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ज्योतिष लोक
ज्योतिष लोक
८. अमावस्या, ग्रहण, दिन-रात्रि आदिका उत्पत्ति क्रम
१. अमावस्या, पूर्णिमा व चन्द्र ग्रहणति.प./७/गा. चन्द्रके नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर राहु विमानके ध्वज दण्ड होते हैं । २०१३ दिन और पर्व के भेदसे राहुओंके पुरतलोंके गमन दो प्रकार होते हैं। इनमेंसे दिन राहूकी गति चन्द्र सदृश होती है ।२०। एक वीथीको लॉघकर दिन राह और चन्द्रबिम्ब जम्बूद्वीपकी आग्नेय और वायव्य दिशासे तदनन्तर वीथीमें आते हैं ।२०७। राहु प्रतिदिन एक-एक पथमें चन्द्रमण्डलके सोलह भागोंमें से एक-एक कला (भाग) को आच्छादित करता हुआ क्रमसे पन्द्रह कला पर्यत आच्छादित करता है ।२०८,२११। इस प्रकार अन्तमें जिस मार्ग में चन्द्रकी केवल एक कला दिखाई देती है वह अमावस्या दिवस होता है ।२१२। चान्द्र दिवसका प्रमाण ३१४४३ महर्त प्रमाण है ।२१३। प्रतिपदाकै दिनसे वह राहु एक-एक वीथीमें गमन विशेषसे चन्द्रमाकी एक-एक कलाको छोडता है ।२१४। यहाँ तक कि मनुष्य लोकमें उनमेंसे जिस मार्गमे चन्द्र बिम्ब परिपूर्ण दिखता है वह पूर्णिमा नामक दिवस होता है ।२०६। अथवा चन्द्र बिम्ब स्वभावरी ही १५ दिनों तक कृष्ण कान्ति स्वरूप और इतने ही दिनों तक शुक्ल कान्ति स्वरूप परिणमता है।२१५। पर्वरोहु नियमसे गतिविशेषोंके कारण छह मासोंमें पूर्णिमाके अन्तमें पृथक्-पृथक् चन्द्रबिम्बोंको आच्छादित करते हैं । ( इससे चन्द्र ग्रहण होता है ) २१६।
.. ज्योतिषी देवोंके निवासों व विमानोंका स्वरूप व संख्या ति.प./७/गा, चन्द्र विमानों (नगरों) में चार-चार गोपुर द्वार, कूट,
वेदी व जिन भवन हैं ।४१-४२१ विमानों के कूटोंपर चन्दोके प्रासाद होते हैं ।५०। इन भवनों में उपपाद मन्दिर, अभिषेकपुर, भूषणगृह, मैथुनशाला, क्रीड़ाशाला, मन्त्रशाला और सभा भवन हैं ।५२। प्रत्येक भवनमें सात-आठ भूमियाँ ( मंजिलें ) होती हैं ।५६। चन्द्र विमानों व प्रासादोंवत सूर्य के विमान व प्रासाद हैं ।७०-७४। इसी प्रकार ग्रहों के विमान व प्रासाद ।८६-८७ नक्षत्रों के विमान ब प्रासाद ।१०६। तथा ताराओंके विमानों व प्रासादोका भी वर्णन जानना ।११३। राहु व केतुके नगरों आदिका वर्णन भी उपरोक्त प्रकार ही जानना ।२०४, २७५।
चन्द्रादिकोंकी निज-निज राशिका जो प्रमाण है, उतना ही अपने-अपने नगरों, कूटों और जिन भवनोंका प्रमाण है ।११४॥ १०. ज्योतिषी देवोंके विमानोंका विस्तार व रंग भादि(ति. प./७/गा.): (त्रि. सा./३३७-३३६) । संकेत :-यो-योजन, को-कोश ।
नाम
प्रमाण
आकार व्यास ति.प./७/गा.
गहराई
रंग
चन्द्र
अर्धगोल
यो.
३७-३६ ६६-६८
मणिमय
यो | १४ यो.
यो.
