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तत्त्व
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३. तत्त्वोपदेशका कारण व प्रयोजन
रा.वा./२/१/१६/१०१/२७ औपशमिकादिपञ्चतयभावसामानाधिकरण्या
तत्त्वस्य बहुवचनं प्राप्नोतोति; तन्न, कि कारणम् । भावस्यैकत्वात, 'तत्वम्' इत्येष एको भावः। -प्रश्न-औपशमिकादि पाँच भावों के समानाधिकरण होनेसे 'तत्त्व' शब्दके बहुवचन प्राप्त होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि सामान्य स्वतत्त्वकी दृष्टिसे यह एकवचन निर्देश है। पं.ध./३/१८६ ततोऽनन्तरं तेभ्य' 'किचिच्छुद्धमनीदृशम् । शुद्ध नव पदान्येव तद्विकाराइते परम् १८६ -शुद्ध तत्त्व कुछ उन तत्त्वोंसे विलक्षण अर्थान्तर नहीं है, किन्तु केवल नव सम्बन्धी विकारको छोडकर नव तत्त्व ही शुद्ध है। (पं.ध./उ./१५५) २. सात तत्त्व या नौपदार्थों में केवल जीव व अजीव ही प्रधान हैं स.सा./आ/१३/३१ विकार्य विकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यानाबकोभयमात्रब', संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयं बन्धः, मोच्यमोचकोभयं मोक्ष, स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः। तदुभयं च जीवाजीवाविति।-विकारी होने योग्य और विकार करनेवाला दोनों पुण्य है तथा दोनो पाप है, आस्रव होने योग्य और आस्रव करनेवाला दोनों आस्रव है, संवर रूप होने योग्य और संवर करनेवालादोनों संवर है: निर्जरा होनेके योग्य और निर्जरा करनेवाला दोनो निर्जरा हैं बँधनेके योग्य और बन्धन करनेवाला-दोनो बन्ध है, और मोक्ष होने योग्य और मोक्ष करनेवाला----दोनो मोक्ष है; क्योंकि एकके ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निजरा, बन्ध, मोक्षकी उत्पत्ति नहीं बनती। वे दोनो जीव और अजीव हैं। पं.ध/३/१५२ तद्यथा नव तत्वानि केवलं जीवपुदगलौ। स्वद्रव्याधर
नन्यत्वाद्वस्तत. कतृ'कर्मणोः ११५२। ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योकि वास्तवमें अपने द्रव्य क्षेत्रादिकके द्वारा कर्ता तथा कर्म में अन्यत्व है-अनन्यस्व नहीं है।
आस्रवादि तो जीवके अशुद्ध परिणाम है और जो अचेतन कर्मपुद्गलों की पर्याय है वे अजीवके है। आसव, बन्ध, पुण्य और पाप ये चार पदार्थ जीव और पुदगलके सयोग परिणामस्वरूप जो विभाव पर्याय है उनसे उत्पन्न होते हैं। और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोग रूप परिणामके विनाशसे उत्पन्न जो विवक्षित स्वभाव पर्याय है, उससे उत्पन्न होते है, यह निीत हुआ। श्लो वा २/१/४/४८/१५६/६ जीवाजीवौ हि धर्मिणौ तद्धर्मास्त्वात्रवादय इति । धमिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तविधमुक्तम्-सात तत्त्वोंमें जीव और अजीव दो तत्त्व तो नियमसे धर्मी हैं। तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये पॉच उन जीव तथा अजीवके धर्म है। इस प्रकार दो धर्मी स्वरूप और पॉच धर्म स्वरूप ये सात प्रकारके तत्त्व उमास्वामी महाराजने कहे है। ५. जीव पुद्गलके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धसे इनकी उत्पत्ति होती है द्र. सं./चूलिका/२८/८१-८२/६ कथं चित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिवृत्तत्वादास्रवादिसप्तपदार्था घटन्ते । - इनके कथ चित् परिणामित्व (सिद्ध) होनेपर जीव और पुद्गल के संयोगसे बने हुए आसवादि सप्त पदार्थ घटित होते है। पं.ध/उ./१५४ किन्तु संबन्धयोरेव तद्द्वयोरितरेतरम् । नैमित्तिकनिमित्ताभ्यां भावा नव पदा अमी ।१४। परस्परमें सम्बन्धको प्राप्त उन दोनो जीव और पुद्गलोके ही नैमित्तिक निमित्त सम्बन्धसे होनेवाले भाव ये नव पदार्थ है। और भी -दे० ऊपर शीर्षक नं.४।
