * इस पृथिवीका विस्तार -दे० लोक ।
है। (अर्थात जो भीजबुद्धि नहीं है वे मिना श्रुतके पदार्थोका ज्ञान
करनेको समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुतका यहाँ अधिकार नहीं है। * इसके भवस्थान नकशे-दे० लोक/७ ।
क्योंकि ज्ञानके उपलिंगभूत पुदगलके विकारस्वरूप जड़बस्तुको धूलिकलशाभिषेक-दे० प्रतिष्ठा विधान ।
श्रत (ज्ञान) मानने में विरोध पाता है। प्रश्न-स्तोक द्रव्यश्रुतसे नौ
पदार्थोंको पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियोंके धूलिशाल-समवशरणका प्रथम कोट-दे० समवशरण।
ध्यान नहीं माननेसे मोक्षका अभाव प्राप्त होता है। उत्तर-स्तोक धृतराष्ट्र-(पा.पु./सर्ग/श्लोक) भीष्मके सौतेले भाई व्यासका पुत्र ज्ञानसे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व उपशमश्रेणीके अयोग्य
था। (७/११७)। इसके दुर्योधन आदि सौ कौरव पुत्र थे। (१९८३- धर्मध्यान ही होता है (धवलाकार पृथक्त्व वितर्कवीचारको धर्मध्यान २०५) । मुनियोंसे भावी युद्धमें उन पुत्रोंकी मृत्यु जानकर दीक्षित मानते हैं-दे० धर्मध्यान/२/४-६) परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वोके हो गया । (१०/१२-१६)
धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानोंके स्वामी होते हैं। क्योंकि धृति-दे० संस्कार/२।
ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हींका यहाँ
निर्देश किया गया है। धृति (देवी)-१. निषध पर्वतपर स्थित तिगिछ हद व धृति म.पू./२/१०१-१०२ स चतुर्दशपूर्वज्ञो दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक ५/४ २, रुचक पर्वत निवासिनी
वा स्याद ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।१०१॥ श्रुतेन विकलेनापि स्याद एक दिक्कुमारी देवी। -. लोका१३ ।
ध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कलाम् । क्षपकोपशमश्रेण्योः उत्कृष्ट ध्यानघृति भावना-दे० भावना/२।
मृच्छति ।१०४॥ -यदि ध्यान करनेवाला मुनि चौदह पूर्वका, या धृतिषेण-भूतावतारको पट्टावलीके अनुसार आप भद्रबाहु प्रथम
दश पूर्वका, या नौ पूर्वका जाननेवाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण
लक्षणोंसे युक्त कहलाता है ।१०१। इसके सिवाय अल्पश्रुतज्ञानी (श्रुतकेवली ) के पश्चात सातवें ११ अंग १० पूर्वधारी थे। समय
अतिशय बुद्धिमान और श्रेणीके पहले पहले धर्मध्यान धारण करनेबी.नि. २६४-२८२: (ई.पू. २६३-२४५-२० इतिहास/४।
वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है।१०२॥ धैवत-दे० स्वर।
स.सा./ता../१०/२२/११ ननु तर्हि स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि धेर्या-भरत क्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी। -दे० मनुष्य/४।
श्रुतकेवली भवति । तन्ना यादृशं पूर्व पुरुषाणां शुक्लध्यानरूप स्वसंवेदन
ज्ञानं तादृशमिदानी नास्ति किन्तु धर्मध्यानयोग्यमस्तीति । ध्याता-धर्म व शुक्लध्यानोंको ध्यानेवाले योगीको ध्याता कहते हैं।
-प्रश्न-स्वसंवेदनज्ञानके बलसे इस कालमें भी श्रुतकेवली होने उसीकी विशेषताओं का परिचय यहाँ दिया गया है।
चाहिए : उत्तर-नहीं, क्योंकि जिस प्रकारका शुक्लध्यान रूप १. प्रशस्त ध्वातामै ज्ञान सम्बन्धी नियम व स्पष्टीकरण स्वसंवेदन पूर्वपुरुषोंके होता था, उस प्रकारका इस कालमें नहीं
होता। केवल धर्मभ्यान योग्य होता है। स.सू.३७ शुक्ले चाय पूर्व विदः ॥३७॥
व.सं/टी./१७/२३२ हयथोक्त दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति स.सि./६/३७/१५३/४ आने शुक्लभ्याने पूर्वविदो भवतः श्रुतकेवलिन तदप्मुसर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिगुमिप्रतिइत्यर्थः। (नेतरस्य (रा.वा.)) चशम्देन धर्नामपि समुच्चीयते। पादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति । तथा जो ऐसा कहा है, कि - शुक्लध्यानके भेदोंमेंसे आदिके दो शुक्तध्यान (पृथक्त्व व एकत्व 'दश तथा चौदह पूर्वतक श्रुतहानसे ध्यान होला है, वह उत्सर्ग बितर्कवीचार) पूर्व विद अर्थात श्रुतकेसीके होते हैं अन्यके नहीं। वचन है। अपवाद व्याख्यानसे तो पाँच समिति और तीन गुप्तिको सूत्र में दिये गये 'च' शब्दसे धर्म्यध्यानका भी समुच्चय होता है।
प्रतिपादन करनेवाले सारभूतश्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है। (पं.का./ (अर्थात शुक्लध्यान तो पूर्व विदको ही होता है परन्तु धर्मध्यान
ता.व./१४६/२१२/8); (और भी दे० श्रुतकेवली) पूर्व विदको भी होता है और अल्पश्रुतको भी।) (रा.बा./६/३७/१/ ६२/२०)
२. प्रशस्त ध्यानसामान्य योग्य ध्याता प.श५-४,२६/६४/६ पउदस्सपुम्बहरो वा [दस णयपुन्वहरो बा, णाणेण ध१३/१,४,२६१६४/६ तत्थ उत्तमसंघडणो ओधबलो ओघसूरो चोहस्सविणा अणवगम-णवषयवस्स माणाणुववत्तीदो ।...चोदस-दस- पुन्बहरो वा [दस] णवपुषहरो वा। -जो उत्तम संहननवाला, पवपुग्वेहि विणा थोषण वि गंधण णवपयस्वावगमोवलं भादो। ण, निसर्गसे बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौ पूर्वको थोवेण गण णिस्सेसमधगंतुं मौजबुद्धिमुषिणो मोसूण अण्णेसिमु- धारण करनेवाला होता है वह ध्याता है । (म.पु./२१/८५)
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