बुध
८४-८५
१/४ को
स्वर्ण | रजत
२.दिन व रात
सूर्यके नगरतलसे चार प्रमाणांगुल नीचे जाकर अरिष्ट ( केतु) विमानों के ध्वजदण्ड होते हैं ।२७२। सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर १८ मुहूर्त दिन और १२ मुहूर्त रात्रि होती है ।२७७। तदन्तर द्वितीयादि पथों में रहते हुए बराबर दिनमे २/६१ की हानि और रात्रिमें इतनी ही वृद्धि होती जाती है । २८० । यहाँ तक कि बाह्य मार्गमें स्थित रहते समय सब परिधियोंमें १८ मुहूर्त की रात्रि और १२ मुहूर्त का दिन होता है ।२७८। सूर्यके बाह्य पथसे आदि पथकी ओर आते समय पूर्वोक्त दिन व रात्रि क्रमश : (पूर्वोक्त वृद्धिसे ) अधिक व हीन होते जाते हैं ( ४५३); (त्रि. सा /३७६-३८१) ।
मंगल
| १ को.
शुक्र ६०-६१ बृहस्पति ६४-६५
६७-६
६६-१०१ | नक्षत्र । १०६ तारे उत्कृष्ट | १०६-११० , मध्यम १०६-१११ , जघन्य
| १०६-१११ राहु २०२-२०३
२७३-२७४
१/२ को.
१ को. कुछ कम१को १/२ को. स्फटिक १/२ को. | १/४ को. १/२ को.
१/४ को. स्वर्ण
१/२ को. सूर्यवत १ को. १/२ को. ३.को. को. | ... १/४ को. १४८ को. १यो.
| २५० धनु | अंजन
केतु
३. अयन व वर्ष
सूर्य, चन्द्र, और जो अपने-अपने क्षेत्रमें संचार करनेवाले ग्रह हैं, उनके अयन होते हैं । नक्षत्र समूह व ताराओंका इस प्रकार अयनोंका नियम नहीं है।४। सूर्यके प्रत्येक अयनमें १८३ दिनरात्रियाँ और चन्द्र के अयनमें १३४ दिन होते हैं ।४४६। सब सूर्योका दक्षिणायन आदिमें और उत्तरायन अन्तमें होता है। चन्द्रोके अयनोंका क्रम इससे विपरीत है ।५००। अभिजित आदि दै करि पुष्य पर्यन्त जे जघन्य, मध्यम. उत्कृष्ट नक्षत्र तिनके १८३ दिन उत्तरायणके हो हैं । बहुरि इनत अधिक ३ दिन एक अयन विषै गत दिवस हो है। (त्रि. सा./४०७)।
नोट-चन्द्र के आकार व विस्तार आदिका चित्र-दे० पृ०३४८ ।
४ तिथियोंमें हानि-वृद्धि व अधिक (लौंद) मास त्रि. सा./गा. एक मास विषै एक दिनकी वृद्धि होइ, एक वर्ष विषै बारह दिनकी वृद्धि होइ अढाई वर्ष विषै एक मास अधिक होइ। पंचवर्षीय युग विषै दो मास अधिक हो है । ।१४०। आषाढ मास विषै पूर्णिमावे दिन अपराह्न समय उत्तरायणकी समाप्तिपर युगपूर्ण होता है ।४११॥
ज्योतिष विद्या-१. ज्योतिष देवों (चन्द्र सूर्य आदि) को गतिविधि पर से भूत भविष्यत को 'जानने वाला एक महानिमित्त ज्ञान Asfronomy (ध. /प्र -२७) । २ साधुजन को ज्योतिष विद्या
के प्रयोग का कथंचित विधि निषेध ।-दे मंत्र। ज्वाला मालिनी कल्प
भट्टारक इन्द्र नन्दि (वि.६६६) कृत १० परिच्छेद ३७२ पच वाला तान्त्रिक ग्रन्थ । (ती./३/१८०)। ज्वालिनी कल्प
भट्टारक मक्लिषेण (ई. १०४७) कृत १४ पन्नों वाला लघुकाय तान्त्रिक ग्रन्थ । (ती./३/१७६)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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