६. पुण्य पापका आस्रव बन्धमें अन्तर्माव करनेपर १ पदार्थ ही सात तत्त्व बन जाते हैं
३. शेष ५ तत्वों या ७ पदार्थो का आधार एक जीव
द्र. सं./चूलिका/२८/८१/११ नव पदार्थाः । पुण्यपापपदार्थद्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोबन्धपदार्थस्य वा मध्ये अन्तर्भावविवक्षया सप्ततत्त्वानि भण्यन्ते। - नौ पदार्थोमें पुण्य और पाप दो पदार्थोंका सात पदार्थोंसे अभेद करनेपर अथवा पुण्य और पाप पदार्थ का बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव करनेपर सात तत्त्व कहे जाते है। पुण्य व पापका आस्रवमें अन्तर्भाव-दे० पुण्य/२/४ ।
पं.ध./उ./२६ आसवाद्या यतस्तेषां जीयोऽधिष्ठानमन्वयात् । प.ध./उ./१५५ अर्थान्नवपदीभूय जीवश्चैको विराजते। तदात्वेऽपि पर शुद्धस्तद्विशिष्टदशामृते ।१५५॥ = आस्रवादि शेष तत्वोंमें जीवका आधार है ।२६। अर्थात एक जीव ही जीवादिक नव पदार्थ रूप होकरके विराजमान है, और उन नव पदार्थोंकी अवस्थामें भी यदि विशेष दशाकी विवक्षा न की जावे तो केवल शुद्ध जीव ही अनुभवमें आता है । (पं.ध./उ./१३८) १. शेष ५ तत्त्व या सात पदार्थ जीव अजीवकी ही पर्याय हैं पं.का./ता.व./१२८-१३०/१२/११ यतस्तेऽपि तयो एव पर्याया इति।
-आत्रवादि जीव व अजीवकी पर्याय हैं। द्र.सं /मू. व टी./२८/८५ आसव बंधण संवर णिज्जर सपुण्णपावा जे। जीवाजीवनिसेसा तेवि समासेण पभणामो ।२८। चैतन्या अशुद्धपरिणामा जीवस्य, अचेतनाः कर्म पुदगलपर्याया अजीवस्येत्यर्थः । द्र.सं./चूलिका/२८/८५/२ .आसवबन्धपुण्यपापपदार्था जीवपुद्गलसंयोगपरिणामरूपविभावपर्यायेणोत्पद्यन्ते । संवरनिर्जरामोक्षपदार्थाः पुनजीवपुद्गलसंयोगपरिणाम विनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम्। -जीव, अजीवके भेदरूप जो आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोस, पुप तथा पार ऐसे सात पदार्थ है।२। चेतन्य
३. तत्त्वोपदेशका कारण व प्रयोजन
१. सप्त तत्त्व निर्देश व उसके क्रमका कारण स.सि./१/४/१४/६/सर्वस्य फलस्यात्माधीनत्वात्तदनन्तरमास्रवग्रहणम् । तत्पूर्वकत्वात्तदनन्तरं बन्धाभिधानम् । संवृतस्य बन्धाभावात्तत्प्रत्यनोकप्रतिपत्त्यर्थं तदनन्तर संवरवचनम्। संवरे सति निर्जरोपपत्तेस्तदन्तिके निर्जरावचनम् । अन्ते प्राप्यत्वान्मोक्षस्यान्ते वचनम् ।... इह मोक्षः प्रकृतः सोऽवश्य निर्देष्टव्यः । स च संसारपूर्वक ससारस्य प्रधानहेतुरास्रवो बन्धश्च । मोक्षस्य प्रधानहेतु संवरो निर्जरा च। अतः प्रधानहेतुहेतुमत्फल निदर्शनार्थत्वात्पृथगुपदेशः कृतः । -सब फल जीवको मिलता है। अतः सूत्रके प्रारम्भमें जीवका ग्रहण किया है। अजीव जीवका उपकारी है यह दिखलानेके लिए जीवके बाद अजीवका कथन किया है। आस्तव जीव और अजीव दोनोंको विषय करता है अत' इन दोनोके बाद आस्रवका ग्रहण किया है। बन्ध आस्रव पूर्वक होता है, इसलिए आसबके बाद बन्धका कथन किया है। संवृत जोवके बन्ध नहीं होता, अतः सवर बन्धका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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